नई दिल्ली: अस्पतालों में डॉक्टरों के साथ मरीजों के तीमारदारों द्वारा होने वाली मारपीट की घटनाएं लगातार बढ़ती जा रही हैं. दिल्ली के अस्पतालों में भी ऐसी घटनाएं आम बात हैं. कोलकाता में एक ट्रेनी महिला डॉक्टर की रेप के बाद हत्या के विरोध में राजधानी दिल्ली के सभी सरकारी अस्पतालों में 11 दिन तक हड़ताल जारी रही. उस दौरान केंद्रीय स्वास्थ्य सेवा महानिदेशालय ने डॉक्टरों की सुरक्षा को लेकर कई दिशा-निर्देश जारी किए.
इस दौरान निदेशालय ने यह भी आदेश जारी किया कि किसी भी अस्पताल में डॉक्टर के साथ मारपीट की घटना होती है तो अस्पताल प्रशासन 6 घंटे के अंदर आरोपी के खिलाफ संस्थानिक एफआईआर दर्ज कराएगा. सुप्रीम कोर्ट ने भी कोलकाता रेप व मर्डर के मामले पर सुनवाई करते हुए कहा कि डॉक्टरों की सुरक्षा बहुत जरूरी है. अगर डॉक्टर के साथ किसी अस्पताल में मारपीट होती है तो अस्पताल प्रशासन को 2 घंटे के अंदर आरोपी के खिलाफ संस्थानिक एफआईआर दर्ज करनी चाहिए. इसके बावजूद भी इस तरह की घटनाएं रुक नहीं रही हैं. साथ ही अस्पताल प्रशासन संस्थानिक एफआईआर दर्ज कराने से बचते हुए नजर आ रहे हैं.
रेजिडेंट डॉक्टर एसोसिएशन के विरोध के बाद दर्ज हुई संस्थानिक एफआईआर
ताजा मामला दिल्ली के कड़कड़डूमा स्थित डॉक्टर हेडगेवार आरोग्य संस्थान का है. अस्पताल में रविवार को ही एक रेजिडेंट डॉक्टर के साथ एक मरीज के परिजनों ने मारपीट की. पीड़ित डॉक्टर की ओर से अस्पताल की सीएमओ डॉक्टर मेघाली से संस्थानिक एफआईआर दर्ज कराने की मांग की गई. लेकिन, वह संस्थानिक एफआईआर दर्ज कराने की मांग को टालती रहीं. जब रेजिडेंट डॉक्टर एसोसिएशन ने इसको लेकर विरोध जताया और मामले ने तूल पकड़ा तो करीब 18 घंटे बाद अस्पताल ने संस्थानिक एफआईआर दर्ज कराई. इसी तरह करीब तीन दिन पहले जीटीबी अस्पताल में भी शराब के नशे में यूपी पुलिस के एक दरोगा ने पिस्तौल दिखाते हुए हंगामा किया था. आठ दिन पहले जग प्रवेश चंद्र अस्पताल में भी मरीज के तीमारदार ने डॉक्टर के साथ हाथापाई की थी.
क्या होती है संस्थानिक एफआईआर, इससे बहुत कम लोगों को है जानकारी
संस्थानिक एफआईआर शब्द कोलकाता रेप और मर्डर केस के बाद डॉक्टरों की हड़ताल और विरोध प्रदर्शन के दौरान काफी सुनने में आया. इसके दर्ज होने से पीड़ित डॉक्टर को क्या लाभ मिलता है और आरोपी के खिलाफ किस तरह की सख्त कार्रवाई होती है. इसके बारे में बहुत ही कम लोगों को जानकारी है. यहां तक कि बहुत से डॉक्टर को भी इसके बारे में जानकारी नहीं है. जबकि इस नियम को आए हुए 10 साल का समय हो चुका है.
संस्थानिक एफआईआर से संबंधित सभी सवालों को लेकर ईटीवी भारत संवाददाता राहुल चौहान ने दिल्ली मेडिकल एसोसिएशन के पूर्व अध्यक्ष डॉक्टर अजय लेखी से बातचीत की. डॉक्टर लेखी ने बताया कि संस्थानिक एफआईआर का नियम 10 वर्ष पूर्व जब दिल्ली क्लिनिकल स्टेब्लिसमेंट एक्ट आया था उसमें लाया गया था. इसके तहत जब किसी भी अस्पताल में डॉक्टरों के साथ कोई हिंसा या वहां तोड़फोड़ होती है तो अस्पताल को आरोपी के खिलाफ संस्थानिक एफआईआर दर्ज कराने का अधिकार होता है.
चिकित्सा अधीक्षक, चिकित्सा निदेशक की होती है संस्थानिक एफआईआर कराने की जिम्मेदारी
संस्थानिक एफआईआर कराने की जिम्मेदारी अस्पताल के चिकित्सा अधीक्षक, चिकित्सा उपाधीक्षक या चिकित्सा निदेशक की होती है. संस्थानिक एफआईआर को अस्पताल यानी कि संस्थान द्वारा दर्ज कराया हुआ माना जाता है. इस तरह की एफआईआर दर्ज होने पर मामला गैरजमानती हो जाता है. फिर आरोपी को जल्दी जमानत नहीं मिलती है. पुलिस को उसे गिरफ्तार भी करना होता है. साथ ही इस मामले की आगे की पूरी प्रक्रिया में अस्पताल के मुखिया चिकित्सा अधीक्षक, उपाधीक्षक या चिकित्सा निदेशक को शामिल रहना होता है. उसे मुकदमे को लड़ने के लिए एक वकील करना पड़ता है. साथ ही आगे मुकदमे में गवाह और सबूत सभी उपलब्ध कराने होते हैं.
आखिर क्यों अस्पताल के प्रमुख संस्थानिक एफआईआर दर्ज कराने से बचते हैं
डॉक्टर अजय लेखी ने बताया कि रेजिडेंट डॉक्टर्स की अस्पतालों में नियुक्ति की समय सीमा एक महीने से लेकर अधिकतम एक साल तक होती है. इतना समय पूरा होने के बाद अक्सर रेजिडेंट डॉक्टर किसी दूसरे अस्पताल में चले जाते हैं. दूसरे राज्यों से आने वाले अधिकांश रेजिडेंट डॉक्टर्स अपनी इंटर्नशिप पूरी करके दिल्ली से अपने गृह राज्यों में चले जाते हैं. ऐसे में फिर वे मुकदमे की तारीख पर उपलब्ध नहीं होते हैं. ऐसे में संस्थान की ओर से चिकित्सा अधीक्षक, उपाधीक्षक या निदेशक को ही पूरा केस देखना पड़ता और तारीख पर भी कोर्ट में जाना पड़ता है. मुकदमे की पूरी देखरेख करनी होती है. अस्पताल के खाते से वकील को भी पैसा देना होता है. इसलिए अस्पताल प्रशासन या पदाधिकारी संस्थानिक एफआईआर दर्ज कराने से बचते हैं क्योंकि उन्हें इस मामले में फिर पूरी तरह से लगे रहना पड़ता है.
कई बार आरोपियों से भी मिलती है धमकी
डॉक्टर लेखी ने बताया कि वहीं दूसरी तरफ अस्पताल के चिकित्सा अधीक्षक, उपाधीक्षक या निदेशक स्थाई कर्मचारी होते हैं. उन्हें उसी अस्पताल में नौकरी करनी होती है. ट्रांसफर भी होता है तो दिल्ली के एक अस्पताल से दूसरे अस्पताल में होता है. इसलिए संस्थानिक एफआईआर दर्ज होने के बाद आरोपी कई बार अस्पताल के चिकित्सा अधीक्षक, उपाधीक्षक या निदेशक को धमकी भी दे देते हैं.
कई बार अस्पताल के अंदर मारपीट करने वाले आपराधिक प्रवृत्ति के लोग भी होते हैं, जिनको एफआईआर दर्ज होने से कोई फर्क नहीं पड़ता है. और बाद में वे अस्पताल के अधिकारियों को निशाना बनाना शुरू कर देते हैं. इन सब चीजों को देखते हुए ही अस्पताल प्रशासन संस्थानिक एफआईआर दर्ज कराने से बचता है. वह पीड़ित डॉक्टर से व्यक्तिगत तौर पर एफआईआर दर्ज कराने के लिए कहता है. व्यक्तिगत एफआईआर दर्ज कराने पर पूरा केस व्यक्तिगत तौर पर पीड़ित डॉक्टर को लड़ना पड़ता है.
वकील का खर्च और केस से संबंधित खर्च पीड़ित डॉक्टर को ही झेलना पड़ता है. अस्पताल प्रशासन उसमें शामिल नहीं रहता है जबकि ऐसा नहीं होना चाहिए. उन्होंने बताया कि अस्पताल के अंदर ड्यूटी पर कार्यरत किसी डॉक्टर के साथ मारपीट की घटना होने पर इसकी पूरी जिम्मेदारी अस्पताल प्रशासन की होती है. इसलिए उच्च अधिकारियों को तुरंत संस्थानिक एफआईआर दर्ज करानी चाहिए जिससे कि लोगों में कानून के शख्त प्रवाधानों का डर हो.
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