रांची: झारखंड में पुलिस और सुरक्षाबलों के ज्वाइंट ऑपरेशन की बदौलत विकास में बाधक बने माओवादी सिमटते जा रहे हैं. बूढ़ा पहाड़ जैसे गढ़ से भी उखड़ चुके हैं. अब इनकी गतिविधि कोल्हान में गाहे-बगाहे सामने आती रहती है. राज्य से लेकर केंद्र सरकार का दावा है कि माओवादी अंतिम सांसें गिन रहे हैं. लेकिन भाकपा माओवादी संगठन से टूटकर टीपीसी के रुप में साल 2002 में पनपे नक्सलियों ने 7 फरवरी को जिस तरह की हरकत की है उससे पूरा पुलिस महकमा हिला हुआ है. बुधवार की शाम चतरा के सदर थानाक्षेत्र के बैरियो और भुईंयाडीह के बीच अफीम की फसल नष्ट कर लौट रही पुलिस पार्टी पर नक्सलियों ने फायरिंग कर दी. जिसमें दो जवान शहीद हो गये, जबकि तीन घायल हैं.
आज बोकारो रेंज के आईजी माइकल राज के नेतृत्व में घटनास्थल का मुआयना करने गई टीम में शामिल एसडीपीओ संदीप सुमन ने बताया कि अफीम की फसल नष्ट किए जाने से नक्सली हताश हैं. बुधवार को सदर और जोरी थाना की पुलिस वन विभाग की टीम के सहयोग से जंगल क्षेत्र में अफीम की फसल को नष्ट करने गई थी. करीब 4-5 जगहों पर कार्रवाई के बाद शाम के वक्त टीम लौट रही थी. सबसे आगे ट्रैक्टर था. उसके बाद दो 407 गाड़ियों में पुलिस के जवान थे. सबसे पीछे वन विभाग की टीम अपनी गाड़ी में थी. इसी बीच नक्सलियों ने 407 गाड़ी को टारगेट कर फायरिंग कर दी.
इसपर जवानों ने भी एके-47 से जवाबी फायरिंग की. लेकिन जंगल का फायदा उठाकर नक्सली फरार हो गये. घटनास्थल से पुलिस द्वारा फायरिंग किए गये एके-47 के 13 खोखे बरामद हुए हैं. जबकि नक्सलियों द्वारा एसएलआर से फायर किए गये 5 खोखे मिले हैं. फिलहाल सर्च ऑपरेशन जारी है.
चतरा में शुरु हुई थी अफीम की खेती
पुलिस सूत्रों ने बताया कि एक दशक पहले झारखंड के चतरा जिला में ही अफीम की खेती की शुरूआत हुई थी. मोटा मुनाफा देख इस धंधे को नक्सली संरक्षण देने लगे. इसके बाद अफीम की खेती का दायरा चतरा से लातेहार और पलामू के जंगलों तक फैल गया. अब खूंटी समेत कई जिलों में भी नक्सलियों के संरक्षण में खेती करवाई जाती है. चतरा, लातेहार और पलामू की भौगोलिक स्थिति ऐसी है कि अफीम की फसल को नष्ट करने के लिए घंटों पैदल चलकर जंगल और नदियों के आसपास जाना पड़ता है. सूत्रों ने बताया कि ग्रामीणों को एक लाख रु. देकर खेती करवाते हैं तो फसल तैयार होने पर कम से कम 10 लाख का मुनाफा वसूलते हैं.
नक्सली संगठन टीपीसी का कैसे हुआ गठन
टीपीसी यानी तृतीय प्रस्तुति कमेटी एक नक्सली गुट है. अब इसका नाम टीएसपीसी यानी तृतीय संघर्ष प्रस्तुति कमेटी हो गया है. माना जाता है कि इस गुट का उदय भाकपा माओवादी संगठन में जातीय संघर्ष की वजह से हुआ. भाकपा माओवादी गुट में यादव जाति का बोलबाला था. इसी वजह से गंझू, भोक्ता, खरवार जैसी जातियों से जुड़े माओवादियों ने साल 2002 में टीपीसी का गठन कर माओवादियों को चुनौती देना शुरू किया. पूरी लड़ाई पैसे वसूली को लेकर शुरू हुई. इस संगठन का प्रभाव मुख्य रूप से चतरा और लातेहार में है. लेकिन माना जाता है कि कुछ कैडर हजारीबाग और पलामू में भी सक्रिय हैं.
माओवादियों के साथ होता रहा है खूनी संघर्ष
चतरा के कुंदा थानाक्षेत्र के लकड़मंदा जंगल में टीपीसी नक्सलियों ने 27 मार्च 2013 में घात लगाकर 10 माओवादियों को मार दिया था और करीब 20 को बंधक बना लिया था. इस घटना की पुष्टि तत्कालीन एसपी अनूप बिरथरे ने की थी. पुलिस के घटनास्थल पहुंचने पर भारी मात्रा में हथियार मिले थे. पुलिस के मुताबिक दोनों गुटों में मुठभेड़ हुई थी. बदले में अगस्त, 2014 में माओवादियों ने पलामू के विक्रमपुर इलाके में टीपीसी के 16 कैडर की हत्या कर दी थी. इसके बाद लंबे समय तक दोनों गुटों में खूनी संघर्ष चलता रहा. फिलहाल टीएसपीसी की कमान ब्रजेश गंझू के हाथ में है. जिसकी तलाश जारी है. इस संगठन का मुख्य काम है लेवी वसूलना. इसके लिए कोयला ट्रांसपोर्टर्स से वसूली की जाती है.
फिलहाल, चतरा की घटना से पुलिस महकमा सदमे में है. पुलिस सूत्रों का कहना है कि टीएसपीसी नक्सलियों में पुलिस से टकराने की हिम्मत नहीं होती है. कभी-कभार आमने-सामने होने पर मुठभेड़ जरुर हो जाती है. लेकिन संभवत: ऐसा पहली बार हुआ है जब टीएसपीसी नक्सलियों ने घात लगाकर पुलिस पर फायरिंग की है. इससे साफ है कि अफीम की फसल नष्ट करने के लिए चलाए जा रहे अभियान से उनकी आमदनी का स्त्रोत सीधे तौर पर प्रभावित हो रहा है. इसकी वजह से आपा खो रहे हैं. अब देखना है कि पुलिस की जवाबी कार्रवाई में क्या कुछ सामने आता है.
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