गयाः मुक्तिधाम के रूप में विख्यात बिहार का गया शहर दुनिया के प्राचीन शहरों में गिना जाता है. धार्मिक मान्यताओं के अनुसार गया में पिंडदान करने के बाद पितरों के श्राद्ध-तर्पण की आवश्यकता नहीं होती है. गया में पितृपक्ष के दौरान देश-विदेश से श्रद्धालु आते हैं और पिंडदान करते हैं. लेकिन क्या आपको पता है कि हमारी धार्मिक मान्यताओं में महत्वपूर्ण स्थान रखनेवाले इस पवित्र तीर्थस्थल का नाम एक राक्षस के नाम पर पड़ा था ?
गयासुर के नाम पर रखा गया नामः इस संबंध में वैदिक मंत्रालय गया के पंडित राजा आचार्य बताते हैं कि "काशी- प्रयाग से भी प्राचीनकालीन तीर्थ में गया का नाम आता है. यहां भगवान नारायण ने अपना पैर गयासुर के शरीर पर रखा था, जिसके बाद उसे उत्तम लोक की प्राप्ति हुई थी. गयासुर ने भगवान से इस क्षेत्र का नाम उसके नाम से करने की प्रार्थना की तो भगवान विष्णु ने गयासुर की प्रार्थना स्वीकार कर ली और इस तरह गया का नामकरण हुआ."
कौन था गयासुर ?: पौराणिक कथाओं के अनुसार गयासुर नाम का राक्षस अत्यंत ही तपस्वी, धार्मिक और पुण्यात्मा था. उसने कोलाहल पर्वत पर घोर तपस्या की. उसकी तपस्या से भगवान नारायण प्रसन्न हो गये, भगवान उसके सामने प्रकट हुए और वरदान मांगने को कहा. गयासुुर ने कहा कि हे भगवन्! आपके दर्शन से मैं धन्य हो गया. यदि आप मेरे ऊपर प्रसन्न हैं तो वरदान दीजिए कि मैं जिसे स्पर्श करूं, वो स्वर्गधाम जाए. भगवान विष्णु ने न चाहते हुए भी उसे ये वरदान दे दिया.
बढ़ गयी देवताओं की चिंता:इस वरदान के बाद गयासुर सभी प्राणियों को अपने स्पर्श से स्वर्ग लोक भेजने लगा. परिणामस्वरूप यमपुरी सूनी होने लगी. तब सभी देवी-देवता ब्रह्मा जी के पास गए. जिसके बाद ब्रह्मा जी गयासुर के पास गए और कहा कि मुझे यज्ञ हेतु इस धरती पर पवित्र स्थान नहीं मिला है, अत: तुम अपना शरीर इस यज्ञ हेतु मुझे सौंप दो. गयासुर ने ब्रह्मा जी की बात सहर्ष स्वीकार कर ली.
भगवान विष्णु ने गयासुर की देह पर रखा अपना पांवः ब्रह्माजी ने गयासुर के शरीर पर धर्मशिला रखकर यज्ञ प्रारंभ किया. धर्मशिला रखने के बावजूद गयासुर का शरीर हिलता रहा.तब उसे रोकने के लिए स्वयं भगवान विष्णु गदाधर के रूप में पहुंचे और अपना दाहिना पैर गयासुर के शरीर पर रखा. नारायण श्रीविष्णु के चरण स्पर्श से ही गयासुर का शरीर हिलना बंद हो गया.
मैं शिला में सदा मौजूद रहूंः इसके बाद गयासुर ने भगवान विष्णु से कहा कि भगवन्! जिस स्थान पर मैं प्राण त्याग रहा हूं. वह शिला में परिवर्तित हो जाए और मैं उसमें सदा मौजूद रहूं. उस शिला पर आपके पवित्र चरणों के चिन्ह रहें. भगवान विष्णु ने गयासुर की प्रार्थना को स्वीकार कर ली. गया के विष्णुपद मंदिर में आज भी वो धर्मशिला मौजूद है.
मुक्तिधाम के रूप में विख्यात है गयाः फल्गु नदी के किनारे अवस्थित गया मुक्तिधाम के रूप में विख्यात है. आश्विन महीने के कृष्णपक्ष (जिसे पितृपक्ष भी कहा जाता है) के 15 दिनों के दौरान यहां पितृपक्ष मेला लगता है, जिसमें देश-विदेश से लाखों श्रद्धालु आते हैं और श्राद्ध-तर्पण करते हैं. मान्यता है कि गया में श्राद्ध कर्म, तर्पण विधि और पिंडदान करने के बाद कुछ भी शेष नहीं रह जाता है और व्यक्ति पितृऋण से मुक्त हो जाता है.
रामायण और महाभारत में भी गया का उल्लेखः गया का उल्लेख रामायण-महाभारत में भी मिलता है. एक कथा के अनुसार फल्गु नदी के तट पर भगवान राम और माता सीता ने भी राजा दशरथ की आत्मा की शांति और मोक्ष के लिए श्राद्ध कर्म और पिंडदान किया था. इसके अलावा महाभारत काल में पांडवों ने भी इसी स्थान पर अपने पितरों का श्राद्ध कर्म किया था.