विकासनगर: जौनसार बावर जनजातीय क्षेत्र में इन दिनों किसान अन्य फसलों के अलावा पारंपरिक मंडुवे (कोदा) की फसल की निराई गुड़ाई करने में लगे हुए हैं. फसल की निराई गुड़ाई के बाद "कोदा की नेठाअण" के रूप में पर्व भी मनाने की परम्परा है. रिमझिम फुहारों के बीच किसान गीत गुनगुनाते हुए निराई-गुड़ाई कर रहे हैं.
जौनसार बावर में होती है जैविक खेती: जनजातीय क्षेत्र जौनसार बावर का मुख्य व्यवसाय पशुपालन और कृषि है. जौनसार में आज भी पारंपरिक खेती की जाती है. सबसे बड़ी बात यह है कि अधिकतर खेती किसानी आसमानी बारिश पर निर्भर करती है. इसके साथ ही खेतों में फसलों के उत्पादन के लिए गोबर खाद का इस्तेमाल सदियों से किया जाता रहा है. समूचे देश में जहां जैविक खेती पर सरकार का फोकस रहता है, वहीं यह क्षेत्र विभिन्न प्रकार की फसलों के उत्पादन को खेतों में पशुओं की गोबर खाद का प्रयोग सदियों से करते आ रहे हैं. हालांकि अब इसका दायरा सिमटता जा रहा. इसके कई कारण किसानों द्वारा बताए जा रहे हैं.
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पलायन से खेती में आई कमी: किसानों का कहना है कि अच्छी शिक्षा और रोजगार आदि के चलते शहरों की ओर पलायन हो रहा है. कुछ लोग स्वयं का रोजगार करने में व्यस्त हैं. गांवों परिवारों में दो चार सदस्य ही खेती बाड़ी कर रहे हैं. बावजूद इसके अगर किसी किसान की खेती की निराई गुड़ाई पिछड़ जाती है, तो सभी गांव वाले एक दूसरे की मदद करते हैं. यहां आज भी सामूहिकता का भाव स्पष्ट दिखाई देता है.
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इन दिनों चल रही है मडुवे की निराई गुड़ाई: चौमासे (सावन) के दिनों में किसानों के कृषि से जुड़े काम बढ़ जाते हैं. खेतों में खड़ी फसलें मक्का, राजमा, अदरक, अरबी सहित पारंपरिक फसल मडुवे की निराई गुड़ाई का सिलसिला चलता है. जौनसार के समाल्टा गांव में मडुवे (कोदा) की निराई गुड़ाई किसानों द्वारा की जा रही है. एक दशक पहले गांव के हर परिवार के आठ से दस खेतों में पारंपरिक फसल मंडुवे की बुआई करते थे. धीरे धीरे अब इस फसल की बुआई किसान एक या दो खेतों में ही कर रहे हैं. इसका दायरा सिमटता जा रहा है. जौनसार के सभी किसान कोदा की निराई गुड़ाई पूरी करके संक्रांति के दिन "कोदा की नेठाअण" एक पर्व के रूप में मनाते हैं. घरों में विशेष प्रकार के व्यजंन बनाए जाने की परम्परा भी है. इस पर्व पर नौकरी पेशा लोग भी पर्व मनाने पंहुचते हैं. गांव में हर्ष और खुशी, आपसी भाईचारे का महौल बना रहता है.
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रिमझिम बारिश में खेतों में गूंज रहे गीत: चौमासे (सावण) के दिनों में खेतों में मंडुवे (कोदा) की निराई गुड़ाई करने के लिए सभी महिला पुरुष पहुंचते हैं. आसमान से रिमझिम बरिश की फुहारों के बीच किसान अपने पारंपरिक गीत भी गुनगुनाते हैं. यह नजारे हमें अपनी जन्मभूमि से जोड़े रखते हैं. किसानों का कहना है कि एक दशक पूर्व क्षेत्र में मंडुवे (कोदा) की बहुत ज्यादा खेती की जाती थी. अब गांवों से पलायन के कारण मोटा अनाज की खेती में गिरावट आई है. अब नकदी फसलें टमाटर, बींस, अरबी, अदरक और राजमा पर ज्यादा जोर है. एक दशक पूर्व भारी मात्रा में कोदा की खेती की जाती थी. यह अनाज बहुत ही सुरक्षित रहता था. किसान अपने घरों में बने कोठारों (देवदार की लकड़ी से बना होता है) में इसे स्टोर करते थे. इस अनाज में कोई भी कीड़ा, घुन नहीं लगते थे. सालों साल यह अनाज सुरक्षित रहता था. आधुनिकता की इस दौड़ में नकदी फसलों और अन्य कारणों से मंडुवे (कोदा) की बुआई में कमी देखने को मिल रही है. ग्रामीणों ने कहा कि इसके आटे की रोटी ताकतवर होती है और कई बीमारियों में यह औषधि का भी काम करती है.
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