जयपुर. एपिलेप्सी (मिर्गी), एक ऐसी बीमारी जिसे लेकर समाज में आज भी कई भ्रांतियां हैं. अमूमन इस बीमारी से जूझ रहे लोगों को अंधविश्वास का शिकार भी होना पड़ता है. आज दुनिया भर में प्रति 1000 लोगों में 8 से 10 मरीज मिर्गी की बीमारी से पीड़ित मिल जाते हैं. डॉक्टर्स की मानें तो इन मरीजों का दवाइयों से आसान इलाज संभव है. हालांकि, 20% केस ऐसे भी हैं, जिसके लिए सर्जरी करनी पड़ सकती है, जिसकी सक्सेस रेट 50 से 60% है. मिर्गी के मरीजों के लिए सबसे ज्यादा जरूरी है सामाजिक देखभाल.
विश्व मिर्गी दिवस के उपलक्ष्य में आज जहां कोने-कोने में जागरूकता अभियान के साथ मेडिकल कैंप लगाए जा रहे हैं. वहीं, ईटीवी भारत ने विशेषज्ञों से बात करते हुए जाना कि आखिर एपिलेप्सी क्या है और क्या इस बीमारी से बचा जा सकता है. इस संबंध में सीनियर न्यूरोलॉजिस्ट डॉ दिनेश खंडेलवाल ने बताया कि एपिलेप्सी मस्तिष्क का विकार है. इसमें विद्युत तरंगे अनावश्यक रूप से बहुत अधिक मात्रा में जनरेट होने लगती हैं. वो एक हिस्से से निकलकर पूरे दिमाग में फैल जाती है, जिससे व्यक्ति बेहोश हो जाता है, गिर जाता है, मुंह से झाग आने लगते हैं, झटके आते हैं. ये तरंग थोड़ी देर चलती है फिर स्वतः रुक जाती है और व्यक्ति फिर धीरे-धीरे होश में आने लगता है.
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बच्चों में मिर्गी के लक्षण : दिनेश खंडेलवाल ने बताया कि अमूमन बच्चों में अब्सेंस एपिलेप्सी देखने को मिलती है. इसमें बच्चे बैठे-बैठे अचानक गुम हो जाते हैं. उनकी मौजूदगी रहती है, लेकिन वो रिस्पॉन्ड नहीं करते, धीरे-धीरे उन्हें होश आ जाता है. इस एपिलेप्सी में किसी तरह के झटके नहीं आते. इसके अलावा कुछ एपिलेप्सी में शरीर का एक हिस्सा हिलने लगता है, या कभी-कभी चेहरा या आंखें एक तरफ हो जाती हैं. यह एक-दो मिनट के लिए होता है और फिर व्यक्ति ठीक हो जाता है. विद्युत तरंगों के कारण कभी-कभार ब्रेन पूरी तरह काम नहीं करता, जिसकी वजह से व्यक्ति होश में नहीं रहता.
इस वजह से हो सकती है मिर्गी : सीनियर न्यूरोलॉजिस्ट ने बताया कि बचपन से लेकर वृद्धावस्था तक मस्तिष्क के कोई भी विकार से एपिलेप्सी की प्रॉब्लम हो सकती है. यदि सेफ डिलीवरी न हो तो नवजात बच्चे को हाइपोक्सिया हो सकता है, जिसमें ऑक्सीजन की कमी से एपिलेप्सी होती है. इसके अलावा बच्चों में अनुवांशिक विकार हो सकते हैं, जिसमें दिमाग की नसों में डिफेक्ट होता है, जो स्पार्क जैसा करने लगती हैं. बच्चे जब बड़े होते हैं, उनके सिर में चोट लगने, एक्सीडेंट या इंफेक्शन होने से भी एपिलेप्सी हो सकती है. वहीं, वृद्धावस्था में हाइपरटेंशन, डायबिटीज के कारण ब्रेन में क्लॉट होने की वजह से एपिलेप्सी हो सकती है.
मिर्गी का इलाज संभव : दिनेश खंडेलवाल ने बताया कि इसका उपचार भी संभव है, इसके लिए सबसे पहले ये जानकारी जुटाई जाती है कि एपिलेप्सी किस तरह की है. जर्नलाइज और पार्शियल एपिलेप्सी जिनकी अलग-अलग दवाइयां होती हैं. इन दवाइयों का साइड इफेक्ट और फायदा देखा जाता है, उसी के अनुसार आगे दवाई की डोज कम या ज्यादा करते हैं. 80% लोगों में मेडिसिन के जरिए ही ये कंट्रोल हो जाता है, लेकिन 20% मरीज ऐसे होते हैं, जिनको मेडिसिन से कंट्रोल नहीं हो पाता. इसमें सबसे ज्यादा केस मिजियल टेंपोरल लोब स्क्लेरोसिस के होते हैं. इसमें दिमाग के हिप्पोकेंपस में ग्लायोसिस या स्क्लेरोसिस हो जाता है. इस वजह से उसके सराउंडिंग पार्ट को निकालना पड़ता है, उससे एपिलेप्सी क्योर हो सकती है या दवाई की मात्रा कम हो सकती है.
डॉ. दिनेश ने बताया कि मिर्गी को लेकर पहले बहुत ज्यादा भ्रांतियां थीं, लेकिन जैसे-जैसे समाज में एजुकेशन बढ़ी है, थोड़ा-बहुत इंप्रूवमेंट देखने को मिला है. अभी भी समाज के बड़े तबके में एपिलेप्सी को लेकर भ्रांतियां हैं. इसकी वजह से पीड़ित मरीज की शादी और जिंदगी में काफी समस्याएं आती हैं, लेकिन ये स्पष्ट है कि यदि किसी लड़की के एपिलेप्सी की प्रॉब्लम है तो उसे प्रेगनेंसी या डिलीवरी के वक्त किसी भी तरह की परेशानी नहीं होती है. इसकी दवाइयां अब सरकारी अस्पताल में मुफ्त में भी मिल रही हैं. उन्होंने कहा कि अब ये कोई बीमारी नहीं रही. जिस तरह से ब्लड प्रेशर, शुगर की बीमारी में रोज गोली लेते हैं, ऐसे ही मिर्गी की समस्या से पीड़ित मरीजों को भी रोज गोली लेनी होती है और सामान्य जिंदगी जी सकते हैं.
सर्जरी का 50% से 60% सक्सेस रेट : न्यूरोसर्जन डॉ मनीष अग्रवाल ने बताया कि एपिलेप्सी का प्राइमरी ट्रीटमेंट मेडिकल ट्रीटमेंट से ही किया जाता है. कई मरीज ऐसे होते हैं जो मेडिकल ट्रीटमेंट को रेस्पॉन्ड नहीं करते हैं. जो मेडिकल ट्रीटमेंट को रेस्पॉन्ड नहीं करते हैं, उनके लिए सर्जिकल प्लानिंग की जाती है, जिसमें ये जांच की जाती है कि मरीज को कितने फिट्स या सीजर आते हैं. कितनी उसकी दवाई की डोज है, इसके फिक्स क्राइटेरिया हैं, उससे पहले सर्जिकल प्लानिंग नहीं की जा सकती है. स्टैंडर्ड मेडिकल ट्रीटमेंट से यदि सीज़र (फिट्स, दौरे) कंट्रोल हो जाते हैं तो मरीज सामान्य लाइफ जी सकता है, लेकिन यदि किसी पेशेंट को सर्जरी की जरूरत पड़ती है तो एपिलेप्सी केस में 50% से 60% सक्सेस रेट है. इसमें कुछ मरीज एपिलेप्सी से पूरी तरह मुक्त भी हो जाते हैं और कुछ मरीजों की दवाई की डोज कम हो जाती है और सीजर फ्रीक्वेंसी भी कम हो जाती है.
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इनसे बचें : डॉ मनीष अग्रवाल ने बताया कि जिनके फिट्स की प्रॉब्लम होती है, उनको सामान्यतया नींद पूरी लेनी चाहिए. साथ ही शोर-शराबे वाली जगह को अवॉयड कर देना चाहिए, डिस्को या मैरिज इवेंट की तेज लाइट से बचना चाहिए. ज्यादा देर टीवी नहीं देखना चाहिए, मोबाइल पर गेम्स नहीं खेलना चाहिए. उन्हें जो भी फिट्स को बढ़ाने वाली गतिविधियां हैं, उनको अवॉइड करना चाहिए.
बीमारी को छुपाए नहीं : न्यूरोसर्जन ने बताया कि सबसे बड़ी दिक्कत ये है कि ये बीमारी काफी लंबे समय से रही है और आम जनता का नजरिया है कि जिसके फिट्स आते हैं वो सामान्य जीवन यापन नहीं कर सकता. ऐसा नहीं है. आज जो मेडिकल और सर्जिकल ट्रीटमेंट हैं, उसे मिर्गी के मरीज को सामान्य जीवन यापन करने लायक बनाया जा सकता है. वो पढ़ाई कर सकते हैं, सोशली प्रोडक्टिव हो सकते हैं. इसके लिए सोशल अवेयरनेस की जरूरत है. उन्होंने अपील की कि लोग सबसे पहले तो ऐसी बीमारी को छुपाएं नहीं. साथ ही आम जनता भी ऐसे मरीजों को इलाज के लिए प्रोत्साहित करे.