जोधपुर: दिवाली पर बदलते समय के साथ बही खातों का काम धीरे धीरे कम होता जा रहा है. इनकी जगह कंप्यूटर ले रहा है. शहरों में लाल कपड़े में गुंथे पीले पन्नों का उपयोग सीमित हो गया है. शगुन और पूजन के लिए धनतेरस से इसकी खरीदी होती है. हालांकि, गांवों में अभी बही का उपयोग जारी है.
जोधपुर के भीतरी शहर में साठ साल से बही निर्माण के काम से जुड़े मोहित जैन का कहना है कि कंप्यूटर से बही का चलन कम हुआ है. हालांकि इसका उपयोग बंद नहीं हुआ. मोहित बताते हैं कि कंप्यूटर का डेटा डिलीट हो सकता है, लेकिन लिखा हुआ हिसाब खत्म नहीं होता है, इसलिए हर प्रतिष्ठान में एक बही जरूर होती है, जिसमें प्रमुख लेन देन लिखा जाता है. दिवाली के मौके पर ही बही बदलने का रिवाज है. पूजन के साथ बही में एक एंट्री जरूर की जाती है.
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पूरी मेहनत से बनती है बही: लाल कपडे़ की दस्तरी पर आकर्षक सिलाई के साथ पीले पन्नों में बनी बही आकर्षक लगती है. आज से दो दशक पहले तक हर दुकान पर लाल बही नजर आती थी. इसके निर्माण में भी पूरी मेहनत लगती है. दस्तरी बनने के बाद पीले पन्नों के साथ फिर सिलाई होती है. बही के एक पन्ने को आठ सिलवटों में बांटा जाता है. इसमें बांई तरफ व्यापारी की आवक व दांई तरफ खर्च का विवरण लिखा जाता है. कंप्यूटर के दौर में दुकानों में पुराने मुनीम भी नहीं रहे तो बही भी अब पूजन तक सिमट कर रह गई. ऐसे में लंबी बहियों की जगह रजिस्टरनुमा बहियां बनाए जाने लगी है. जिससे कि नए लोग भी इसका उपयोग कर सकें.