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लखनऊ में नाजिम अली इमामबाड़े से निकाला गया चुप ताजिये का जुलूस, जानें इसका इतिहास - Chup Tajiya in Lucknow

राजधानी के विक्टोरिया स्ट्रीट स्थित नाजिम साहब के इमामबाड़े से चुप ताजिया का जुलूस आज निकाला गया, जिसमें हजारों श्रद्धालु शामिल हुए. यह जुलूस विक्टोरिया स्ट्रीट के नाजिम अली इमामबाड़े से शुरू होकर काजमैन पर खत्म होता है.

लखनऊ में नाजिम अली इमामबाड़े से निकाला गया चुप ताजिये का जुलूस
लखनऊ में नाजिम अली इमामबाड़े से निकाला गया चुप ताजिये का जुलूस (Photo Credit; ETV Bharat)
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By ETV Bharat Uttar Pradesh Team

Published : Sep 12, 2024, 4:39 PM IST

लखनऊ : राजधानी के विक्टोरिया स्ट्रीट स्थित नाजिम साहब के इमामबाड़े से चुप ताजिया का जुलूस आज निकाला गया, जिसमें हजारों श्रद्धालु शामिल हुए. यह जुलूस विक्टोरिया स्ट्रीट के नाजिम अली इमामबाड़े से शुरू होकर काजमैन पर खत्म होता है. लखनऊ की तहज़ीब और ऐतिहासिक विरासत में चुप ताज़िया के जुलूस का एक विशेष महत्व है. मुहर्रम महीने में शुरू होने वाले शोक की अवधि का यह अंतिम जुलूस माना जात है, जिसमें श्रद्धालु बिना कोई आवाज किए पूरी खामोशी के साथ मातम करते हैं. इसका उद्देश्य हज़रत इमाम हुसैन और उनके साथियों की शहादत की याद में मौन शोक मनाना है.

क्या है इसका इतिहास

चुप ताज़िया की परंपरा का आरंभ 19वीं सदी में हुआ. यह शिया इमामों में ग्यारहवें इमाम इमाम हसन अल-अस्करी की याद में निकाला जाता है. जुलूस को आमतौर पर मुहर्रम के इस्लामी महीने में शुरू होने वाले शोक की अवधि का अंतिम जुलूस माना जाता है. चुप ताज़िया के नाम से जुलूस सब से पहले लखनऊ में शुरू हुआ था. इसकी शुरुआत बहू बेगम के वंशज नवाब अहमद अली खान शौकत यार जंग ने की .। यह लखनऊ में अज़ादारी के सबसे महत्वपूर्ण जुलूसों में से एक है. उन्नीसवीं सदी के दौरान नवाब अग्गन मियां के परिवार का यह जुलूस जो पहले चेहलुम (20वां सफ़र ) के दिन उठाया जाता था, उस के बाद चेहलुम के अठारहवें दिन यानी रबी अल-अव्वल की 8 तारीख को स्थानांतरित कर दिया गया था. रबी अल-अव्वल की 8 तारीख की सुबह निकाला गया यह अंतिम शोक जुलूस जिसमें अलम, ज़री और ताज़िया शामिल होते हैं, विक्टोरिया स्ट्रीट में इमामबाड़ा नाज़िम साहब से शुरू होता है और पूरी खामोशी के साथ पटानाला से गुजरते हुए कर्बला काज़मैन में समाप्त होता है, जहां विशाल काले ताज़िया को दफन किया जाता है.

दिलचस्प पहलू

1. मौन का महत्व: चुप ताज़िया के जुलूस में मौन रखना एक गहरे आध्यात्मिक अर्थ को दर्शाता है. यह जुलूस इस बात की निशानी है कि दुख और दर्द को व्यक्त करने के लिए हमेशा शब्दों की ज़रूरत नहीं होती, बल्कि दिल की भावनाएं खामोशी में और गहराई से प्रकट होती हैं.

2. ताज़िए की विशेष तैयारी: चुप ताज़िया के लिए इस्तेमाल किया जाने वाला ताज़िया खासतौर पर तैयार किया जाता है, जिसे बेहद कारीगरी और नफ़ासत से बनाया जाता है. ये ताज़िए कला और संस्कृति के नायाब उदाहरण होते हैं.

3. जुलूस के नियम: इस जुलूस में शामिल होने वाले श्रद्धालुओं को सख़्ती से मौन रहने का निर्देश होता है और यह परंपरा पीढ़ी दर पीढ़ी चली आ रही है. काले वस्त्र धारण किए हुए लोग बेहद सम्मान और शांति के साथ इस जुलूस में भाग लेते हैं.

4. श्रद्धा का प्रतीक: चुप ताज़िया का जुलूस गहरे शोक और श्रद्धा का प्रतीक है. इसमें भाग लेने वाले हज़रत इमाम हुसैन अ.स. की कुर्बानियों को याद करते हैं और उनकी शिक्षाओं पर चिंतन करते हैं.

यह जुलूस न केवल लखनऊ की सांस्कृतिक धरोहर का एक अभिन्न हिस्सा है, बल्कि यह धार्मिक आस्था और श्रद्धा का भी जीवंत उदाहरण है. हर साल हज़ारों लोग इसमें हिस्सा लेते हैं, इस उम्मीद के साथ कि वे इमाम हुसैन की कुर्बानियों से प्रेरणा ले सकें.

यह भी पढ़ें : 2 करोड़ की डबल डेकर AC बस मुफ्त दे दी लेकिन एक चीज नहीं दी, 2 कदम भी नहीं चल सकी, पढ़िए पूरी वजह - up roadways

लखनऊ : राजधानी के विक्टोरिया स्ट्रीट स्थित नाजिम साहब के इमामबाड़े से चुप ताजिया का जुलूस आज निकाला गया, जिसमें हजारों श्रद्धालु शामिल हुए. यह जुलूस विक्टोरिया स्ट्रीट के नाजिम अली इमामबाड़े से शुरू होकर काजमैन पर खत्म होता है. लखनऊ की तहज़ीब और ऐतिहासिक विरासत में चुप ताज़िया के जुलूस का एक विशेष महत्व है. मुहर्रम महीने में शुरू होने वाले शोक की अवधि का यह अंतिम जुलूस माना जात है, जिसमें श्रद्धालु बिना कोई आवाज किए पूरी खामोशी के साथ मातम करते हैं. इसका उद्देश्य हज़रत इमाम हुसैन और उनके साथियों की शहादत की याद में मौन शोक मनाना है.

क्या है इसका इतिहास

चुप ताज़िया की परंपरा का आरंभ 19वीं सदी में हुआ. यह शिया इमामों में ग्यारहवें इमाम इमाम हसन अल-अस्करी की याद में निकाला जाता है. जुलूस को आमतौर पर मुहर्रम के इस्लामी महीने में शुरू होने वाले शोक की अवधि का अंतिम जुलूस माना जाता है. चुप ताज़िया के नाम से जुलूस सब से पहले लखनऊ में शुरू हुआ था. इसकी शुरुआत बहू बेगम के वंशज नवाब अहमद अली खान शौकत यार जंग ने की .। यह लखनऊ में अज़ादारी के सबसे महत्वपूर्ण जुलूसों में से एक है. उन्नीसवीं सदी के दौरान नवाब अग्गन मियां के परिवार का यह जुलूस जो पहले चेहलुम (20वां सफ़र ) के दिन उठाया जाता था, उस के बाद चेहलुम के अठारहवें दिन यानी रबी अल-अव्वल की 8 तारीख को स्थानांतरित कर दिया गया था. रबी अल-अव्वल की 8 तारीख की सुबह निकाला गया यह अंतिम शोक जुलूस जिसमें अलम, ज़री और ताज़िया शामिल होते हैं, विक्टोरिया स्ट्रीट में इमामबाड़ा नाज़िम साहब से शुरू होता है और पूरी खामोशी के साथ पटानाला से गुजरते हुए कर्बला काज़मैन में समाप्त होता है, जहां विशाल काले ताज़िया को दफन किया जाता है.

दिलचस्प पहलू

1. मौन का महत्व: चुप ताज़िया के जुलूस में मौन रखना एक गहरे आध्यात्मिक अर्थ को दर्शाता है. यह जुलूस इस बात की निशानी है कि दुख और दर्द को व्यक्त करने के लिए हमेशा शब्दों की ज़रूरत नहीं होती, बल्कि दिल की भावनाएं खामोशी में और गहराई से प्रकट होती हैं.

2. ताज़िए की विशेष तैयारी: चुप ताज़िया के लिए इस्तेमाल किया जाने वाला ताज़िया खासतौर पर तैयार किया जाता है, जिसे बेहद कारीगरी और नफ़ासत से बनाया जाता है. ये ताज़िए कला और संस्कृति के नायाब उदाहरण होते हैं.

3. जुलूस के नियम: इस जुलूस में शामिल होने वाले श्रद्धालुओं को सख़्ती से मौन रहने का निर्देश होता है और यह परंपरा पीढ़ी दर पीढ़ी चली आ रही है. काले वस्त्र धारण किए हुए लोग बेहद सम्मान और शांति के साथ इस जुलूस में भाग लेते हैं.

4. श्रद्धा का प्रतीक: चुप ताज़िया का जुलूस गहरे शोक और श्रद्धा का प्रतीक है. इसमें भाग लेने वाले हज़रत इमाम हुसैन अ.स. की कुर्बानियों को याद करते हैं और उनकी शिक्षाओं पर चिंतन करते हैं.

यह जुलूस न केवल लखनऊ की सांस्कृतिक धरोहर का एक अभिन्न हिस्सा है, बल्कि यह धार्मिक आस्था और श्रद्धा का भी जीवंत उदाहरण है. हर साल हज़ारों लोग इसमें हिस्सा लेते हैं, इस उम्मीद के साथ कि वे इमाम हुसैन की कुर्बानियों से प्रेरणा ले सकें.

यह भी पढ़ें : 2 करोड़ की डबल डेकर AC बस मुफ्त दे दी लेकिन एक चीज नहीं दी, 2 कदम भी नहीं चल सकी, पढ़िए पूरी वजह - up roadways

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