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बस्तर दशहरा की भीतर रैनी रस्म पूरी, माईजी के छत्र को रथारूढ़ कर कराया भ्रमण

जगदलपुर में बस्तर दशहरा की प्रमुख भीतर रैनी रस्म निभाई गई. विशालकाय रथ पर आराध्यदेवी दंतेश्वरी के छत्र को रथारूढ़ कर भ्रमण कराया गया.

Bhitar Raini Rasm Completed
जगदलपुर में भीतर रैनी रस्म पूरी (ETV Bharat)
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By ETV Bharat Chhattisgarh Team

Published : Oct 14, 2024, 2:29 PM IST

Updated : Oct 15, 2024, 7:15 AM IST

बस्तर : देशभर में मनाए जाने वाले दशहरा पर्व से बस्तर का दशहरा अलग है. जहां एक ओर पूरे देश में रावण का पुतला दहन किया जाता है. वहीं बस्तर में विजयदशमी के दिन दशहरा की प्रमुख रस्म भीतर रैनी निभाई जाती है.

रविवार को निभाई गई भीतर रैनी की रस्म : विश्व प्रसिद्ध बस्तर दशहरे में हर साल विजयदशमी के दिन 8 चक्कों के विशालकाय विजय रथ में बस्तर की आराध्यदेवी दंतेश्वरी के छत्र को रथारूढ़ कर शहर भ्रमण करवाया जाता है. इस साल यह रस्म रविवार की रात निभाई गई. इस रस्म को देखने के लिए हजारों की संख्या में भीड़ उमड़ पड़ी. भीतर रैनी रस्म के तहत राजपरिवार सदस्य गद्दी में बैठकर जनता को सुबह से शाम तक दर्शन भी दिए.

बस्तर दशहरा की भीतर रैनी रस्म पूरी (ETV Bharat)

भीतर रैनी रस्म से आशय है कि आज राजा महल के भीतर ही रहेंगे और क्षेत्र की जनता, जो उनसे मिलने आते हैं, उन्हें दर्शन देंगे. इसके अलावा आज के दिन जनता के लिए राजमहल में प्रवेश करने की अनुमति रहती है. सुबह से ही राजा गद्दी में बैठे रहते हैं, जब तक जनता का आना समाप्त नहीं होता है. जनता आती है, दर्शन करके नजर उतारती है और कुछ पैसे नजराने के तौर पर थाली में छोड़ती है, जिसे अंत मे गरीबों में बांट दिया जाता है. : कमलचंद भंजदेव, सदस्य, बस्तर राजपरिवार

बेहद दिलचस्प है माईजी के छत्र भ्रमण का इतिहास : जानकर व वरिष्ठ पत्रकार अविनाश प्रसाद ने बताया, बस्तर का दशहरा देश दुनिया से अलग है. विजयदशमी के दिन में बस्तर में 8 चक्कों के विशालकाय रथ में आराध्यदेवी दंतेश्वरी के छत्र को सवार करके भ्रमण करवाया जाता है. इस रथ को किलेपाल परघना के माड़िया जनजाति के लोग खींचते हैं और देर रात इसे चुराकर 3 किलोमीटर दूर कुम्हडाकोट में ले जाते हैं. इस चोरी के पीछे माड़िया जनजाति की मंशा रहती है कि महाराजा उनके साथ नए फसल का भोज ग्रहण करें.

राजशाही युग में राजा से असंतुष्ट लोगों ने रथ चुराकर अपने गांव में एक जगह छिपा दिया था. जिसके लिए राजा को कुम्हडाकोट आना पड़ा और ग्रामीणों को मान मनौवल कर उनके साथ भोज किया. जिसके बाद राजा द्वारा रथ को शाही अंदाज में वापस जगदलपुर के दंतेश्वरी मंदिर लाया गया. : अविनाश प्रसाद, जानकर व वरिष्ठ पत्रकार

600 सालों से चली आ रही यह परंपरा : बस्तर के राजा पुरषोत्तम देव द्वारा तिरुपति से रथपति की उपाधि ग्रहण करने के बाद बस्तर में दशहरे के अवसर पर रथ परिक्रमा की प्रथा आरम्भ की गई थी, जो कि आज तक 600 सालों से अनवरत चली आ रही है. रियासतकाल से इन सभी रस्मों और छत्र भ्रमण की परंपरा को धूमधाम से मनाया जाता है. बस्तर के महाराजा डोली का भव्य स्वागत करते हैं और फिर दशहरा के अंत में माईजी को विदा करते हैं. जिसके साथ ही बस्तर दशहरा समाप्त हो जाता है.यह परंपरा आज भी बस्तर में बखूबी निभाई जाती है.

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बस्तर : देशभर में मनाए जाने वाले दशहरा पर्व से बस्तर का दशहरा अलग है. जहां एक ओर पूरे देश में रावण का पुतला दहन किया जाता है. वहीं बस्तर में विजयदशमी के दिन दशहरा की प्रमुख रस्म भीतर रैनी निभाई जाती है.

रविवार को निभाई गई भीतर रैनी की रस्म : विश्व प्रसिद्ध बस्तर दशहरे में हर साल विजयदशमी के दिन 8 चक्कों के विशालकाय विजय रथ में बस्तर की आराध्यदेवी दंतेश्वरी के छत्र को रथारूढ़ कर शहर भ्रमण करवाया जाता है. इस साल यह रस्म रविवार की रात निभाई गई. इस रस्म को देखने के लिए हजारों की संख्या में भीड़ उमड़ पड़ी. भीतर रैनी रस्म के तहत राजपरिवार सदस्य गद्दी में बैठकर जनता को सुबह से शाम तक दर्शन भी दिए.

बस्तर दशहरा की भीतर रैनी रस्म पूरी (ETV Bharat)

भीतर रैनी रस्म से आशय है कि आज राजा महल के भीतर ही रहेंगे और क्षेत्र की जनता, जो उनसे मिलने आते हैं, उन्हें दर्शन देंगे. इसके अलावा आज के दिन जनता के लिए राजमहल में प्रवेश करने की अनुमति रहती है. सुबह से ही राजा गद्दी में बैठे रहते हैं, जब तक जनता का आना समाप्त नहीं होता है. जनता आती है, दर्शन करके नजर उतारती है और कुछ पैसे नजराने के तौर पर थाली में छोड़ती है, जिसे अंत मे गरीबों में बांट दिया जाता है. : कमलचंद भंजदेव, सदस्य, बस्तर राजपरिवार

बेहद दिलचस्प है माईजी के छत्र भ्रमण का इतिहास : जानकर व वरिष्ठ पत्रकार अविनाश प्रसाद ने बताया, बस्तर का दशहरा देश दुनिया से अलग है. विजयदशमी के दिन में बस्तर में 8 चक्कों के विशालकाय रथ में आराध्यदेवी दंतेश्वरी के छत्र को सवार करके भ्रमण करवाया जाता है. इस रथ को किलेपाल परघना के माड़िया जनजाति के लोग खींचते हैं और देर रात इसे चुराकर 3 किलोमीटर दूर कुम्हडाकोट में ले जाते हैं. इस चोरी के पीछे माड़िया जनजाति की मंशा रहती है कि महाराजा उनके साथ नए फसल का भोज ग्रहण करें.

राजशाही युग में राजा से असंतुष्ट लोगों ने रथ चुराकर अपने गांव में एक जगह छिपा दिया था. जिसके लिए राजा को कुम्हडाकोट आना पड़ा और ग्रामीणों को मान मनौवल कर उनके साथ भोज किया. जिसके बाद राजा द्वारा रथ को शाही अंदाज में वापस जगदलपुर के दंतेश्वरी मंदिर लाया गया. : अविनाश प्रसाद, जानकर व वरिष्ठ पत्रकार

600 सालों से चली आ रही यह परंपरा : बस्तर के राजा पुरषोत्तम देव द्वारा तिरुपति से रथपति की उपाधि ग्रहण करने के बाद बस्तर में दशहरे के अवसर पर रथ परिक्रमा की प्रथा आरम्भ की गई थी, जो कि आज तक 600 सालों से अनवरत चली आ रही है. रियासतकाल से इन सभी रस्मों और छत्र भ्रमण की परंपरा को धूमधाम से मनाया जाता है. बस्तर के महाराजा डोली का भव्य स्वागत करते हैं और फिर दशहरा के अंत में माईजी को विदा करते हैं. जिसके साथ ही बस्तर दशहरा समाप्त हो जाता है.यह परंपरा आज भी बस्तर में बखूबी निभाई जाती है.

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Last Updated : Oct 15, 2024, 7:15 AM IST
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