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भारत में मुफ्तखोरी की राजनीति, जो दे रहा गंभीर संकट को न्यौता! - FREEBIES COMPETITION IN POLITICS

भारतीय राजनीति में जनता को लालच देकर उनका समर्थन हासिल करने की प्रवृत्ति बढ़ रही है. दो वरिष्ठ विशेषज्ञों ने इसे विस्तार से समझाया है.

प्रतीकात्मक तस्वीर
प्रतीकात्मक तस्वीर (AFP)
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By ETV Bharat Hindi Team

Published : Feb 13, 2025, 8:49 PM IST

भारत की राजनीति में फ्रीबीज यानी मुफ्त की रेवड़ियों पर चिंता जायज है. तमाम राजनीतिक दल मुफ्तखोरी की होड़ में लगे हुए हैं. ऐसे में जनता को लालच देकर उनका समर्थन हासिल करने की प्रवृत्ति बढ़ रही है. मुफ्तखोरी वाली प्रवृति की शुरुआत दक्षिणी राज्यों आंध्र प्रदेश और तमिलनाडु में गति पकड़ी, जहां लगातार सरकारें लोकलुभावन योजनाओं में लिप्त नजर आईं. हालांकि, अब ऐसी राजनीतिक प्रवृति की होड़ से कोई भी राज्य अछूता नहीं रह गया है.

महाराष्ट्र के 2024 के विधानसभा चुनावों से लेकर 2025 के दिल्ली चुनावों और यहां तक कि 2024 के आम चुनावों तक, सभी राजनीतिक दलों ने अक्सर दीर्घकालिक आर्थिक स्थिरता की कीमत पर, असाधारण वादे किए हैं.

मुफ्त उपहार कल्चर का उदय और प्रसार
नकद अनुदान और मुफ्त बिजली से लेकर घरेलू उपकरण और बेरोजगारी भत्ते तक, जनता को मुफ्त में गिफ्ट देने की प्रथा एक प्रमुख चुनावी रणनीति बन गई है. महाराष्ट्र के 2024 के चुनावों में, विभिन्न दलों ने मुफ्त राशन योजना, कर्ज माफी, सब्सिडी वाले गैस सिलेंडर और यहां तक कि जनता के खाते में सीधे नकद ट्रांसफर का वादा किया गया. जिससे प्रतिस्पर्धी लोकलुभावनवाद की मिसाल कायम हुई. 2025 के दिल्ली चुनावों में भी इसी तरह की प्रवृत्ति देखी गई है, जिसमें प्रमुख दलों ने मुफ्त सार्वजनिक परिवहन और आवश्यक वस्तुओं पर बढ़ी हुई सब्सिडी सहित विस्तारित कल्याणकारी योजनाओं की घोषणा की है.

2024 के आम चुनावों में भी यह मुफ्त में रेवड़ी बांटने वाली प्रवृत्ति देखने को मिली, जिसमें राष्ट्रीय और क्षेत्रीय दोनों ही दलों ने बड़े पैमाने पर जनता से वादे किए. कल्याणकारी उपाय, सामाजिक समानता के लिए जरूरी होते हुए भी, अक्सर वास्तविक नीतिगत उपायों और चुनाव-चालित तुष्टिकरण की रणनीति के बीच की रेखाएं धुंधली कर देते हैं.

प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने तीन साल पहले 'रेवड़ी संस्कृति' की कड़ी आलोचना की थी. एक ऐसा शब्द जिसका इस्तेमाल मतदाताओं को लुभाने के लिए राजनीतिक दलों द्वारा अत्यधिक दान देने के लिए किया जाता है. हालांकि, एक साल के भीतर ही भाजपा ने खुद ही मुफ्तखोरी की राजनीति शुरू कर दी, खास तौर पर उत्तर प्रदेश और दूसरे राज्यों के चुनावों के दौरान, सब्सिडी और सीधे नकद लाभ की पेशकश की. यह विरोधाभास एक बुनियादी मुद्दे को उजागर करता है. जबकि पार्टियां बेतहाशा लोकलुभावनवाद के आर्थिक खतरों को स्वीकार तो करती हैं लेकिन चुनावी मजबूरियां उन्हें इसी तरह की रणनीति अपनाने के लिए मजबूर भी करती हैं.

आर्थिक परिणाम: कर्ज और अस्थिर व्यय
पंजाब, आंध्र प्रदेश, तमिलनाडु और पश्चिम बंगाल जैसे राज्य जो बहुत ज्यादा मुफ्त चीज़ें देने के लिए जाने जाते हैं, वे बढ़ते राजकोषीय घाटे से जूझ रहे हैं. पिछले दशक में राजकोषीय घाटे के रुझानों के अध्ययन से पता चलता है कि सत्ता में चाहे कोई भी राजनीतिक दल हो, वित्तीय बोझ लगातार बढ़ता जा रहा है. नीति आयोग द्वारा राजकोषीय स्वास्थ्य सूचकांक (FHI) पहल के अनुसार, जो राज्य ज़्यादा मुफ्त चीजें वितरित करते हैं, उनके राजकोषीय मापदंड कमजोर होते हैं, जो एक अस्थिर आर्थिक मॉडल का संकेत देते हैं. गैर-परिसंपत्ति-निर्माण व्यय को निधि देने के लिए अत्यधिक उधार पर निर्भरता वित्तीय अस्थिरता को बढ़ाती है, जिससे राज्य ऋण के जाल में और भी ज्यादा फंस जाते हैं.

तालिका: नीति आयोग एफएचआई सूचकांक में आकांक्षी श्रेणी के राज्य

जीएसडीपी के प्रतिशत के रूप में राजकोषीय घाटा (2024-25)राजकोषीय स्वास्थ्य सूचकांक (एफएचआई) स्कोर
पंजाब3.810.7
आंध्र प्रदेश4.1920.9
केरल3.425.4
पश्चिम बंगाल3.621.8
हरियाणा2.827.4
बिहार327.8
राजस्थान3.928.6
तमिलनाडु3.429.2

स्रोत: नीति आयोग एफएचआई रिपोर्ट

जबकि राजनीतिक नेता अक्सर जनता के साथ अपनी बातचीत से प्राप्त उपायों के रूप में मुफ्त रेवड़ियों को उचित ठहराते हैं. वे शायद ही कभी इंपेरिकल स्टडीज या आर्थिक व्यवहार्यता आकलन द्वारा समर्थित होते हैं. इसके बजाय, वे दीर्घकालिक सामाजिक-आर्थिक लाभों के बजाय अल्पकालिक मतदाता तुष्टिकरण रणनीति के रूप में कार्य करते हैं.स्ट्रक्चर पॉलिसी इवोल्यूशन की अनुपस्थिति का मतलब है कि इनमें से कई योजनाएं लोगों की आजीविका में स्थायी सुधार प्रदान करने में विफल रहती हैं.

मुफ्त उपहारों के वितरण से अक्सर अनपेक्षित आर्थिक परिणाम सामने आते हैं. एक प्रमुख चिंता बाजार की गतिशीलता का विरूपण (Distortion of market dynamics) है, जब सामान और सेवाएं मुफ्त में प्रदान की जाती हैं, तो प्राकृतिक आपूर्ति-मांग संतुलन बाधित होता है, जिससे निजी क्षेत्र की भागीदारी और निवेश कमजोर होता है. स्वास्थ्य सेवा, शिक्षा और बिजली आपूर्ति जैसे क्षेत्र ठहराव का सामना करते हैं क्योंकि राज्य द्वारा संचालित हैंडआउट्स प्रतिस्पर्धा और नवाचार को कम करते हैं.

इसके अलावा, राज्य द्वारा प्रदान किए जाने वाले लाभों पर लंबे समय तक निर्भरता कार्यबल की उत्पादकता को कम कर सकती है, जिससे श्रम बल की भागीदारी और आत्मनिर्भरता हतोत्साहित होती है. जबकि मुफ्त उपहार अक्सर सामाजिक असमानता को दूर करने के लिए पेश किए जाते हैं, वे कभी-कभी इसे बढ़ा भी सकते हैं. इन लाभों तक असमान पहुंच, चाहे राजनीतिक पक्षपात या अकुशल वितरण प्रणाली के कारण हो, समाज में और अधिक विभाजन पैदा कर सकती है.

इसके अलावा, राज्य सहायता पर अत्यधिक निर्भरता कल्याणकारी मानसिकता को बढ़ावा देती है, जो दीर्घकालिक विकास पर अल्पकालिक लाभ को प्राथमिकता देती है. यह बदले में राजनीतिक और सामाजिक ध्रुवीकरण में योगदान देता है, जहां नीति-निर्माण वास्तविक सामाजिक-आर्थिक उत्थान की तुलना में चुनावी लाभ के बारे में अधिक हो जाता है.

बाध्यकारी कोड ऑफ कंडक्ट की जरूरत
आर्थिक और सामाजिक अध्ययन केंद्र में राजकोषीय संघवाद पर हाल ही में दिए गए व्याख्यान में, पूर्व RBI गवर्नर डी. सुब्बाराव ने प्रतिस्पर्धी मुफ्तखोरी संस्कृति के दुष्चक्र को नियंत्रित करने के लिए आचार संहिता का सुझाव दिया. यह देखते हुए कि कोई भी पार्टी मुफ्तखोरी की राजनीति के प्रलोभन से अछूती नहीं है, राजकोषीय उत्तरदायित्व और बजट प्रबंधन (FRBM) अधिनियम के समान एक बाध्यकारी ढांचा पेश करना अनिवार्य है. एक मात्र सुझावात्मक या नैतिक संहिता अप्रभावी होगी, क्योंकि कोई भी पार्टी स्वेच्छा से असाधारण वादों की घोषणा करने से खुद को नहीं रोकती है. एक कानूनी रूप से लागू आचार संहिता यह सुनिश्चित कर सकती है कि चुनावी वादे वित्तीय रूप से व्यवहार्य और आर्थिक रूप से टिकाऊ बने रहें.

मुफ्तखोरी से सशक्तिकरण तक
चीनी दार्शनिक लाओ त्जु की सदियों पुरानी कहावत, "किसी व्यक्ति को एक मछली दो, और वह एक दिन के लिए खा सकता है. उसे मछली पकड़ना सिखाओ, और वह जीवन भर खा सकता है," इस संदर्भ में विशेष रूप से प्रासंगिक है. अस्थायी दान के बजाय, नीति निर्माताओं को कौशल विकास, रोजगार सृजन और संरचनात्मक सुधारों पर ध्यान केंद्रित करना चाहिए जो लंबे समय में नागरिकों को सशक्त बनाते हैं। मुफ़्त उपहारों से चुनावी फायदा मिल सकता है, लेकिन इनकी भारी आर्थिक कीमत चुकानी पड़ती है, जिसे भारत वहन नहीं कर सकता. देश के वित्तीय भविष्य को सुरक्षित करने के लिए, लोकलुभावनवाद की राजनीति पर पुनर्विचार करने और टिकाऊ कल्याणकारी नीतियों की दिशा में काम करने का समय आ गया है.

इस लेख के लेखक आर्थिक और सामाजिक अध्ययन केंद्र के वरिष्ठ अनुसंधान फेलो देवेंद्र पूला और आर्थिक और सामाजिक अध्ययन केंद्र (सीईएसएस) के सहायक प्रोफेसर जाधव चक्रधर हैं.

भारत की राजनीति में फ्रीबीज यानी मुफ्त की रेवड़ियों पर चिंता जायज है. तमाम राजनीतिक दल मुफ्तखोरी की होड़ में लगे हुए हैं. ऐसे में जनता को लालच देकर उनका समर्थन हासिल करने की प्रवृत्ति बढ़ रही है. मुफ्तखोरी वाली प्रवृति की शुरुआत दक्षिणी राज्यों आंध्र प्रदेश और तमिलनाडु में गति पकड़ी, जहां लगातार सरकारें लोकलुभावन योजनाओं में लिप्त नजर आईं. हालांकि, अब ऐसी राजनीतिक प्रवृति की होड़ से कोई भी राज्य अछूता नहीं रह गया है.

महाराष्ट्र के 2024 के विधानसभा चुनावों से लेकर 2025 के दिल्ली चुनावों और यहां तक कि 2024 के आम चुनावों तक, सभी राजनीतिक दलों ने अक्सर दीर्घकालिक आर्थिक स्थिरता की कीमत पर, असाधारण वादे किए हैं.

मुफ्त उपहार कल्चर का उदय और प्रसार
नकद अनुदान और मुफ्त बिजली से लेकर घरेलू उपकरण और बेरोजगारी भत्ते तक, जनता को मुफ्त में गिफ्ट देने की प्रथा एक प्रमुख चुनावी रणनीति बन गई है. महाराष्ट्र के 2024 के चुनावों में, विभिन्न दलों ने मुफ्त राशन योजना, कर्ज माफी, सब्सिडी वाले गैस सिलेंडर और यहां तक कि जनता के खाते में सीधे नकद ट्रांसफर का वादा किया गया. जिससे प्रतिस्पर्धी लोकलुभावनवाद की मिसाल कायम हुई. 2025 के दिल्ली चुनावों में भी इसी तरह की प्रवृत्ति देखी गई है, जिसमें प्रमुख दलों ने मुफ्त सार्वजनिक परिवहन और आवश्यक वस्तुओं पर बढ़ी हुई सब्सिडी सहित विस्तारित कल्याणकारी योजनाओं की घोषणा की है.

2024 के आम चुनावों में भी यह मुफ्त में रेवड़ी बांटने वाली प्रवृत्ति देखने को मिली, जिसमें राष्ट्रीय और क्षेत्रीय दोनों ही दलों ने बड़े पैमाने पर जनता से वादे किए. कल्याणकारी उपाय, सामाजिक समानता के लिए जरूरी होते हुए भी, अक्सर वास्तविक नीतिगत उपायों और चुनाव-चालित तुष्टिकरण की रणनीति के बीच की रेखाएं धुंधली कर देते हैं.

प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने तीन साल पहले 'रेवड़ी संस्कृति' की कड़ी आलोचना की थी. एक ऐसा शब्द जिसका इस्तेमाल मतदाताओं को लुभाने के लिए राजनीतिक दलों द्वारा अत्यधिक दान देने के लिए किया जाता है. हालांकि, एक साल के भीतर ही भाजपा ने खुद ही मुफ्तखोरी की राजनीति शुरू कर दी, खास तौर पर उत्तर प्रदेश और दूसरे राज्यों के चुनावों के दौरान, सब्सिडी और सीधे नकद लाभ की पेशकश की. यह विरोधाभास एक बुनियादी मुद्दे को उजागर करता है. जबकि पार्टियां बेतहाशा लोकलुभावनवाद के आर्थिक खतरों को स्वीकार तो करती हैं लेकिन चुनावी मजबूरियां उन्हें इसी तरह की रणनीति अपनाने के लिए मजबूर भी करती हैं.

आर्थिक परिणाम: कर्ज और अस्थिर व्यय
पंजाब, आंध्र प्रदेश, तमिलनाडु और पश्चिम बंगाल जैसे राज्य जो बहुत ज्यादा मुफ्त चीज़ें देने के लिए जाने जाते हैं, वे बढ़ते राजकोषीय घाटे से जूझ रहे हैं. पिछले दशक में राजकोषीय घाटे के रुझानों के अध्ययन से पता चलता है कि सत्ता में चाहे कोई भी राजनीतिक दल हो, वित्तीय बोझ लगातार बढ़ता जा रहा है. नीति आयोग द्वारा राजकोषीय स्वास्थ्य सूचकांक (FHI) पहल के अनुसार, जो राज्य ज़्यादा मुफ्त चीजें वितरित करते हैं, उनके राजकोषीय मापदंड कमजोर होते हैं, जो एक अस्थिर आर्थिक मॉडल का संकेत देते हैं. गैर-परिसंपत्ति-निर्माण व्यय को निधि देने के लिए अत्यधिक उधार पर निर्भरता वित्तीय अस्थिरता को बढ़ाती है, जिससे राज्य ऋण के जाल में और भी ज्यादा फंस जाते हैं.

तालिका: नीति आयोग एफएचआई सूचकांक में आकांक्षी श्रेणी के राज्य

जीएसडीपी के प्रतिशत के रूप में राजकोषीय घाटा (2024-25)राजकोषीय स्वास्थ्य सूचकांक (एफएचआई) स्कोर
पंजाब3.810.7
आंध्र प्रदेश4.1920.9
केरल3.425.4
पश्चिम बंगाल3.621.8
हरियाणा2.827.4
बिहार327.8
राजस्थान3.928.6
तमिलनाडु3.429.2

स्रोत: नीति आयोग एफएचआई रिपोर्ट

जबकि राजनीतिक नेता अक्सर जनता के साथ अपनी बातचीत से प्राप्त उपायों के रूप में मुफ्त रेवड़ियों को उचित ठहराते हैं. वे शायद ही कभी इंपेरिकल स्टडीज या आर्थिक व्यवहार्यता आकलन द्वारा समर्थित होते हैं. इसके बजाय, वे दीर्घकालिक सामाजिक-आर्थिक लाभों के बजाय अल्पकालिक मतदाता तुष्टिकरण रणनीति के रूप में कार्य करते हैं.स्ट्रक्चर पॉलिसी इवोल्यूशन की अनुपस्थिति का मतलब है कि इनमें से कई योजनाएं लोगों की आजीविका में स्थायी सुधार प्रदान करने में विफल रहती हैं.

मुफ्त उपहारों के वितरण से अक्सर अनपेक्षित आर्थिक परिणाम सामने आते हैं. एक प्रमुख चिंता बाजार की गतिशीलता का विरूपण (Distortion of market dynamics) है, जब सामान और सेवाएं मुफ्त में प्रदान की जाती हैं, तो प्राकृतिक आपूर्ति-मांग संतुलन बाधित होता है, जिससे निजी क्षेत्र की भागीदारी और निवेश कमजोर होता है. स्वास्थ्य सेवा, शिक्षा और बिजली आपूर्ति जैसे क्षेत्र ठहराव का सामना करते हैं क्योंकि राज्य द्वारा संचालित हैंडआउट्स प्रतिस्पर्धा और नवाचार को कम करते हैं.

इसके अलावा, राज्य द्वारा प्रदान किए जाने वाले लाभों पर लंबे समय तक निर्भरता कार्यबल की उत्पादकता को कम कर सकती है, जिससे श्रम बल की भागीदारी और आत्मनिर्भरता हतोत्साहित होती है. जबकि मुफ्त उपहार अक्सर सामाजिक असमानता को दूर करने के लिए पेश किए जाते हैं, वे कभी-कभी इसे बढ़ा भी सकते हैं. इन लाभों तक असमान पहुंच, चाहे राजनीतिक पक्षपात या अकुशल वितरण प्रणाली के कारण हो, समाज में और अधिक विभाजन पैदा कर सकती है.

इसके अलावा, राज्य सहायता पर अत्यधिक निर्भरता कल्याणकारी मानसिकता को बढ़ावा देती है, जो दीर्घकालिक विकास पर अल्पकालिक लाभ को प्राथमिकता देती है. यह बदले में राजनीतिक और सामाजिक ध्रुवीकरण में योगदान देता है, जहां नीति-निर्माण वास्तविक सामाजिक-आर्थिक उत्थान की तुलना में चुनावी लाभ के बारे में अधिक हो जाता है.

बाध्यकारी कोड ऑफ कंडक्ट की जरूरत
आर्थिक और सामाजिक अध्ययन केंद्र में राजकोषीय संघवाद पर हाल ही में दिए गए व्याख्यान में, पूर्व RBI गवर्नर डी. सुब्बाराव ने प्रतिस्पर्धी मुफ्तखोरी संस्कृति के दुष्चक्र को नियंत्रित करने के लिए आचार संहिता का सुझाव दिया. यह देखते हुए कि कोई भी पार्टी मुफ्तखोरी की राजनीति के प्रलोभन से अछूती नहीं है, राजकोषीय उत्तरदायित्व और बजट प्रबंधन (FRBM) अधिनियम के समान एक बाध्यकारी ढांचा पेश करना अनिवार्य है. एक मात्र सुझावात्मक या नैतिक संहिता अप्रभावी होगी, क्योंकि कोई भी पार्टी स्वेच्छा से असाधारण वादों की घोषणा करने से खुद को नहीं रोकती है. एक कानूनी रूप से लागू आचार संहिता यह सुनिश्चित कर सकती है कि चुनावी वादे वित्तीय रूप से व्यवहार्य और आर्थिक रूप से टिकाऊ बने रहें.

मुफ्तखोरी से सशक्तिकरण तक
चीनी दार्शनिक लाओ त्जु की सदियों पुरानी कहावत, "किसी व्यक्ति को एक मछली दो, और वह एक दिन के लिए खा सकता है. उसे मछली पकड़ना सिखाओ, और वह जीवन भर खा सकता है," इस संदर्भ में विशेष रूप से प्रासंगिक है. अस्थायी दान के बजाय, नीति निर्माताओं को कौशल विकास, रोजगार सृजन और संरचनात्मक सुधारों पर ध्यान केंद्रित करना चाहिए जो लंबे समय में नागरिकों को सशक्त बनाते हैं। मुफ़्त उपहारों से चुनावी फायदा मिल सकता है, लेकिन इनकी भारी आर्थिक कीमत चुकानी पड़ती है, जिसे भारत वहन नहीं कर सकता. देश के वित्तीय भविष्य को सुरक्षित करने के लिए, लोकलुभावनवाद की राजनीति पर पुनर्विचार करने और टिकाऊ कल्याणकारी नीतियों की दिशा में काम करने का समय आ गया है.

इस लेख के लेखक आर्थिक और सामाजिक अध्ययन केंद्र के वरिष्ठ अनुसंधान फेलो देवेंद्र पूला और आर्थिक और सामाजिक अध्ययन केंद्र (सीईएसएस) के सहायक प्रोफेसर जाधव चक्रधर हैं.

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