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तिब्बत पर बढ़ रहा है अमेरिका का फोकस, डेमोक्रेट की नीति से चीन पर क्या होगा असर - US focus on Tibet - US FOCUS ON TIBET

Renewal of US focus on Tibet: यूएस कांग्रेस में रिजॉल्व तिब्बत एक्ट पारित करने के बाद अमेरिकी सांसदों के प्रतिनिधिमंडल की धर्मशाला में तिब्बती धर्मगुरु दलाई लामा से मुलाकात से यह बात साफ है कि तिब्बती पर बाइडन प्रशासन का फोकस बढ़ रहा है. हालांकि, चीन और अमेरिका दोनों इस मुद्दे को जीवित रखना चाहते हैं. पूर्व राजदूत जीतेंद्र कुमार त्रिपाठी का लेख...

US Congressional delegation met Dalai Lama
धर्मशाला में दलाई लामा से मिला अमेरिकी सांसदों के प्रतिनिधिमंडल (ANI)
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By J K Tripathi

Published : Jun 27, 2024, 6:11 AM IST

हैदराबाद: अमेरिकी कांग्रेस (संसद) का सात सदस्यीय प्रतिनिधिमंडल हाल ही में धर्मशाला में 14वें दलाई लामा से मिलने के लिए भारत आया था, जिसका नेतृत्व संसद की विदेश मामलों की समिति के अध्यक्ष और रिपब्लिकन सांसद माइकल मैककॉल कर रहे थे. सदस्यों में कांग्रेस की पूर्व स्पीकर नैन्सी पालोसी भी शामिल थीं.

19 जून को अमेरिकी प्रतिनिधिमंडल ने दलाई लामा से मिलने से पहले निर्वासित तिब्बती सरकार के सदस्यों से मुलाकात की. 12 जून को अमेरिकी संसद के दोनों सदनों द्वारा तिब्बत विवाद के समाधान को बढ़ावा देने वाला अधिनियम पारित किया गया था, जिसे तिब्बत समाधान अधिनियम भी कहा जाता है. इस अधिनियम को लेकर चीन की नाराजगी भी सामने आई. जिसमें स्पष्ट रूप से कहा गया है कि अमेरिका तिब्बत पर चीन के अवैध कब्जे के खिलाफ वहां के लोगों की लड़ाई में उनके साथ खड़ा है.

रिजॉल्व तिब्बत एक्ट तिब्बती लोगों की सामाजिक-सांस्कृतिक पहचान को मान्यता देने का प्रयास करता है, विशेष रूप से उनकी 'विशिष्ट ऐतिहासिक, सांस्कृतिक, धार्मिक और भाषाई पहचान' शामिल है. साथ ही यह तिब्बत के बारे में चीनी दुष्प्रचार का मुकाबला करने के लिए धन के उपयोग की इजाजत देता है, जिसमें तिब्बती लोगों और तिब्बती संस्थाओं के साथ दलाई लामा की संस्थाएं भी शामिल हैं.

अमेरिकी सांसदों के दलाई लामा से मिलने पर चीन की प्रतिक्रिया बहुत तीखी थी. 20 जून को चीनी सरकार के मुखपत्र ग्लोबल टाइम्स ने अपने एक संपादकीय में पेलोसी पर शिज़ांग (तिब्बत) के बारे में गैर-जिम्मेदाराना टिप्पणी करने का आरोप लगाया. संपादकीय में रिजॉल्व तिब्बत एक्ट को बेकार कागज और पूरी तरह आत्म-मनोरंजन का कदम बताया गया. इसके अलावा दलाई लामा को 'अलगाववादी' बताते हुए अखबार ने लिखा कि अमेरिकी राजनीतिज्ञों को लगता है कि दलाई कार्ड अधिक राजनीतिक पूंजी जीत सकता है और चीन के लिए अवरोध पैदा कर सकता है, वास्तव में एक घटिया कार्ड है. चीन यह भी आरोप लगाता है कि दलाई लामा पूरी तरह से धार्मिक व्यक्ति नहीं हैं.

1950 में तिब्बत को अपने कब्जे में लेने के बाद कम्युनिस्ट चीन ने इस क्षेत्र के चीनीकरण की प्रक्रिया शुरू कर दी. चीन ने क्षेत्र में ज्यादा से ज्यादा से हान लोगों को बसाकर इस क्षेत्र की जनसांख्यिकी को बदलने के साथ तिब्बती पहचान को जबरन हान पहचान में मिलाना शुरू कर दिया. यह पूरे यकीन से माना जाता है कि लाखों तिब्बती बच्चों को कम उम्र में ही उनके माता-पिता से अलग कर दिया गया और उन्हें कम्युनिस्ट विचारधारा में ढालने के लिए बोर्डिंग स्कूलों में भेज दिया गया. उन्हें मंदारिन, साम्यवाद सिखाया गया और पारंपरिक तिब्बती संस्कृति से दूर रखा गया. इसका एक उदाहरण छह बालक गधुन घोकी न्यिमा (Gadhun Ghoeky Nyima) था, जिसे 1995 में दलाई लामा ने 11वें पंचेन लामा के रूप में मान्यता दी थी. (तिब्बती परंपरा में, हर दलाई लामा अगले पंचेन लामा को मान्यता देता है, जो दलाई लामा के बाद दूसरे सबसे बड़े आध्यात्मिक व्यक्ति होता है.)

इस मान्यता के दो दिन के भीतर ही चीनी सेना ने बालक का अपहरण कर लिया और आज तक उसका पता नहीं चल पाया है. चीन ने तुरंत सियाइन कैन नोरबू को 11वें पंचेन लामा के रूप में नियुक्त किया, जिसे दलाई लामा ने मान्यता नहीं दी. वर्तमान पंचेन लामा पर चीन पर निर्भर हैं.

चीन की तिब्बत के खनिजों में दिलचस्पी है क्योंकि यह पठार कोयला, तांबा, क्रोमियम, लिथियम, जिंक, सीसा, बोरॉन के विशाल भंडारों पर स्थित है. साथ ही जलविद्युत और खनिज जल का प्रमुख संसाधन है. यही कारण है कि चीन इस क्षेत्र में तेजी से बुनियादी ढांचे का विकास कर रहा है. हालांकि अंधाधुंध खनन और औद्योगीकरण ने स्थानीय आबादी के लिए गंभीर पर्यावरणीय खतरा पैदा कर दिया है. स्थानीय लोग इसका लगातार विरोध कर रहे हैं, लेकिन उन्हें कुछ हासिल होने वाला नहीं है. तिब्बत के विशाल जल संसाधनों के माध्यम से चीन नदी प्रणालियों को नियंत्रित करके अपने पड़ोसियों को डराना चाहता है.

तिब्बत में अमेरिका की दिलचस्पी नई नहीं है, लेकिन कई बार इस पर ध्यान कम होता गया. 1950 से 1971 तक अमेरिका की नीति कम्युनिस्ट चीन को हर संभव तरीके से परेशान करने की थी और तिब्बती मुद्दा इस प्रयास में कारगर हथियार साबित हुआ. हालांकि, सत्तर के दशक में दोनों देशों के बीच दोस्ती बढ़ी और चीनी आधुनिकीकरण के कारण अमेरिका के लिए व्यापार के नए अवसर खुले. इससे तिब्बत का मुद्दा करीब तीस साल तक पीछे चला गया. लेकिन 21वीं सदी में अमेरिका ने 25 साल से भी कम समय में तिब्बत पर तीन प्रस्ताव पारित किए.

पहला प्रस्ताव- तिब्बत नीति अधिनियम, 2002, चीनी सरकार द्वारा तिब्बतियों के साथ किए जा रहे दुर्व्यवहार को दर्शाता है, लेकिन यह मानता है कि तिब्बत चीन के भीतर एक स्वायत्त क्षेत्र है. तीसरा, रिजॉल्व तिब्बत अधिनियम, जिसे हाल ही में अमेरिकी संसद के दोनों सदनों में पारित किया गया है, लेकिन अभी भी राष्ट्रपति की मंजूरी का इंतजार है. इसमें अधिक वास्तविकता है. यह तिब्बत के इतिहास, तिब्बती लोगों और तिब्बती संस्थाओं, जिसमें दलाई लामा की संस्था भी शामिल है, के बारे में चीन के दुष्प्रचार का मुकाबला करने के लिए धन के इस्तेमाल की अनुमति देता है. इसके अलावा चीन से आग्रह करता है कि वह मतभेदों को सुलझाने के लिए 'बिना किसी पूर्व शर्त' के उसके साथ या उनके प्रतिनिधियों के साथ सार्थक सीधी बातचीत करे.

इसमें दो सम्मेलनों- नागरिक और राजनीतिक अधिकारों पर अंतरराष्ट्रीय अनुबंध और आर्थिक, सामाजिक और सांस्कृतिक अधिकारों पर अंतरराष्ट्रीय अनुंबध- के हस्ताक्षरकर्ता के रूप में चीन के कर्तव्य का भी उल्लेख किया गया है कि तिब्बती लोगों की विशिष्ट ऐतिहासिक, सांस्कृतिक, धार्मिक और भाषायी पहचान की रक्षा की जाए.

यहां ध्यान देने वाली बात यह है कि यह अधिनियम डेमोक्रेट्स की नीति के मुख्य मुद्दे यानी मानवाधिकारों की सुरक्षा के अनुरूप है. दलाई लामा को चीन के भारी विरोध के बावजूद 1989 में नोबेल शांति पुरस्कार से सम्मानित किया गया था. वह इस साल अगस्त में सर्जरी के लिए अमेरिका का दौरा करेंगे, जहां उनकी अमेरिकी प्रशासन के वरिष्ठ अधिकारियों और संभवतः राष्ट्रपति जो बाइडन से भी मुलाकात होने की संभावना है.

भारत दौरे पर आए अमेकिरी सांसदों के प्रतिनिधिमंडल ने प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी से भी मुलाकात की और द्विपक्षीय संबंधों के महत्व पर प्रकाश डाला. जहां तक भारत का सवाल है, हमने 1950 से ही तिब्बत को चीन का हिस्सा माना है, लेकिन इस क्षेत्र के लिए अधिक स्वायत्तता का समर्थन किया है. दूसरी ओर, चीन हमेशा से अरुणाचल प्रदेश को अपना क्षेत्र मानता रहा है, यहां तक कि वह हमेशा इस क्षेत्र में भारतीय नेतृत्व के किसी भी दौरे का विरोध करता है और राज्य के निवासियों के पासपोर्ट पर चीनी वीजा देने से भी इनकार करता है.

वर्तमान परिस्थिति में जहां चीन दक्षिण चीन सागर विवाद और यूक्रेन तथा इजराइल को लेकर पश्चिम के साथ तनाव में उलझा हुआ है, वह तिब्बत में कोई कठोर कदम नहीं उठाएगा, लेकिन वह समय-समय पर इस मुद्दे को जीवित रखेगा और अमेरिका भी ऐसा ही करेगा, कम से कम जब तक डेमोक्रेट की सरकार है.

यह भी पढ़ें- दुनिया के अन्य समूहों के सामने कितना ताकतवर G-7? भारत के लिए कितना फायदेमंद

हैदराबाद: अमेरिकी कांग्रेस (संसद) का सात सदस्यीय प्रतिनिधिमंडल हाल ही में धर्मशाला में 14वें दलाई लामा से मिलने के लिए भारत आया था, जिसका नेतृत्व संसद की विदेश मामलों की समिति के अध्यक्ष और रिपब्लिकन सांसद माइकल मैककॉल कर रहे थे. सदस्यों में कांग्रेस की पूर्व स्पीकर नैन्सी पालोसी भी शामिल थीं.

19 जून को अमेरिकी प्रतिनिधिमंडल ने दलाई लामा से मिलने से पहले निर्वासित तिब्बती सरकार के सदस्यों से मुलाकात की. 12 जून को अमेरिकी संसद के दोनों सदनों द्वारा तिब्बत विवाद के समाधान को बढ़ावा देने वाला अधिनियम पारित किया गया था, जिसे तिब्बत समाधान अधिनियम भी कहा जाता है. इस अधिनियम को लेकर चीन की नाराजगी भी सामने आई. जिसमें स्पष्ट रूप से कहा गया है कि अमेरिका तिब्बत पर चीन के अवैध कब्जे के खिलाफ वहां के लोगों की लड़ाई में उनके साथ खड़ा है.

रिजॉल्व तिब्बत एक्ट तिब्बती लोगों की सामाजिक-सांस्कृतिक पहचान को मान्यता देने का प्रयास करता है, विशेष रूप से उनकी 'विशिष्ट ऐतिहासिक, सांस्कृतिक, धार्मिक और भाषाई पहचान' शामिल है. साथ ही यह तिब्बत के बारे में चीनी दुष्प्रचार का मुकाबला करने के लिए धन के उपयोग की इजाजत देता है, जिसमें तिब्बती लोगों और तिब्बती संस्थाओं के साथ दलाई लामा की संस्थाएं भी शामिल हैं.

अमेरिकी सांसदों के दलाई लामा से मिलने पर चीन की प्रतिक्रिया बहुत तीखी थी. 20 जून को चीनी सरकार के मुखपत्र ग्लोबल टाइम्स ने अपने एक संपादकीय में पेलोसी पर शिज़ांग (तिब्बत) के बारे में गैर-जिम्मेदाराना टिप्पणी करने का आरोप लगाया. संपादकीय में रिजॉल्व तिब्बत एक्ट को बेकार कागज और पूरी तरह आत्म-मनोरंजन का कदम बताया गया. इसके अलावा दलाई लामा को 'अलगाववादी' बताते हुए अखबार ने लिखा कि अमेरिकी राजनीतिज्ञों को लगता है कि दलाई कार्ड अधिक राजनीतिक पूंजी जीत सकता है और चीन के लिए अवरोध पैदा कर सकता है, वास्तव में एक घटिया कार्ड है. चीन यह भी आरोप लगाता है कि दलाई लामा पूरी तरह से धार्मिक व्यक्ति नहीं हैं.

1950 में तिब्बत को अपने कब्जे में लेने के बाद कम्युनिस्ट चीन ने इस क्षेत्र के चीनीकरण की प्रक्रिया शुरू कर दी. चीन ने क्षेत्र में ज्यादा से ज्यादा से हान लोगों को बसाकर इस क्षेत्र की जनसांख्यिकी को बदलने के साथ तिब्बती पहचान को जबरन हान पहचान में मिलाना शुरू कर दिया. यह पूरे यकीन से माना जाता है कि लाखों तिब्बती बच्चों को कम उम्र में ही उनके माता-पिता से अलग कर दिया गया और उन्हें कम्युनिस्ट विचारधारा में ढालने के लिए बोर्डिंग स्कूलों में भेज दिया गया. उन्हें मंदारिन, साम्यवाद सिखाया गया और पारंपरिक तिब्बती संस्कृति से दूर रखा गया. इसका एक उदाहरण छह बालक गधुन घोकी न्यिमा (Gadhun Ghoeky Nyima) था, जिसे 1995 में दलाई लामा ने 11वें पंचेन लामा के रूप में मान्यता दी थी. (तिब्बती परंपरा में, हर दलाई लामा अगले पंचेन लामा को मान्यता देता है, जो दलाई लामा के बाद दूसरे सबसे बड़े आध्यात्मिक व्यक्ति होता है.)

इस मान्यता के दो दिन के भीतर ही चीनी सेना ने बालक का अपहरण कर लिया और आज तक उसका पता नहीं चल पाया है. चीन ने तुरंत सियाइन कैन नोरबू को 11वें पंचेन लामा के रूप में नियुक्त किया, जिसे दलाई लामा ने मान्यता नहीं दी. वर्तमान पंचेन लामा पर चीन पर निर्भर हैं.

चीन की तिब्बत के खनिजों में दिलचस्पी है क्योंकि यह पठार कोयला, तांबा, क्रोमियम, लिथियम, जिंक, सीसा, बोरॉन के विशाल भंडारों पर स्थित है. साथ ही जलविद्युत और खनिज जल का प्रमुख संसाधन है. यही कारण है कि चीन इस क्षेत्र में तेजी से बुनियादी ढांचे का विकास कर रहा है. हालांकि अंधाधुंध खनन और औद्योगीकरण ने स्थानीय आबादी के लिए गंभीर पर्यावरणीय खतरा पैदा कर दिया है. स्थानीय लोग इसका लगातार विरोध कर रहे हैं, लेकिन उन्हें कुछ हासिल होने वाला नहीं है. तिब्बत के विशाल जल संसाधनों के माध्यम से चीन नदी प्रणालियों को नियंत्रित करके अपने पड़ोसियों को डराना चाहता है.

तिब्बत में अमेरिका की दिलचस्पी नई नहीं है, लेकिन कई बार इस पर ध्यान कम होता गया. 1950 से 1971 तक अमेरिका की नीति कम्युनिस्ट चीन को हर संभव तरीके से परेशान करने की थी और तिब्बती मुद्दा इस प्रयास में कारगर हथियार साबित हुआ. हालांकि, सत्तर के दशक में दोनों देशों के बीच दोस्ती बढ़ी और चीनी आधुनिकीकरण के कारण अमेरिका के लिए व्यापार के नए अवसर खुले. इससे तिब्बत का मुद्दा करीब तीस साल तक पीछे चला गया. लेकिन 21वीं सदी में अमेरिका ने 25 साल से भी कम समय में तिब्बत पर तीन प्रस्ताव पारित किए.

पहला प्रस्ताव- तिब्बत नीति अधिनियम, 2002, चीनी सरकार द्वारा तिब्बतियों के साथ किए जा रहे दुर्व्यवहार को दर्शाता है, लेकिन यह मानता है कि तिब्बत चीन के भीतर एक स्वायत्त क्षेत्र है. तीसरा, रिजॉल्व तिब्बत अधिनियम, जिसे हाल ही में अमेरिकी संसद के दोनों सदनों में पारित किया गया है, लेकिन अभी भी राष्ट्रपति की मंजूरी का इंतजार है. इसमें अधिक वास्तविकता है. यह तिब्बत के इतिहास, तिब्बती लोगों और तिब्बती संस्थाओं, जिसमें दलाई लामा की संस्था भी शामिल है, के बारे में चीन के दुष्प्रचार का मुकाबला करने के लिए धन के इस्तेमाल की अनुमति देता है. इसके अलावा चीन से आग्रह करता है कि वह मतभेदों को सुलझाने के लिए 'बिना किसी पूर्व शर्त' के उसके साथ या उनके प्रतिनिधियों के साथ सार्थक सीधी बातचीत करे.

इसमें दो सम्मेलनों- नागरिक और राजनीतिक अधिकारों पर अंतरराष्ट्रीय अनुबंध और आर्थिक, सामाजिक और सांस्कृतिक अधिकारों पर अंतरराष्ट्रीय अनुंबध- के हस्ताक्षरकर्ता के रूप में चीन के कर्तव्य का भी उल्लेख किया गया है कि तिब्बती लोगों की विशिष्ट ऐतिहासिक, सांस्कृतिक, धार्मिक और भाषायी पहचान की रक्षा की जाए.

यहां ध्यान देने वाली बात यह है कि यह अधिनियम डेमोक्रेट्स की नीति के मुख्य मुद्दे यानी मानवाधिकारों की सुरक्षा के अनुरूप है. दलाई लामा को चीन के भारी विरोध के बावजूद 1989 में नोबेल शांति पुरस्कार से सम्मानित किया गया था. वह इस साल अगस्त में सर्जरी के लिए अमेरिका का दौरा करेंगे, जहां उनकी अमेरिकी प्रशासन के वरिष्ठ अधिकारियों और संभवतः राष्ट्रपति जो बाइडन से भी मुलाकात होने की संभावना है.

भारत दौरे पर आए अमेकिरी सांसदों के प्रतिनिधिमंडल ने प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी से भी मुलाकात की और द्विपक्षीय संबंधों के महत्व पर प्रकाश डाला. जहां तक भारत का सवाल है, हमने 1950 से ही तिब्बत को चीन का हिस्सा माना है, लेकिन इस क्षेत्र के लिए अधिक स्वायत्तता का समर्थन किया है. दूसरी ओर, चीन हमेशा से अरुणाचल प्रदेश को अपना क्षेत्र मानता रहा है, यहां तक कि वह हमेशा इस क्षेत्र में भारतीय नेतृत्व के किसी भी दौरे का विरोध करता है और राज्य के निवासियों के पासपोर्ट पर चीनी वीजा देने से भी इनकार करता है.

वर्तमान परिस्थिति में जहां चीन दक्षिण चीन सागर विवाद और यूक्रेन तथा इजराइल को लेकर पश्चिम के साथ तनाव में उलझा हुआ है, वह तिब्बत में कोई कठोर कदम नहीं उठाएगा, लेकिन वह समय-समय पर इस मुद्दे को जीवित रखेगा और अमेरिका भी ऐसा ही करेगा, कम से कम जब तक डेमोक्रेट की सरकार है.

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