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राज्यसभा सदस्यों का चुनाव, संवैधानिक व्यवस्था और वास्तविकता - rajya sabha election

Electing Rajya Sabha Members : राज्यसभा की 56 सीटों के लिए 27 फरवरी को चुनाव होंगे. 15 राज्यों में ये चुनाव होंगे. राज्यसभा के लिए उम्मीदवारों का चुनाव किस तरह से किया जाता है, क्या जिन उद्देश्यों को लेकर राज्यसभा बनाया गया था, उन उद्देश्यों को वह पूरा कर पा रहा है या फिर कहीं उसकी प्रासंगिकता कम तो नहीं हुई है. पढ़िए राज्यसभा के पूर्व महासचिव विवेक के. अग्निहोत्री का एक आलेख.

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राज्यसभा
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By ETV Bharat Hindi Team

Published : Feb 14, 2024, 6:51 PM IST

Updated : Feb 17, 2024, 2:30 PM IST

नई दिल्ली : राज्यसभा की 56 सीटों के लिए 27 फरवरी को चुनाव होने हैं. राज्यसभा के सदस्यों का कार्यकाल छह साल के लिए निर्धारित होता है. संविधान के अनुच्छेद 83(1) के अनुसार राज्यसभा को भंग नहीं किया जा सकता है. इसके एक तिहाई सदस्य हरेक दो साल पर रिटायर होते रहते हैं. हालांकि, अलग-अलग समय पर राष्ट्रपति शासन लागू होने और राज्यों की विधानसभाओं के भंग होने के कारण इसमें थोड़ा बहुत बदलाव हुआ. इसका प्रभाव यह पड़ा कि छह साल की अवधि में तीन बार से अधिक बार चुनाव होने लगे हैं.

संविधान के अनुच्छेद 80 में लिखा है कि राज्यसभा में 12 सदस्यों को राष्ट्रपति नामित करेंगे और 238 सदस्यों का चुनाव राज्यों और केंद्र शासित प्रदेशों से किया जाएगा. राज्यसभा के कुल सदस्यों की संख्या 250 होती है. इस समय राज्यसभा के सदस्यों की संख्या 245 है. संविधान की सूची चार के अनुसार इस समय 233 सदस्य चुने हुए हैं. प्रत्येक राज्यों को उनकी आबादी के आधार पर राज्यसभा में सीटों का अलॉटमेंट किया गया है. हालांकि, अनुपात सभी राज्यों में बराबर का है.

अनुच्छेद 80 के खंड 4 के अनुसार विधानसभा के चुने गए सदस्य आनुपातिक प्रणाली के अनुसार एकल हस्तांतरणीय वोट के माध्यम से चुनाव में हिस्सा लेंगे. यानि वे इलेक्टोरल का हिस्सा होंगे. इसका मतलब यह हुआ कि किसी भी राजनीतिक दल का विधानसभा में जितना प्रतिनिधित्व है, उसी आनुपातिक प्रतिनिधित्व में उन्हें राज्यसभा में सदस्यों की संख्या चुनने का अधिकार है. राज्य विधानसभा के प्रत्येक सदस्य का वोट सिंगल है, लेकिन वह हस्तांतरणीय होता है.

बैलट पेपर पर चुनाव लड़ने वाले सभी उम्मीदवारों का नाम लिखा होता है. चुनाव में भाग लेने वाले विधायकों को उम्मीदवारों के लिए प्राथमिकता तय करनी होती है. वे उनकी नंबरिंग करते हैं. उन्हें कम से कम एक उम्मीदवार के सामने नंबर-I (उनकी पहली प्राथमिकता) लिखना होता है. यदि एक से अधिक उम्मीदवार मैदान में होते हैं, तब उन्हें दूसरे उम्मीदवारों को लेकर अपनी प्राथमिकता लिखनी होती है. अगर काउंटिंग के पहले राउंड में परिणाम स्पष्ट नहीं होते हैं, तो उनकी दूसरी प्राथमिकताओं पर विचार किया जाता है.

इसी तरह से किसी भी राज्य में एक उम्मीदवार के चयन के लिए कितना वोट चाहिए, इसका भी एक फॉर्मूला होता है. जितनी वैकेंसी है, उससे एक अधिक जितनी संख्या होती है, उस संख्या से कुल विधायकों की संख्या में भाग दिया जाता है. भागफल से एक अधिक जो भी नंबर आएगा, चुनाव जीतने के लिए उतने मत चाहिए.

यूपी का एक उदाहरण समझिए. यूपी में 403 विधानसभा सीट है. अगर 10 सीटों के लिए चुनाव होने हैं. तो इस समय भाजपा के विधायकों की संख्या 252 है. उनके एक उम्मीदवार को राज्यसभा पहुंचने के लिए कितने वोट चाहिए. 403/(10+1) = 36.6 +1= 37.6 यानि 38 वोट चाहिए. भाजपा के सभी उम्मीदवारों को जीत के लिए 38 वोट प्राप्त करने होंगे. इस हिसाब से देखें तो भाजपा के छह उम्मीदवार चुनाव जीत सकते हैं. लेकिन इसके बाद भी भाजपा के पास 24 विधायक बचेंगे. ऐसी स्थिति में उनके विधायक किसी सहयोगी पार्टी के लिए मत कर सकते हैं. यह एक उदाहरण है, इसके जरिए आप इस फॉर्मूले को समझ सकते हैं. वैसे, इस समय आरएलडी और एनडीए के बीच जिस तरह से नजदीकियां बढ़ रहीं हैं, अगर ऐसा हुआ तो यूपी के समीकरण में बड़ा बदलाव हो सकता है.

यूपी में एनडीए के विधायक : 277

भाजपा : 252

अपना दल (एस) : 13

निषाद पार्टी : 06

सुभासपा : 06

यूपी में इंडिया गठबंधन के विधायक : 119

सपा: 108

कांग्रेस : 02

आरएलडी : 09

निर्दलीय व अन्य दल के विधायक: 6

जनसत्ता दल : 2

बसपा : 1

निर्दलीय : 3

भाजपा को 7 सीटें मिल सकती हैं: राज्यसभा का सदस्य बनने के लिए विधायकों का समर्थन लेना होता है. यानी चुनाव में विधायक ही मतदान करते हैं. यूपी विधानसभा की मौजूदा स्थिति को देखते हुए माना जा रहा है कि भाजपा को सात सीटें मिल सकती हैं. दरअसल, राज्यसभा प्रत्याशी को जीत के लिए मौजूदा स्थिति के अनुसार 37 विधायकों का वोट चाहिए. इस हिसाब से भाजपा को सात सीटें मिलना तय माना जा रहा है.

संविधान सभा में बहस के दौरान लोकनाथ मिश्रा ने राज्यसभा को लेकर कहा था कि यह एक एक गंभीर सदन होगा. यहां पर विषयों की समीक्षा होगी. सदन गुणवत्ता के लिए खड़ा होगा. सदस्य विषयों का विवेचन गुणवत्ता के आधार पर करेंगे. एम अनंतशयनम अयंगर ने कहा था कि ऐसे मंच पर चिंतनशील विचारों का प्रदर्शन होगा, वैसे लोग जो हो सकता है पॉपुलर मैंडेट लेकर चुनाव नहीं जीत सकते हैं, लेकिन उनकी प्रतिभा को लेकर किसी को शक नहीं होगा, वे इस सभा के सदस्य होंगे.

ये अलग बात है कि समय के साथ इन संकल्पों में बदलाव हुआ. संविधान रचयिता ने राज्यसभा को लेकर जो सपना देखा था, वह परिकल्पना प्रभावित हुई. अधिवास आवश्यकता को लेकर जन प्रतिनिधित्व अधिनियम में संशोधन किया गया. राज्यसभा चुनाव में किसी भी राज्य का कोई भी व्यक्ति किसी भी राज्य में भाग ले सकता है. क्योंकि अधिवास की शर्तों को हटा दिया गया, इसलिए कोई भी व्यक्ति कहीं से भी उम्मीदवार बन सकता है.

इसलिए राज्यसभा को लेकर जिस विविधता की कल्पना की गई थी, वह चूर-चूर हो गई. आप यह भी कह सकते हैं कि यह बहुत कुछ लोकसभा की तरह दिखने लगा है. जो इसकी मंशा और उद्देश्य थे, वे पूरे नहीं हुए. अब तो राज्यसभा में ऐसे भी सदस्य आने लगे हैं, जिनकी वजह से संसदीय प्रक्रियाओं की महत्ता में कोई इजाफा नहीं होता है. ऐसे में समय है कि इस पर विचार करना चाहिए, आखिर यह सदन कहां से कहां चला आया है.

हालांकि, संसदीय व्यवधानों के लिए सिर्फ राज्यसभा को ही दोषी नहीं ठहरा सकते हैं. सच्ची भारतीय परंपरा में भारतीय संसद में निरंतरता का अद्भुत मिश्रण है -राज्यसभा और परिवर्तन का प्रतिबिंब है- लोकसभा.

अब राज्यसभा की जरूरत है या नहीं, यह बहस तो उतनी ही पुरानी है, जिस समय इसका गठन किया जा रहा था. 18वीं सदी के अंत में, जब अमेरिकी संवैधानिक ढांचा पूरी तरह से तैयार होने की कगार पर था, थॉमस जेफरसन ने जॉर्ज वाशिंगटन के समाने नाश्ते की टेबल पर विरोध प्रकट किया. उन्होंने दो सदनों की आवश्यकता को लेकर सवाल उठाए थे. उस समय जब वाशिंगटन ने जेफरसन से पूछा कि आप कॉफी को प्लेट में क्यों डाल रहे हैं, इस पर जेफरसन ने जबाव दिया- ठंडा होने के लिए डाल रहा हूं. इसके बाद वाशिंगटन ने कहा- इसी तरह से हम भी बिल को सीनेट की तश्तरी में डालकर ठंडा करेंगे.

ये भी पढ़ें : क्यों नहीं होता राज्यसभा चुनाव के लिए गुप्त मतदान, जानें इस बार किन राज्यों में है 'क्रॉस वोटिंग' का खतरा

नई दिल्ली : राज्यसभा की 56 सीटों के लिए 27 फरवरी को चुनाव होने हैं. राज्यसभा के सदस्यों का कार्यकाल छह साल के लिए निर्धारित होता है. संविधान के अनुच्छेद 83(1) के अनुसार राज्यसभा को भंग नहीं किया जा सकता है. इसके एक तिहाई सदस्य हरेक दो साल पर रिटायर होते रहते हैं. हालांकि, अलग-अलग समय पर राष्ट्रपति शासन लागू होने और राज्यों की विधानसभाओं के भंग होने के कारण इसमें थोड़ा बहुत बदलाव हुआ. इसका प्रभाव यह पड़ा कि छह साल की अवधि में तीन बार से अधिक बार चुनाव होने लगे हैं.

संविधान के अनुच्छेद 80 में लिखा है कि राज्यसभा में 12 सदस्यों को राष्ट्रपति नामित करेंगे और 238 सदस्यों का चुनाव राज्यों और केंद्र शासित प्रदेशों से किया जाएगा. राज्यसभा के कुल सदस्यों की संख्या 250 होती है. इस समय राज्यसभा के सदस्यों की संख्या 245 है. संविधान की सूची चार के अनुसार इस समय 233 सदस्य चुने हुए हैं. प्रत्येक राज्यों को उनकी आबादी के आधार पर राज्यसभा में सीटों का अलॉटमेंट किया गया है. हालांकि, अनुपात सभी राज्यों में बराबर का है.

अनुच्छेद 80 के खंड 4 के अनुसार विधानसभा के चुने गए सदस्य आनुपातिक प्रणाली के अनुसार एकल हस्तांतरणीय वोट के माध्यम से चुनाव में हिस्सा लेंगे. यानि वे इलेक्टोरल का हिस्सा होंगे. इसका मतलब यह हुआ कि किसी भी राजनीतिक दल का विधानसभा में जितना प्रतिनिधित्व है, उसी आनुपातिक प्रतिनिधित्व में उन्हें राज्यसभा में सदस्यों की संख्या चुनने का अधिकार है. राज्य विधानसभा के प्रत्येक सदस्य का वोट सिंगल है, लेकिन वह हस्तांतरणीय होता है.

बैलट पेपर पर चुनाव लड़ने वाले सभी उम्मीदवारों का नाम लिखा होता है. चुनाव में भाग लेने वाले विधायकों को उम्मीदवारों के लिए प्राथमिकता तय करनी होती है. वे उनकी नंबरिंग करते हैं. उन्हें कम से कम एक उम्मीदवार के सामने नंबर-I (उनकी पहली प्राथमिकता) लिखना होता है. यदि एक से अधिक उम्मीदवार मैदान में होते हैं, तब उन्हें दूसरे उम्मीदवारों को लेकर अपनी प्राथमिकता लिखनी होती है. अगर काउंटिंग के पहले राउंड में परिणाम स्पष्ट नहीं होते हैं, तो उनकी दूसरी प्राथमिकताओं पर विचार किया जाता है.

इसी तरह से किसी भी राज्य में एक उम्मीदवार के चयन के लिए कितना वोट चाहिए, इसका भी एक फॉर्मूला होता है. जितनी वैकेंसी है, उससे एक अधिक जितनी संख्या होती है, उस संख्या से कुल विधायकों की संख्या में भाग दिया जाता है. भागफल से एक अधिक जो भी नंबर आएगा, चुनाव जीतने के लिए उतने मत चाहिए.

यूपी का एक उदाहरण समझिए. यूपी में 403 विधानसभा सीट है. अगर 10 सीटों के लिए चुनाव होने हैं. तो इस समय भाजपा के विधायकों की संख्या 252 है. उनके एक उम्मीदवार को राज्यसभा पहुंचने के लिए कितने वोट चाहिए. 403/(10+1) = 36.6 +1= 37.6 यानि 38 वोट चाहिए. भाजपा के सभी उम्मीदवारों को जीत के लिए 38 वोट प्राप्त करने होंगे. इस हिसाब से देखें तो भाजपा के छह उम्मीदवार चुनाव जीत सकते हैं. लेकिन इसके बाद भी भाजपा के पास 24 विधायक बचेंगे. ऐसी स्थिति में उनके विधायक किसी सहयोगी पार्टी के लिए मत कर सकते हैं. यह एक उदाहरण है, इसके जरिए आप इस फॉर्मूले को समझ सकते हैं. वैसे, इस समय आरएलडी और एनडीए के बीच जिस तरह से नजदीकियां बढ़ रहीं हैं, अगर ऐसा हुआ तो यूपी के समीकरण में बड़ा बदलाव हो सकता है.

यूपी में एनडीए के विधायक : 277

भाजपा : 252

अपना दल (एस) : 13

निषाद पार्टी : 06

सुभासपा : 06

यूपी में इंडिया गठबंधन के विधायक : 119

सपा: 108

कांग्रेस : 02

आरएलडी : 09

निर्दलीय व अन्य दल के विधायक: 6

जनसत्ता दल : 2

बसपा : 1

निर्दलीय : 3

भाजपा को 7 सीटें मिल सकती हैं: राज्यसभा का सदस्य बनने के लिए विधायकों का समर्थन लेना होता है. यानी चुनाव में विधायक ही मतदान करते हैं. यूपी विधानसभा की मौजूदा स्थिति को देखते हुए माना जा रहा है कि भाजपा को सात सीटें मिल सकती हैं. दरअसल, राज्यसभा प्रत्याशी को जीत के लिए मौजूदा स्थिति के अनुसार 37 विधायकों का वोट चाहिए. इस हिसाब से भाजपा को सात सीटें मिलना तय माना जा रहा है.

संविधान सभा में बहस के दौरान लोकनाथ मिश्रा ने राज्यसभा को लेकर कहा था कि यह एक एक गंभीर सदन होगा. यहां पर विषयों की समीक्षा होगी. सदन गुणवत्ता के लिए खड़ा होगा. सदस्य विषयों का विवेचन गुणवत्ता के आधार पर करेंगे. एम अनंतशयनम अयंगर ने कहा था कि ऐसे मंच पर चिंतनशील विचारों का प्रदर्शन होगा, वैसे लोग जो हो सकता है पॉपुलर मैंडेट लेकर चुनाव नहीं जीत सकते हैं, लेकिन उनकी प्रतिभा को लेकर किसी को शक नहीं होगा, वे इस सभा के सदस्य होंगे.

ये अलग बात है कि समय के साथ इन संकल्पों में बदलाव हुआ. संविधान रचयिता ने राज्यसभा को लेकर जो सपना देखा था, वह परिकल्पना प्रभावित हुई. अधिवास आवश्यकता को लेकर जन प्रतिनिधित्व अधिनियम में संशोधन किया गया. राज्यसभा चुनाव में किसी भी राज्य का कोई भी व्यक्ति किसी भी राज्य में भाग ले सकता है. क्योंकि अधिवास की शर्तों को हटा दिया गया, इसलिए कोई भी व्यक्ति कहीं से भी उम्मीदवार बन सकता है.

इसलिए राज्यसभा को लेकर जिस विविधता की कल्पना की गई थी, वह चूर-चूर हो गई. आप यह भी कह सकते हैं कि यह बहुत कुछ लोकसभा की तरह दिखने लगा है. जो इसकी मंशा और उद्देश्य थे, वे पूरे नहीं हुए. अब तो राज्यसभा में ऐसे भी सदस्य आने लगे हैं, जिनकी वजह से संसदीय प्रक्रियाओं की महत्ता में कोई इजाफा नहीं होता है. ऐसे में समय है कि इस पर विचार करना चाहिए, आखिर यह सदन कहां से कहां चला आया है.

हालांकि, संसदीय व्यवधानों के लिए सिर्फ राज्यसभा को ही दोषी नहीं ठहरा सकते हैं. सच्ची भारतीय परंपरा में भारतीय संसद में निरंतरता का अद्भुत मिश्रण है -राज्यसभा और परिवर्तन का प्रतिबिंब है- लोकसभा.

अब राज्यसभा की जरूरत है या नहीं, यह बहस तो उतनी ही पुरानी है, जिस समय इसका गठन किया जा रहा था. 18वीं सदी के अंत में, जब अमेरिकी संवैधानिक ढांचा पूरी तरह से तैयार होने की कगार पर था, थॉमस जेफरसन ने जॉर्ज वाशिंगटन के समाने नाश्ते की टेबल पर विरोध प्रकट किया. उन्होंने दो सदनों की आवश्यकता को लेकर सवाल उठाए थे. उस समय जब वाशिंगटन ने जेफरसन से पूछा कि आप कॉफी को प्लेट में क्यों डाल रहे हैं, इस पर जेफरसन ने जबाव दिया- ठंडा होने के लिए डाल रहा हूं. इसके बाद वाशिंगटन ने कहा- इसी तरह से हम भी बिल को सीनेट की तश्तरी में डालकर ठंडा करेंगे.

ये भी पढ़ें : क्यों नहीं होता राज्यसभा चुनाव के लिए गुप्त मतदान, जानें इस बार किन राज्यों में है 'क्रॉस वोटिंग' का खतरा

Last Updated : Feb 17, 2024, 2:30 PM IST
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