हैदराबाद : किशोरावस्था बच्चों की वह नाजुक उम्र होती हैं जब उनमें शारीरिक व मानसिक विकास तेजी से होता है. उम्र के इस दौर में उनमें हार्मोनल बदलाव तेजी से हो रहे होते हैं जिसके चलते उनके शरीर, आवाज व सोच में बदलाव आने शुरू होते है. यह वह समय होता है जब उनका सोशल नॉर्मस यानी समाज में जीने के व आगे बढ़ने के नियमों-परंपराओं व समाज की सोच से परिचय होता है. लोगों को लगता है कि किशोरावस्था का शुरुआती दौर तो सिर्फ बच्चों के खेलने व पढ़ने तक सीमित होता है और इस उम्र में पढ़ाई व खेलने के अलावा ज्यादा बातों की ओर उनका ध्यान नहीं जाता है. लेकिन आमतौर पर यह उम्र उनकी सोच, व्यक्तित्व व व्यवहार के विकास के लिए सबसे ज्यादा संवेदनशील होती है. ऐसे में कई बार कुछ बातें, व्यवहार या घटनाएं उनकी सोच व व्यवहार को इतना ज्यादा प्रभावित कर सकती है कि वे कम या ज्यादा गंभीर मानसिक स्वास्थ्य समस्याओं का शिकार भी बन सकते हैं.
हल्के में ना ले संकेत
नई दिल्ली की मनोवैज्ञानिक डॉ रीना दत्ता बताती हैं कि बच्चों में मानसिक स्वास्थ्य को प्रभावित करने वाली समस्याओं व उनके संकेतों को हल्के में नहीं लेना चाहिए. बच्चों में इन समस्याओं के निदान के लिए समय से प्रयास ना करना या उन्हें अनदेखा करना कभी-कभी भविष्य में उनके स्वभाव, व्यक्तित्व तथा सामाजिक, पारिवारिक व कामकाजी जीवन को भी प्रभावित कर सकता है.
क्या हो सकते हैं कारण
वह बताती हैं कि इस उम्र में सिर्फ पढ़ाई, कॉम्पीटीशन और भविष्य बनाने की चिंता ही नहीं बल्कि शरीर में बदलाव व कुछ शारीरिक समस्याएं, व्यवहारजन्य या परिस्थितिजन्य समस्याएं या घटनाएं तथा घर-स्कूल या किसी अन्य स्थान पर फिजिकल, सेक्सुअल या मेंटल अब्यूज़ जैसे बहुत के कारण हो सकते हैं जो बच्चों के मानसिक स्वास्थ्य को प्रभावित कर सकते हैं. इसके अलावा कभी-कभी कुछ लर्निंग व व्यवहार संबंधित डिसॉर्डर भी होते हैं जो बच्चों के मानसिक स्वास्थ्य को प्रभावित करते हैं. जिनके कारण वे ना सिर्फ एकाग्रता में कमी, चिंता विकार, अवसाद बल्कि कई अन्य तरह की कम या ज्यादा गंभीर मानसिक समस्याओं, विकारों या व्यवहार संबंधी समस्याओं का सामना कर सकते हैं.
अलग-अलग बच्चों में नजर आते हैं अलग-अलग प्रभाव
वह बताती हैं अलग-अलग मनोवृत्ति या मानसिक दृढ़ता वाले बच्चों में मानसिक स्वास्थ्य से जुड़ी समस्याएं अलग-अलग प्रभाव दिखा सकती हैं. जैसे कुछ किशोरों में यह समस्याएं ऐसा प्रभाव नहीं दिखाती हैं जिसमें उनकी सोच, दिनचर्या, व्यवहार या कार्य करने की क्षमता बहुत ज्यादा प्रभावित हों . लेकिन कभी-कभी कुछ किशोर अलग- अलग कारणों से इन समस्याओं के प्रभावों को झेल नहीं पाते हैं. ऐसे में यदि उनमें इन समस्याओं के निदान के लिए प्रयास ना किए जाए तो कई बार उनमें ट्रॉमा के लक्षण भी नजर आ सकते हैं. वहीं उनमें आत्महत्या या खुद को नुकसान पहुंचाने तथा कई बार दूसरों को नुकसान पहुंचाने जैसे विचार या प्रवृत्ति भी पनप सकती है. कभी-कभी इसके चलते कुछ किशोर नशे या ड्रग्स जैसे एडिक्शन का शिकार भी हो सकते हैं.
इसके अलावा कुछ ऐसे मानसिक स्वास्थ्य विकार भी होते हैं जो किशोरावस्था में बच्चों में आमतौर पर नजर आ जाते हैं.जैसे ईटिंग डिसऑर्डर, अटेंशन-डेफिसिट हाइपरएक्टिविटी डिसऑर्डर (एडीएचडी), अनिद्रा और सेल्फ-लॉस आदि.
जरूरी है जागरूकता, जानकारी व प्रयास
डॉ रीना दत्ता बताती हैं कि हालांकि आजकल आमतौर पर स्कूलों में काउन्सलर नियुक्त किए जाते हैं, लेकिन सोशल मीडिया, सेल्फ़ी-रील कल्चर के इस दौर में जब बच्चे अपनी उम्र से पहले बड़े हो रहे हैं या हर विषय को लेकर ज्यादा एक्सपोजर ले रहे हैं. माता पिता, अभिभावक तथा शिक्षकों के लिए भी जरूरी है कि वे बच्चों में मानसिक दबाव व समस्याओं तथा उनके संकेतों को लेकर सजग रहें. वह बताती हैं बहुत जरूरी है कि बच्चों के माता पिता व शिक्षकों को भी इन समस्याओं व उनके संकेतों को लेकर जागरूक किया जाए जिससे वे समस्या के संकेतों को समझ सकें और सही समय पर जरूरतमंद किशोर की मदद की जा सके.
बहुत जरूरी है कि माता पिता तथा परिवार के अन्य सदस्य आपस में नियमित संवाद रखें . साथ ही बच्चों के साथ ऐसा व्यवहार स्थापित करें जिससे वे उनके बात करने में हिचके या डरे नहीं. इसके अलावा पढ़ाई, किसी भी प्रकार के अब्यूज़, तनाव, स्कूल या आसपास के वातावरण तथा उनके शारीरिक विकास व परिवर्तन से जुड़े मुद्दों तथा अन्य ऐसे मुद्दों पर बच्चों के साथ सकारात्मक सोच के साथ सामान्य चर्चा या बात करें और उन्हे सही जानकारी देने का प्रयास करें जो उनके मानसिक स्वास्थ्य को प्रभावित कर सकती हैं. इस दौरान उनकी पूरी बात सुने , जिससे बच्चे महसूस कर सके कि वे किसी भी मुद्दे पर अपने परिजनों से खुल कर बात कर सकते हैं.
डॉ रीना दत्ता बताती हैं कि बच्चे में यदि किसी भी प्रकार की समस्या के संकेत नजर आते हैं, या उसके व्यवहार में कुछ असामान्यता नजर आए तो किसी प्रोफेशनल की मदद लेने से हिचकिचाएं नहीं. वहीं किशोरों के लिए आजकल कई स्वास्थ्य संस्थाओं व मनोचिकित्सकों के समूहों ने हेल्पलाइन सुविधा भी शुरू की हैं जहां किशोर पहले फोन या वीडियो कॉल के माध्यम से काउंसलर से बात कर सकते हैं. वहीं यदि काउंसलर को लगता है की बच्चे को ज्यादा मदद की जरूरत है या वह किसी गंभीर समस्या या अवस्था का सामना कर रहा है तो वे उसे मनोचिकित्सक से परामर्श करने के लिए कहते हैं.