नई दिल्ली: पूर्वी एशियाई द्वीप राष्ट्र ताइवान ने भारतीय प्रवासी मजदूरों काम देने के लिए इस साल फरवरी में भारत के साथ एक समझौते पर हस्ताक्षर किए थे. अब यह निर्णय लिया गया है कि इन भारतीय मजदूरों को पहले मैन्युफैक्चरिंग क्षेत्र में तैनात किया जाएगा. ताइवानी मीडिया में आई खबरों के मुताबिक, इस हफ्ते की शुरुआत में ताइवान के श्रम मंत्रालय में एक बैठक के दौरान इस संबंध में निर्णय लिया गया.
सीएनए समाचार एजेंसी की रिपोर्ट के अनुसार इस बैठक में माइग्रेंट वर्कर ग्रुप, नियोक्ता प्रतिनिधि, लेबर ब्रोकर, ताइवान और भारत के विद्वान और विशेषज्ञ बैठक में शामिल हुए. सीएनए की रिपोर्ट में कहा गया है कि वर्कफोर्स डेवलपमेंट एजेंसी के क्रॉस-बॉर्डर वर्कफोर्स अफेयर्स सेंटर के प्रमुख सु यू-कुओ के अनुसार मैन्युफैक्चरिंग इंडस्ट्री में सबसे पहले भारतीय मजदूरो को भर्ती करने पर आम सहमति बनी.
भारत पांचवां देश है, जहां से ताइवान प्रवासी मजदूरों को अपने यहां जगह देगा, क्योंकि देश मजदूरों की कमी का सामना कर रहा है. भारत के अलावा ताइवान वियतनाम, इंडोनेशिया, फिलीपींस और थाईलैंड से मजदूरों के अपने यहां काम देता है. ताइवान में लगभग 700,000 प्रवासी मजदूर काम करते हैं. विनिर्माण के अलावा, भारतीय मजदूरों को निर्माण, कृषि और बुजुर्ग लोगों की देखभाल जैसे क्षेत्रों में तैनात किए जाने की उम्मीद है.
ताइवान में क्यों है मजदूरों की कमी?
ताइवान में मजदूरों की कमी का सबसे अहम कारण देश की आबादी है. ताइवान की जन्म दर लगातार कम रही है, जिससे कार्यबल घट रहा है. जैसे-जैसे लोगों की उम्र बढ़ती है, कामकाजी उम्र के व्यक्तियों का अनुपात कम हो जाता है, जिससे मजूरी करने वाले लोगों का पूल छोटा हो जाता है.
इसके अलावा ताइवान में महत्वपूर्ण प्रवासन देखने को मिला है. यहां युवा और कुशल पेशेवरों विदेश में बेहतर अवसरों की तलाश में हैं. इसके चलते वहां प्रतिभा का पलायन हो रहा है. लोग उच्च वेतन और बेहतर करियर संभावनाओं वाले देशों में काम करना चुन रहे हैं.
ताइवान में कई युवा टेक्नोलॉजी, फाइनेंस और अन्य क्षेत्रों में अपना करियर तेजी से बना रहे हैं. इसके चलते विनिर्माण और कृषि जैसे पारंपरिक उद्योगों में लोगों की रुचि कम हो गई है. इतना ही नहीं ताइवान की आव्रजन नीतियां अपेक्षाकृत सख्त रही हैं, जिससे मजदूरों की कमी को पूरा करने के लिए विदेशी श्रमिकों को आकर्षित करने की क्षमता सीमित हो गई है. हालांकि केयरगिविंग और मैन्युफैक्चरिंग जैसे उद्योगों में अधिक विदेशी श्रमिकों को अनुमति देने के लिए कुछ नीतियों में ढील दी गई है, लेकिन यह काफी नहीं है.
देश के कुछ सेक्टर में मजदूरी जीवनयापन की बढ़ती लागत के साथ तालमेल नहीं बिठा पाई है, जिससे मजदूरों उन उद्योगों में काम करना नहीं चाहते. इसके अतिरिक्त, खराब वर्क कंडीशन, ज्यादा घंटे और सीमित नौकरी भी इसके लिए जिम्मेदार हैं. ताइवान के ऐजूकेशन सिस्टम ने हायर ऐजूकेशन पर ध्यान केंद्रित कर दिया है और अब ज्यादातर छात्र यूनिवर्सिटी की डिग्री प्राप्त कर रहे हैं. हालांकि, इस बदलाव के कारण शैक्षिक विसंगति पैदा हो गई है, जहां कई ग्रेजुएट के स्किल वर्कर बाजार की जरूरतों के अनुरूप नहीं हैं. यह भी कुछ क्षेत्रों में मजदूरों की कमी में योगदान देता है.
कोविड-19 महामारी का ताइवान की लेबर मार्केट पर भी महत्वपूर्ण प्रभाव पड़ा. सीमा बंद होने और यात्रा प्रतिबंधों के कारण विदेशी मजदूरी की भर्ती करना चुनौतीपूर्ण हो गया, जिससे मजदूरों की कमी और बढ़ गई. महामारी ने विभिन्न उद्योगों को भी बाधित किया है, जिससे रोजगार पैटर्न और कार्यबल उपलब्धता में काफी बदलाव आया.
ताइवान क्यों चाहिए भारत के प्रवासी मजदूर?
शिलांग स्थित एशियन कॉन्फ्लुएंस थिंक टैंक के फेलो के योहोम ने ईटीवी भारत को बताया कि अन्य पूर्वी एशियाई देशों की तरह ताइवान भी एक विकसित राष्ट्र है और सबसे आगे है. इसे मेंटेन करने के लिए, उन्हें एक ऐसी लेबर फोर्स की जरूरत है जो टिकाऊ हो.
उन्होंने बताया कि जहां तक भारत का सवाल है, उसके पास एक बड़ी युवा आबादी और लेबर फोर्स मौजूद है. इसलिए, ताइवान का भारतीय कामगारों की मांग कर रहा है. पिछले साल आई सीएनए की एक रिपोर्ट के अनुसार ताइवान की कंपनियां संस्कृति और खाने-पीने के मामले में समान हैं.
हालांकि, इस साल मार्च में ताइवान के श्रम मंत्री सू मिंग-चुन के एक बयान से विवाद खड़ा हो गया था कि पूर्वोत्तर भारत के श्रमिकों को प्राथमिकता क्यों दी गई. सीएनए को दिए एक साक्षात्कार के दौरान, मंत्री ह्सू ने उल्लेख किया कि मंत्रालय पूर्वोत्तर भारत के श्रमिकों को काम पर रखने को प्राथमिकता देगा, उन्होंने बताया कि उनकी स्किन कलर और आहार संबंधी व्यवहार हमारे साथ अधिक मेल खाते हैं.
नस्लवाद के आरोपों को लेकर उपजे विवाद के बाद ह्सू ने इस पर खेद व्यक्त करते हुए माफी मांगी और स्पष्ट किया कि ताइवान की लेबर पॉलिसी का लक्ष्य भेदभाव करना नही हैं. योहोम के अनुसार मंत्री को अपनी टिप्पणियां अधिक व्यापक आधार वाली बनानी चाहिए थी. हालांकि, उन्होंने कहा कि पूर्वोत्तर भारतीयों के श्रमिकों के लिए ताइवानी कंपनियों की प्राथमिकता में दम है. उन्होंने समझाया कि पूर्वोत्तर भारत के लोगों की संस्कृति और खान-पान में काफी समानताएं हैं और पूर्वोत्तर का समाज भी स्वभाव से बहुत उदार है.
उन्होंने कहा कि अगर भारत के किसी अन्य क्षेत्र के किसी व्यक्ति को प्रवासी श्रमिक के रूप में ताइवान भेजा जाता है, तो उससे उसे सांस्कृतिक आघात लगेगा. योहोम ने कहा कि महानगरों में रहने वाले गैर-उत्तरपूर्वी भारतीयों को ताइवान में जीवन के साथ तालमेल बिठाने में दिक्कत नहीं होनी चाहिए. उन्होंने कहा, 'महानगरों में रहने वाले देश के सभी क्षेत्रों के भारतीयों को आमतौर पर किसी अन्य देश में स्थानांतरित होने में कोई समस्या नहीं होती है.
भारत-ताइवान संबंध कैसे विकसित हुए?
भारत 1949 में ताइवान (तब चीन गणराज्य कहा जाता था) के गठन के बाद उसके साथ राजनयिक संबंध स्थापित करने वाले पहले देशों में से एक था. हालांकि, 1950 में भारत ने पीपुल्स रिपब्लिक ऑफ चाइना को मान्यता दी, जिसके बाद से भारत और ताइवान के बीच आधिकारिक राजनयिक संबंध निलंबित हो गए. तब से, भारत ने 'वन चाइना' नीति का पालन किया है.
आधिकारिक तौर पर भारत और ताइवान के बीच औपचारिक राजनयिक संबंध नहीं हैं. औपचारिक राजनयिक संबंध नहीं होने के बावजूद भारत ने विश्व स्वास्थ्य संगठन (WHO) और अंतर्राष्ट्रीय नागरिक उड्डयन संगठन (ICAO) जैसे अंतरराष्ट्रीय संगठनों में ताइवान की भागीदारी का लगातार समर्थन किया है, जहां सदस्यता के लिए राज्य का दर्जा कोई शर्त नहीं है.
भारत-ताइवान की नई विदेश नीति का एक प्रमुख फोकस क्षेत्र है, जिसे 2016 में अपनाई गई न्यू साउथबाउंड नीति कहा जाता है. ताइवान के राष्ट्रपति त्साई इंग-वेन की इस नीति के अनुसार, पूर्वी एशियाई द्वीप राष्ट्र भारत और पांच के साथ आदान-प्रदान और सहयोग को व्यापक बनाने का प्रयास कर रहा है. ताइवान दुनिया की 22वीं सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था है और 20वीं सदी के अंत में इसे चार एशियन टाइगर्स में से एक करार दिया गया था.
ताइवान भारत में एक प्रमुख निवेशक के रूप में उभरा है, विशेषकर इंफोर्मेशन टेक्नोलॉजी, इलेक्ट्रॉनिक्स और हार्डवेयर मैन्युफैक्चुरिंग क्षेत्र में. फॉक्सकॉन जैसी प्रमुख ताइवानी कंपनियों ने भारत में मैन्युफैक्चुरिंग फैसिलिटीज स्थापित की है, जो रोजगार सृजन और टेक्नोलॉजिक्ल ट्रांसफर में योगदान दे रही हैं. भारत और ताइवान के बीच द्विपक्षीय व्यापार पिछले कुछ साल में लगातार बढ़ा है, चीन और जापान के बाद ताइवान एशिया में भारत का तीसरा सबसे बड़ा व्यापारिक भागीदार है. दोनों देशों ने निवेश को बढ़ावा देने और आर्थिक सहयोग को सुविधाजनक बनाने के लिए समझौतों पर हस्ताक्षर किए हैं.
TECC दिल्ली के आंकड़ों के अनुसार 2023 में ताइवान और भारत के बीच कुल द्विपक्षीय व्यापार लगभग 8.224 बिलियन डॉलर था. भारत ताइवान का 16वां सबसे बड़ा व्यापारिक भागीदार है. भारत को ताइवान का निर्यात 6.013 बिलियन डॉलर तक पहुंच गया, जो 13 प्रतिशत की वृद्धि दर्शाता है. ताइवान ने भारत से 2.211 बिलियन डॉलर का सामान आयात किया है.
भारत-ताइवान ने एक्टिव रूप से शैक्षिक और सांस्कृतिक आदान-प्रदान को बढ़ावा दिया है. ताइवान विशेष रूप से इंजीनियरिंग, टेक्नोलॉजी और मैनेजमेंट जैसे क्षेत्रों में उच्च शिक्षा चाहने वाले भारतीय छात्रों के लिए एक लोकप्रिय डेस्टिनेशन रहा है. इसी तरह ताइवान में भारतीय सांस्कृतिक केंद्र और भाषा संस्थान स्थापित किए गए हैं, जिससे भारतीय संस्कृति की अधिक समझ और सराहना को बढ़ावा मिला है.
दोनों देशों ने पर्यटन, शैक्षणिक अनुसंधान और कल्चरल फेस्टिवल, लोगों के बीच संबंधों और आपसी समझ को बढ़ावा देने जैसे क्षेत्रों में भी सहयोग किया है. औपचारिक राजनयिक संबंधों की कमी के बावजूद, भारत और ताइवान के विशेष रूप से भारत-प्रशांत क्षेत्र में रणनीतिक हित साझा हैं. दोनों देशों ने चीन की बढ़ती आक्रामकता के बारे में चिंता व्यक्त की है और नियम-आधारित अंतरराष्ट्रीय व्यवस्था, नेविगेशन की स्वतंत्रता और क्षेत्रीय अखंडता के सम्मान की वकालत की है.
योहोम के मुताबिक, ताइवान द्वारा भारत के साथ इमिग्रेशन वर्कर एग्रीमेंट पर हस्ताक्षर करने को दक्षिण चीन सागर में चीन के युद्ध के संदर्भ में भी देखा जाना चाहिए. उन्होंने कहा कि भारत और चीन के बीच इस प्रवासी श्रमिक समझौते को दोनों देशों द्वारा एक-दूसरे की अर्थव्यवस्था के विकास में निवेश के रूप में देखा जाना चाहिए.