रोहित कुमार सोनी, देहरादून: अब अंग्रेजी दवाइयों के मुकाबले लोग धीरे-धीरे आयुर्वेद की तरफ रुख करने लगे है. आयुर्वेद से जुड़े लोग अब फसल और अन्य पेड़ पौधों के लिए आयुर्वेदिक दवाइयों को बनाने की तरफ बढ़ रहे हैं. ताकि, फसलों में डालने वाले उर्वरक और खतरनाक कीटनाशक से निजात मिल सके. साथ ही इंसानों के साथ ही पेड़ पौधों और फसलों को भी स्वस्थ रखा जा सके. क्योंकि, अगर फसलें स्वस्थ रहेंगी तो उसका उपभोग करने वाले लोग भी स्वस्थ रहेंगे.
एक कहावत 'जैसा अन्न वैसा मन' काफी प्रचलित रही है. जिसका मतलब है कि 'व्यक्ति जो खाना खाता है, उसका सीधा असर उसके मन पर पड़ता है' यानि स्वस्थ और पौष्टिक भोजन करते हैं तो हमारा मन भी शांत और स्वस्थ रहता है. वैज्ञानिक भी मानते हैं कि हम जिस तरह का भोजन करते हैं, वैसा ही हमारा स्वभाव और स्वास्थ्य बनता है. यही वजह है कि जहां एक ओर आयुर्वेद को बढ़ावा दिया जा रहा है तो वहीं दूसरी ओर ऑर्गेनिक फसलों पर भी जोर दिया जा रहा है. ताकि, स्वास्थ्य ले लिए हानिकारक उर्वरक और कीटनाशक शरीर में न पहुंचे.
प्राचीन पद्धति 'वृक्षायुर्वेद' पर जोर: इसी कड़ी में अब प्राचीन पद्धतियों को बढ़ावा दिया जा रहा है. जहां एक ओर लोगों को स्वस्थ रखने के लिए आयुर्वेद को बढ़ावा दिया जा रहा है तो वहीं प्राचीन पद्धति 'वृक्षायुर्वेद' पर भी जोर दिया जा रहा है. इस दिशा में उत्तराखंड में स्थित गोविंद बल्लभ पंत कृषि एवं प्रौद्योगिकी विश्वविद्यालय भी काम कर रहा है.
ताकि, पेड़-पौधों और फसलों को भी स्वस्थ रखा जा सके. वहीं, गोविंद बल्लभ पंत कृषि एवं प्रौद्योगिकी विश्वविद्यालय पंतनगर की प्रोफेसर सुनीता टी पांडेय ने ईटीवी भारत से खास बातचीत की. ईटीवी भारत से बातचीत करते हुए प्रो. सुनीता टी पांडेय ने बताया कि आयुर्वेद के कई आयाम हैं. आयुर्वेद भारतवर्ष की 5000 साल पुरानी एक टूल है.
आयुर्वेद, पशु आयुर्वेद के बाद अब वृक्षायुर्वेद: जब आयुर्वेद के जरिए इंसानों का इलाज करते हैं तो उसको लोग आम भाषा में आयुर्वेद कहते हैं, लेकिन जब इस आयुर्वेद को जब पशुओं के इलाज के लिए इस्तेमाल किया जाता है उसे पशु आयुर्वेद कहा जाता है. हालांकि, पशु आयुर्वेद में भी अलग-अलग विधाएं हैं.
इसी तरह जब आयुर्वेद का इस्तेमाल फसलों या फिर वृक्षों के लिए किया जाता है तो उसे वृक्षायुर्वेद कहा जाता है. ऐसे में गोविंद बल्लभ पंत कृषि एवं प्रौद्योगिकी विश्वविद्यालय में एक फाउंडेशन 'एशियाई एग्री हिस्ट्री फाउंडेशन' है, जो वृक्षायुर्वेद को आम जन तक पहुंचाने पर काम कर रही है. वृक्षायुर्वेद आज की विधा नहीं है. बल्कि, 400 बीसी की है.
कृषि से संबंधित दुनिया की पहली किताब ऋषि पराशर ने दी थी. जिसमें कृषि से संबंधित तमाम जानकारियां दी गई है. साथ ही कहा कि जब मिट्टी स्वस्थ होगी तो पौधे स्वस्थ होंगे, जब पौधे स्वस्थ होंगे तो हमारे जानवर स्वस्थ होंगे और तभी इंसान भी स्वस्थ होंगे.
पौधा या फसल स्वस्थ होंगे तो इंसान भी स्वस्थ होगा: क्योंकि, अगर पौधा ही स्वस्थ नहीं होगा तो उसे खाने वाला इंसान या फिर जानवर कैसे स्वस्थ रहेगा? लिहाजा, पौधे को स्वस्थ रखने के लिए उसके स्वास्थ्य पर ध्यान देने की जरूरत है. लिहाजा, आयुर्वेद के जरिए पौधे का स्वास्थ्य ठीक किया जा सकता है.
उन्होंने कहा कि आयुर्वेद के सिद्धांतों जिसमें वात, पित्त और कफ आता है, जिसमें तमाम जड़ी बूटियां का इस्तेमाल किया जाता है. ऐसे में उन जड़ी बूटियां का इस्तेमाल कर किसान प्रोडक्ट बनाकर किसानों के खर्च को काम किया जा सकता है और पौधों को स्वास्थ्य दिया जा सकता है. साथ ही पौधों की इम्युनिटी पैदा की जा सकती है.
खेती में वृक्षायुर्वेद का कॉन्सेप्ट कारगर: आज के समय में कीड़ों के प्रति पौधे की इम्युनिटी काफी घट गई है. क्योंकि, कृषि कार्य के दौरान पौधों को कीड़ों से बचने और खरपतवारों से बचाने के लिए खेतों में दवाइयां डालकर पौधों की इम्युनिटी को घटा दिया है. ऐसे में जब भारतीय दृष्टि से खेती को देखते हैं, तब वृक्षायुर्वेद का कॉन्सेप्ट सामने आता है.
प्रो. सुनीता ने बताया कि एशियाई एग्री हिस्ट्री फाउंडेशन के जन्मदाता यशवंत लक्ष्मण नैने ने पंतनगर यूनिवर्सिटी में 14 साल काम किया. साल 1994 से लेकर 2018 तक वृक्षायुर्वेद से संबंधित तमाम जानकारियां एकत्र की और इन सभी जानकारी को हिंदी और इंग्लिश में कन्वर्ट किया.
वृक्षायुर्वेद की विधा को आगे लाने का प्रयास: ऐसे में पंतनगर यूनिवर्सिटी अब इन सभी जानकारी को रिसर्च डोमेन में लाने का काम कर रही है. ताकि, लोगों को वृक्षायुर्वेद कि जानकारी दी जा सके. साथ ही कहा कि जो विद्या हमारे पास है, वो किसी की पास नहीं है, जिसके जरिए हम विश्व गुरु बन सकते हैं.
प्रो. सुनीता ने बताया कि आयुर्वेद का पौधों या फिर वृक्षों पर इस्तेमाल करने का तरीका है. जिसके तहत अगर फसल उगाना चाहते हैं तो उसके लिए शुरुआती दौर में अच्छी जमीन और अच्छे बीज की जरूरत होती है. ऐसे में आयुर्वेद के जरिए भूमि और बीच का उपचार किया जा सकता है.आयुर्वेद के अनुसार बुवाई से पहले बीजों का दूध से उपचार किया जा सकता है.
वृक्षायुर्वेद में दूध के इस्तेमाल से संबंधित तमाम जानकारियां दी गई है. गोबर का इस्तेमाल भी बीज के उपचार के लिए किया जा सकता है. कुल मिलाकर जब बीज की क्वालिटी बेहतर होगी तो उससे फसल का उत्पादन भी काफी ज्यादा बेहतर होगा. लिहाजा, पंतनगर यूनिवर्सिटी वृक्षायुर्वेद के तमाम नुस्खे पर रिसर्च कर रहा है. जिसके अच्छे परिणाम भी देखने को मिल रहे हैं.
वृक्षायुर्वेद में गोबर और कुणप जल के इस्तेमाल पर भी जोर: प्रोफेसर सुनीता टी पांडेय ने कहा कि वर्तमान स्थिति ये है कि जहां एक और जलवायु परिवर्तन एक गंभीर समस्या बनती जा रही है तो वहीं दूसरी ओर खाने की थाली भी पॉल्यूटेड होती जा रही है. जिस वजह से तमाम बीमारियां भी लोगों के शरीर में घर बनाती जा रही है.
ऐसे में अगर भूमि के उपचार की बात करें तो वृक्षायुर्वेद में गोबर के इस्तेमाल पर भी जोर दिया गया है, लेकिन वृक्षायुर्वेद में गोबर को सड़ा करके खाद के रूप में इस्तेमाल करने का कहीं भी जिक्र नहीं है. बल्कि, वृक्षायुर्वेद में गोबर को लिक्विड खाद बनाकर फसलों में डालने की बात कही गई है. वैद्य सुरपाल ने करीब 1000 साल पहले दुनिया को एक बड़ा तोहफा दिया था, जो कुणप जल हैं. कुणप जल जानवरों के अवशेषों से बनने वाला एक जैविक तरल खाद है.
उन्होंने बताया कि कुणप जल के जरिए पौधों में लगने वाले कीड़ों को भी काफी हद तक कंट्रोल किया जा सकता है. इसके अलावा पौधों के स्वास्थ्य के लिए कुणप जल को सर्वोत्तम माना गया है. जिसको बनाने का एक विशेष तरीका है, जो जानवरों के अवशेष से बनाया जाता है. हालांकि, एशियाई एग्री हिस्ट्री फाउंडेशन के जन्मदाता यशवंत लक्ष्मण नैने ने कुणप जल को हर्बल कुणप जल बनाया था.
कुणप जल से पौधों की इम्यूनिटी होगी बूस्ट: ऐसे में पंतनगर विश्वविद्यालय हर्बल कुणप जल को फसल के अनुसार रिसर्च किया है. इसमें किस फसल में किस मात्रा में हर्बल कुणप जल का इस्तेमाल किया जा सकता है. जिससे फसलों का उत्पादन बढ़ाने के साथ ही पौधों के इम्यूनिटी को बूस्ट किया जा सके.
प्रो. सुनीता ने बताया कि अगर देश के सभी किसान वृक्षायुर्वेद पद्धति को अपनाने लग जाए तो इसका काफी ज्यादा फायदा होगा. क्योंकि, आज सबसे बड़ा मुद्दा यही है कि किसानी के खर्च को काम किया जा सके. क्योंकि, किसी महंगी होने की वजह से किसान का बेटा ही किसानी नहीं करना चाहता है.
जबकि, पहले से ही ऐसा प्रचलन रहा है कि किसानों को पहली प्राथमिकता देश में दी जाती रही है, लेकिन आज किसान कृषि कार्य इसलिए नहीं कर रहा है. क्योंकि, कृषि का खर्चा नहीं निकल पा रहा है. ऐसे में अगर वृक्षायुर्वेद पद्धति को किस अपनाते हैं तो तमाम खर्चे अपने आप ही काम हो जाएंगे.
क्योंकि, बीज का उपचार घर पर ही हो जाएगा और उर्वरक भी घर पर ही तैयार हो जाएगी. प्लांट प्रोटेक्शन के लिए नीम की दवाइयां घर पर ही तैयार हो जाएगी. ऐसे में तमाम तरीके हैं, जिसमें गोमूत्र का इस्तेमाल कर दवाइयां बनाई जा सकती हैं.
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