ETV Bharat / bharat

One Nation One Election: बीजेपी क्यों कर रही है इस विचार का समर्थन और विपक्षी क्यों नहीं हैं तैयार, जानें यहां - One Nation One Election

One Nation One Election, वन नेशन वन इलेक्शन पर सभी दलों और जनता की राय लेने के लिए बनाई समिति ने गुरुवार को अपनी रिपोर्ट राष्ट्रपति द्रौपदी मुर्मू को सौंप दी है. लेकिन यहां मूद्दा इस बात का है, जहां बीजेपी इस अवधारणा का पूरी तरह से समर्थन कर रही है, वहीं विपक्षी दल इसका पुरजोर विरोध कर रहे हैं. तो चलिए हम आपको बताते हैं कि ऐसा इस मुद्दे में क्या है...

One Nation One Election
वन नेशन वन इलेक्शन
author img

By ETV Bharat Hindi Team

Published : Mar 14, 2024, 10:54 PM IST

हैदराबाद: भारत में एक बार फिर से वन नेशन वन इलेक्शन का मुद्दा जोर पकड़ रहा है. विपक्षी दल बीजेपी को लगातार इस मुद्दे को लेकर घेर रहे हैं और वोटों के ध्रुवीकरण का आरोप लगा रहे हैं. बता दें कि पूर्व राष्ट्रपति राम नाथ कोविंद के नेतृत्व वाली संसद, राज्य विधानसभाओं और स्थानीय निकायों के एक साथ चुनाव पर समिति ने गुरुवार को राष्ट्रपति द्रौपदी मुर्मू को अपनी रिपोर्ट सौंप दी है.

बीजेपी के साल 2019 में दोबारा सत्ता में आने के बाद से यह मुद्दा चर्चा में रहा है और इसे बीजेपी ने अपने चुनावी एजेंडे में भी शामिल किया था. पूरे देश में एक साथ चुनाव लागू करने के लिए सिफारिशें प्रस्तावित करने के लिए ही बीते साल सितंबर में इस समिति को बनाया गया था. इस समिति ने भाजपा, तृणमूल कांग्रेस, समाजवादी पार्टी, सीपीआई, सीपीआई (एम), एआईएमआईएम, आरपीआई, अपना दल जैसे विभिन्न राजनीतिक दलों के प्रतिनिधियों के साथ बातचीत की.

इन पार्टी प्रतिनिधियों ने इस समिति को लिखित रूप में अपने सुझाव सौंपे. इसके अलावा समिति ने आम जनता से भी अपनी राय देने को कहा था. चूंकि यह देश के लिए एक बड़ा बदलाव होगा, इसलिए एक साथ चुनाव कराने की प्रक्रिया में लंबा समय लग सकता है. इसे लागू करने के लिए कई बदलाव करने पड़ेंगे.

कोई नया विचार नहीं एक राष्ट्र एक चुनाव

'वन नेशन, वन इलेक्शन' का विचार कोई नया विचार नहीं है. यह कई बार चुनाव आयोग, विधि आयोग और संसदीय समितियों सहित विभिन्न संस्थाओं द्वारा उठाया जा चुका है. हालांकि बीजेपी ने एक कदम आगे बढ़ते हुए इस मुद्दे को अपने चुनावी घोषणा पत्र का हिस्सा बना लिया. लेकिन देखा जाए तो इसे लेकर अन्य राजनीतिक दलों के बीच आम सहमति बनी हुई है.

साल 1983 में, चुनाव आयोग ने पहली बार एक साथ चुनाव की व्यवहार्यता तलाशने का सुझाव दिया था. विधि आयोग ने भी साल 1999 में अपनी 170वीं रिपोर्ट में लोकसभा और सभी राज्य विधानसभाओं के चुनाव एक साथ कराने की वकालत की थी. इसके बाद साल 2015 में, एक संसदीय स्थायी समिति ने एक साथ चुनाव की व्यवहार्यता पर एक रिपोर्ट तैयार की, जिसमें कम लागत और बेहतर प्रशासनिक दक्षता जैसे संभावित लाभों पर प्रकाश डाला गया था.

इस रिपोर्ट में विपक्षी दलों द्वारा उठाई गई चिंताओं के बारे में भी विस्तार से बताया गया था. विपक्षी दलों ने संघवाद पर संभाविता प्रभाव का हवाला देते हुए, इसे मंजूरी न देने की सिफारिश की थी. समिति ने विधानसभाओं का कार्यकाल 170 दिनों तक बढ़ाने और कार्यकाल 599 दिनों तक कम करने का सुझाव दिया था. इसमें यह निष्कर्ष निकाला गया कि साल 2016 या एक दशक में भी एक साथ चुनाव कराना संभव नहीं हो सकता है.

साल 2017 में नीति आयोग ने एक चर्चा पत्र प्रकाशित किया, जिसमें एक साथ चुनावों की अवधारणा का विश्लेषण किया था. पेपर ने संभावित लागत बचत और प्रशासनिक लाभों के बारे में भी बताया था. लेकिन संघवाद और लोकतांत्रिक सुरक्षा उपायों के बारे में चिंताओं को दूर करने की आवश्यकता को भी स्वीकार किया. इसके बाद साल सितंबर में सरकार ने वन नेशन वन इलेक्शन के तरीके सुझाने के लिए एक समिति का गठन किया था.

बीजेपी का 'वन नेशन, वन इलेक्शन' के पक्ष में तर्क

बीजेपी लंबे समय से इस विचार के पक्ष में रही है. बीजेपी के वरिष्ठ नेता और पूर्व गृह मंत्री रहे लालकृष्ण आडवाणी ने भी इसका समर्थन किया था. सभी चुनावों के लिए एकल मतदाता सूची का संबंधित विचार भी लंबे समय से भाजपा के एजेंडे में रहा है. बीजेपी के सहयोगियों जैसे जद(यू), जद(एस), शिअद और बीजद ने भी इस विचार का स्वागत किया. हालांकि नेशनल कॉन्फ्रेंस ने इसे खारिज तो नहीं किया, लेकिन उसे इस पर आपत्ति है.

वन नेशन वन इलेक्शन के विचार के पीछे सबसे बड़ा तर्क यह है कि मौजूदा व्यवस्था के कारण देश लगातार चुनावी मोड में रहता है. कुछ राज्यों में, विधानसभा और आम चुनावों के अलावा, पंचायतों और स्थानीय निकायों के कई चुनावों आयोजित किया जाता है, जिसके चलते साल में 200-300 दिन तक चुनावों में बड़ा खर्च होता रहता है. चुनावों के चलते नेता जनता से संबंधित कर्तव्यों को पूरी तरह से निभा नहीं पाते हैं.

एक अन्य प्रमुख तर्क चुनावों पर अधिक खर्च है जो व्यापक भ्रष्टाचार का भी कारण बनता है. भारतीय उद्योग परिसंघ (सीआईआई) ने कोविंद के नेतृत्व वाली समिति को दी गई अपनी प्रस्तुति में 'एक राष्ट्र, एक चुनाव' की अवधारणा का पुरजोर समर्थन किया है. इसमें कहा गया है कि यद्यपि स्थानीय निकायों, राज्य और संसद के लिए समकालिक चुनाव एक चुनौती हो सकते हैं, लेकिन इससे लागत में बचत होगी और अर्थव्यवस्था को लाभ होगा.

वन नेशन वन इलेक्शन के विरोध में तर्क

मौजूदा समय में देश की सबसे बड़ी विपक्षी पार्टी कांग्रेस ने इस विचार को खारिज कर दिया है. लोकसभा में कांग्रेस के नेता अधीर रंजन चौधरी ने कोविंद के नेतृत्व वाली समिति से इस्तीफा दे दिया था, क्योंकि उनका आरोप था कि इस समिति का काम मुद्दे के पक्ष और विपक्ष का पता लगाना नहीं था बल्कि एक साथ चुनाव लागू करने के तरीके सुझाना था. टीएमसी, डीएमके और आप जैसी कई अन्य विपक्षी पार्टियों ने भी इस विचार का पुरजोर विरोध किया है.

इस विचार के ख़िलाफ़ मुख्य तर्क यह है कि यह क्षेत्रीय और स्थानीय चिंताओं को महत्व देगा. एक साथ होने वाले चुनावों में, स्थानीय और क्षेत्रीय मुद्दे राष्ट्रीय स्तर के बड़े मुद्दों से दब जायेंगे. इससे राजनीतिक विमर्श में एकरूपता आएगी और छोटी पार्टियों और राज्यों के लिए अपने विचार देश के सामने रखना मुश्किल हो जाएगा.

हैदराबाद: भारत में एक बार फिर से वन नेशन वन इलेक्शन का मुद्दा जोर पकड़ रहा है. विपक्षी दल बीजेपी को लगातार इस मुद्दे को लेकर घेर रहे हैं और वोटों के ध्रुवीकरण का आरोप लगा रहे हैं. बता दें कि पूर्व राष्ट्रपति राम नाथ कोविंद के नेतृत्व वाली संसद, राज्य विधानसभाओं और स्थानीय निकायों के एक साथ चुनाव पर समिति ने गुरुवार को राष्ट्रपति द्रौपदी मुर्मू को अपनी रिपोर्ट सौंप दी है.

बीजेपी के साल 2019 में दोबारा सत्ता में आने के बाद से यह मुद्दा चर्चा में रहा है और इसे बीजेपी ने अपने चुनावी एजेंडे में भी शामिल किया था. पूरे देश में एक साथ चुनाव लागू करने के लिए सिफारिशें प्रस्तावित करने के लिए ही बीते साल सितंबर में इस समिति को बनाया गया था. इस समिति ने भाजपा, तृणमूल कांग्रेस, समाजवादी पार्टी, सीपीआई, सीपीआई (एम), एआईएमआईएम, आरपीआई, अपना दल जैसे विभिन्न राजनीतिक दलों के प्रतिनिधियों के साथ बातचीत की.

इन पार्टी प्रतिनिधियों ने इस समिति को लिखित रूप में अपने सुझाव सौंपे. इसके अलावा समिति ने आम जनता से भी अपनी राय देने को कहा था. चूंकि यह देश के लिए एक बड़ा बदलाव होगा, इसलिए एक साथ चुनाव कराने की प्रक्रिया में लंबा समय लग सकता है. इसे लागू करने के लिए कई बदलाव करने पड़ेंगे.

कोई नया विचार नहीं एक राष्ट्र एक चुनाव

'वन नेशन, वन इलेक्शन' का विचार कोई नया विचार नहीं है. यह कई बार चुनाव आयोग, विधि आयोग और संसदीय समितियों सहित विभिन्न संस्थाओं द्वारा उठाया जा चुका है. हालांकि बीजेपी ने एक कदम आगे बढ़ते हुए इस मुद्दे को अपने चुनावी घोषणा पत्र का हिस्सा बना लिया. लेकिन देखा जाए तो इसे लेकर अन्य राजनीतिक दलों के बीच आम सहमति बनी हुई है.

साल 1983 में, चुनाव आयोग ने पहली बार एक साथ चुनाव की व्यवहार्यता तलाशने का सुझाव दिया था. विधि आयोग ने भी साल 1999 में अपनी 170वीं रिपोर्ट में लोकसभा और सभी राज्य विधानसभाओं के चुनाव एक साथ कराने की वकालत की थी. इसके बाद साल 2015 में, एक संसदीय स्थायी समिति ने एक साथ चुनाव की व्यवहार्यता पर एक रिपोर्ट तैयार की, जिसमें कम लागत और बेहतर प्रशासनिक दक्षता जैसे संभावित लाभों पर प्रकाश डाला गया था.

इस रिपोर्ट में विपक्षी दलों द्वारा उठाई गई चिंताओं के बारे में भी विस्तार से बताया गया था. विपक्षी दलों ने संघवाद पर संभाविता प्रभाव का हवाला देते हुए, इसे मंजूरी न देने की सिफारिश की थी. समिति ने विधानसभाओं का कार्यकाल 170 दिनों तक बढ़ाने और कार्यकाल 599 दिनों तक कम करने का सुझाव दिया था. इसमें यह निष्कर्ष निकाला गया कि साल 2016 या एक दशक में भी एक साथ चुनाव कराना संभव नहीं हो सकता है.

साल 2017 में नीति आयोग ने एक चर्चा पत्र प्रकाशित किया, जिसमें एक साथ चुनावों की अवधारणा का विश्लेषण किया था. पेपर ने संभावित लागत बचत और प्रशासनिक लाभों के बारे में भी बताया था. लेकिन संघवाद और लोकतांत्रिक सुरक्षा उपायों के बारे में चिंताओं को दूर करने की आवश्यकता को भी स्वीकार किया. इसके बाद साल सितंबर में सरकार ने वन नेशन वन इलेक्शन के तरीके सुझाने के लिए एक समिति का गठन किया था.

बीजेपी का 'वन नेशन, वन इलेक्शन' के पक्ष में तर्क

बीजेपी लंबे समय से इस विचार के पक्ष में रही है. बीजेपी के वरिष्ठ नेता और पूर्व गृह मंत्री रहे लालकृष्ण आडवाणी ने भी इसका समर्थन किया था. सभी चुनावों के लिए एकल मतदाता सूची का संबंधित विचार भी लंबे समय से भाजपा के एजेंडे में रहा है. बीजेपी के सहयोगियों जैसे जद(यू), जद(एस), शिअद और बीजद ने भी इस विचार का स्वागत किया. हालांकि नेशनल कॉन्फ्रेंस ने इसे खारिज तो नहीं किया, लेकिन उसे इस पर आपत्ति है.

वन नेशन वन इलेक्शन के विचार के पीछे सबसे बड़ा तर्क यह है कि मौजूदा व्यवस्था के कारण देश लगातार चुनावी मोड में रहता है. कुछ राज्यों में, विधानसभा और आम चुनावों के अलावा, पंचायतों और स्थानीय निकायों के कई चुनावों आयोजित किया जाता है, जिसके चलते साल में 200-300 दिन तक चुनावों में बड़ा खर्च होता रहता है. चुनावों के चलते नेता जनता से संबंधित कर्तव्यों को पूरी तरह से निभा नहीं पाते हैं.

एक अन्य प्रमुख तर्क चुनावों पर अधिक खर्च है जो व्यापक भ्रष्टाचार का भी कारण बनता है. भारतीय उद्योग परिसंघ (सीआईआई) ने कोविंद के नेतृत्व वाली समिति को दी गई अपनी प्रस्तुति में 'एक राष्ट्र, एक चुनाव' की अवधारणा का पुरजोर समर्थन किया है. इसमें कहा गया है कि यद्यपि स्थानीय निकायों, राज्य और संसद के लिए समकालिक चुनाव एक चुनौती हो सकते हैं, लेकिन इससे लागत में बचत होगी और अर्थव्यवस्था को लाभ होगा.

वन नेशन वन इलेक्शन के विरोध में तर्क

मौजूदा समय में देश की सबसे बड़ी विपक्षी पार्टी कांग्रेस ने इस विचार को खारिज कर दिया है. लोकसभा में कांग्रेस के नेता अधीर रंजन चौधरी ने कोविंद के नेतृत्व वाली समिति से इस्तीफा दे दिया था, क्योंकि उनका आरोप था कि इस समिति का काम मुद्दे के पक्ष और विपक्ष का पता लगाना नहीं था बल्कि एक साथ चुनाव लागू करने के तरीके सुझाना था. टीएमसी, डीएमके और आप जैसी कई अन्य विपक्षी पार्टियों ने भी इस विचार का पुरजोर विरोध किया है.

इस विचार के ख़िलाफ़ मुख्य तर्क यह है कि यह क्षेत्रीय और स्थानीय चिंताओं को महत्व देगा. एक साथ होने वाले चुनावों में, स्थानीय और क्षेत्रीय मुद्दे राष्ट्रीय स्तर के बड़े मुद्दों से दब जायेंगे. इससे राजनीतिक विमर्श में एकरूपता आएगी और छोटी पार्टियों और राज्यों के लिए अपने विचार देश के सामने रखना मुश्किल हो जाएगा.

ETV Bharat Logo

Copyright © 2024 Ushodaya Enterprises Pvt. Ltd., All Rights Reserved.