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500 साल पहले शुरू हुई दुर्गा पूजा की यह परंपरा, चंद्रधुर्य राजघराना आज भी कर रहा फॉलो

अकबर के शासनकाल में शुरू हुई दुर्गा पूजा की परंपरा मलियारा राजपरिवार ने 500 वर्षों से फॉलो कर रहा है.

500 साल पहले शुरू हुई दुर्गा पूजा की यह परंपरा
500 साल पहले शुरू हुई दुर्गा पूजा की यह परंपरा (ETV Bharat)
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By ETV Bharat Hindi Team

Published : Oct 8, 2024, 4:08 PM IST

कोलकाता: मुगल साम्राज्य का इतिहास सभी जानते हैं. पश्चिम बंगाल के बांकुड़ा जिले का मलियारा का चंद्रधुर्य राजघराना आज भी अपनी दुर्गा पूजा के जरिए मुगल काल के इतिहास का गवाह बना हुआ है. यहां की दीवारों की हालत खस्ता है. छतों पर काई जमी है, ईंटें उखड़ी हुई हैं और बीच में कुछ खंभों वाला पूजा स्थल (ठाकुर दालान) है. जब यहां दुर्गा पूजा की शुरुआत हुई थी, उस समय दिल्ली पर मुगल बादशाह अकबर का शासन था.

बांकुड़ा के मलियारा के चंद्रधुर्य परिवार ने अकबर के तत्कालीन मंत्री मान सिंह की सहमति से अपना शासन शुरू किया था. विभिन्न पीढ़ियों में एक के बाद एक राजा राजगद्दी संभालते रहे, लेकिन दुर्गा पूजा 500 साल से उसी तरह होती रही.

बेशक पिछली शताब्दियों की तुलना में इसकी भव्यता में कमी आई है, लेकिन अभिजात्यता अभी भी बरकरार है. कन्नौज के ब्रक्षन देवधर चंद्रधुर्य ने इस महल के ठाकुर दालान की स्थापना की थी. तब से दशभुजा की पूजा धूमधाम से होती आ रही है.

कलाकार करते थे परफोर्म
एक समय था, दुर्गा पूजा के अवसर पर ठाकुर दालान में तरह-तरह के रंग-बिरंगे झूमर लटकाए जाते थे. देश के प्रसिद्ध गायक परफोर्म करने लिए लखनऊ और वाराणसी से आते थे. पूजा के कुछ दिनों तक ठाकुर दलान परिसर में नाच-गाना चलता रहा. शुभ संधि पूजा (महाष्टमी और महानवमी के मिलन पर होने वाली पूजा) गीत-वादन और तोप-फायर के साथ शुरू होती. हालांकि, अब इस बात को लगभग 500 साल बीत चुके हैं और समय बीतने के साथ राजबाड़ी का रंग भी फीका पड़ गया है.

कई परंपराएं खत्म
हालांकि, पहले की कुछ परंपराओं को खत्म कर दिया गया है, लेकिन ठाकुर दलान ने देवी दुर्गा की पूजा के अवसर पर नियमों के अनुसार सजाई जाने वाली भव्यता को बरकरार रखा है. इस विशेष पूजा में कई विशेष अनुष्ठान होते हैं. देवी की पूजा महालया (देवी पक्ष की शुरुआत) से शुरू होती है और बिजॉय दशमी (दशहरा) तक जारी रहती है.

सातवें दिन (महा सप्तमी) देवी के पवित्र स्नान से लेकर नौवें दिन (महा नवमी) तक होम कुंड को उसी तरह से जलाया जाता है। परिवार के सदस्यों का कहना है कि यहां देवी सरस्वती, लक्ष्मी के अलावा शेर पर सवार देवी की ही पूजा की जाती है. राजपरिवार के वंशज जो भी भव्यता बची है, उसे संभाले हुए हैं.

यह भी पढ़ें- कौन हैं देवेंद्र कादियान? हरियाणा चुनाव में गन्नौर से बढ़ाई बढ़त, BJP से की थी बगावत

कोलकाता: मुगल साम्राज्य का इतिहास सभी जानते हैं. पश्चिम बंगाल के बांकुड़ा जिले का मलियारा का चंद्रधुर्य राजघराना आज भी अपनी दुर्गा पूजा के जरिए मुगल काल के इतिहास का गवाह बना हुआ है. यहां की दीवारों की हालत खस्ता है. छतों पर काई जमी है, ईंटें उखड़ी हुई हैं और बीच में कुछ खंभों वाला पूजा स्थल (ठाकुर दालान) है. जब यहां दुर्गा पूजा की शुरुआत हुई थी, उस समय दिल्ली पर मुगल बादशाह अकबर का शासन था.

बांकुड़ा के मलियारा के चंद्रधुर्य परिवार ने अकबर के तत्कालीन मंत्री मान सिंह की सहमति से अपना शासन शुरू किया था. विभिन्न पीढ़ियों में एक के बाद एक राजा राजगद्दी संभालते रहे, लेकिन दुर्गा पूजा 500 साल से उसी तरह होती रही.

बेशक पिछली शताब्दियों की तुलना में इसकी भव्यता में कमी आई है, लेकिन अभिजात्यता अभी भी बरकरार है. कन्नौज के ब्रक्षन देवधर चंद्रधुर्य ने इस महल के ठाकुर दालान की स्थापना की थी. तब से दशभुजा की पूजा धूमधाम से होती आ रही है.

कलाकार करते थे परफोर्म
एक समय था, दुर्गा पूजा के अवसर पर ठाकुर दालान में तरह-तरह के रंग-बिरंगे झूमर लटकाए जाते थे. देश के प्रसिद्ध गायक परफोर्म करने लिए लखनऊ और वाराणसी से आते थे. पूजा के कुछ दिनों तक ठाकुर दलान परिसर में नाच-गाना चलता रहा. शुभ संधि पूजा (महाष्टमी और महानवमी के मिलन पर होने वाली पूजा) गीत-वादन और तोप-फायर के साथ शुरू होती. हालांकि, अब इस बात को लगभग 500 साल बीत चुके हैं और समय बीतने के साथ राजबाड़ी का रंग भी फीका पड़ गया है.

कई परंपराएं खत्म
हालांकि, पहले की कुछ परंपराओं को खत्म कर दिया गया है, लेकिन ठाकुर दलान ने देवी दुर्गा की पूजा के अवसर पर नियमों के अनुसार सजाई जाने वाली भव्यता को बरकरार रखा है. इस विशेष पूजा में कई विशेष अनुष्ठान होते हैं. देवी की पूजा महालया (देवी पक्ष की शुरुआत) से शुरू होती है और बिजॉय दशमी (दशहरा) तक जारी रहती है.

सातवें दिन (महा सप्तमी) देवी के पवित्र स्नान से लेकर नौवें दिन (महा नवमी) तक होम कुंड को उसी तरह से जलाया जाता है। परिवार के सदस्यों का कहना है कि यहां देवी सरस्वती, लक्ष्मी के अलावा शेर पर सवार देवी की ही पूजा की जाती है. राजपरिवार के वंशज जो भी भव्यता बची है, उसे संभाले हुए हैं.

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