पटना : जब भी चुनाव के परिणाम आते हैं तो हर पार्टी की समीक्षा की जाती है. इसमें कोई दो राय नहीं है कि आरजेडी ने 2019 के मुकाबले 2024 में लंबी छलांग लगाई है. 2019 के 15.68 प्रतिशत से बढ़कर वोट का ग्राफ 2024 लोकसभा चुनाव में 22.14 तक पहुंच गया है. 6.46 प्रतिशत का इजाफा हुआ है. वोट प्रतिशत के हिसाब से देखें तो आरजेडी बिहार की सबसे बड़ी पार्टी है. 0 से 4 सांसद तक का सफर तय किया है. लेकिन जब पिछला आंकड़ा देखा जाता है तो सवाल उठता है कि लालू यादव का वो दौर कब वापस आएगा?
5 के आंकड़े को नहीं छू पा रही RJD : दरअसल, राजद की स्थापना से लेकर अब तक पार्टी अनेक उतार चढ़ाव देख चुकी है. स्थापना से लेकर अब तक के कार्यकाल में 2004 लोकसभा चुनाव का परिणाम राजद के लिए सबसे अच्छा रहा. राजद के 22 सांसद चुनकर सदन में पहुंचे थे. 2004 के बाद अभी तक आरजेडी अभी तक डबल डिजिट में नहीं पहुंची है. 5 के आंकड़े को भी नहीं छू पायी है.
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राजद को लेकर क्या कहते हैं विश्लेषक? : वरिष्ठ राजनीतिक विश्लेषक प्रो. नवल किशोर चौधरी का कहना है कि 2004 के बाद बिहार की राजनीति में बड़ा बदलाव आया. सत्ता प्राप्ति करने के लिए जो जाति समीकरण बनाए गए थे उसमें बदलाव आया. सामाजिक न्याय को लेकर लालू प्रसाद यादव और राबड़ी देवी बिहार की सत्ता में काबिज हुए. पिछड़ा अति पिछड़ा एवं अल्पसंख्यक वोट लालू प्रसाद यादव के पक्ष में खड़ा रहा. यह समीकरण देश में मंडल राजनीति का परिणाम था.
''लालू प्रसाद यादव के शासनकाल में दो बहुत बड़ी कमी देखने को मिली. सुशासन एवं लॉ एंड ऑर्डर की कमी थी. इसी कमी को नीतीश कुमार ने मुद्दा बनाया. नीतीश कुमार के नेतृत्व में बीजेपी के सहयोग से जब बिहार में एनडीए की सरकार बनी, तब नीतीश कुमार ने सुशासन और लॉ एंड ऑर्डर पर विशेष ध्यान दिया. नीतीश कुमार ने लालू प्रसाद यादव के वोट बैंक में भी सेंध लगाने का काम किया.''- प्रो. नवल किशोर चौधरी, राजनीतिक विश्लेषक
'धीरे-धीरे लालू यादव कमजोर होते गए' : प्रो. नवल किशोर चौधरी का कहना है कि नीतीश कुमार ने पिछड़ा और अति पिछड़ा दलित और महादलित को अलग करके एक नया वोट बैंक अपने पक्ष में बनाने का काम किया. नीतीश कुमार ने बिहार में पिछड़ा वर्ग को लेकर एक ऐसा राजनीतिक समीकरण बनाया जिसमें वैसे अनेक जाति एक साथ हुए जो यादवों के राजनीतिक दबाव से अलग होना चाहते थे. शासन के नाम पर उच्च जाति के लोग पहले से ही लालू प्रसाद यादव से अलग थे. एक बहुत बड़ा राजनीतिक तबका नीतीश कुमार और बीजेपी के साथ चली गई. यही कारण है कि राजनीति में धीरे-धीरे लालू यादव कमजोर होते गए. बिहार के परिपेक्ष में अभी भी आरजेडी का जनाधार है लेकिन देश के परिपेक्ष में उसकी उपस्थिति धीरे-धीरे कम होती गई.
वोट अच्छे पर परिणाम नहीं : वैसे 2024 के परिणाम को देखें तो लोगों का कहना है कि आरजेडी अपने वोट बैंक को सांसदों की संख्या में कन्वर्ट नहीं करा पायी. यही नहीं कुछ लोगों का तो यहां तक मानना है कि आरजेडी ने अपने वोट को गठबंधन के प्रत्याशियों तक ट्रांसफर करवाया, पर ऐसा उसके साथ नहीं हुआ. वरना 4 का आंकड़ा बढ़ जाता.
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लालू यादव का वो दौर : अब आपको जरा पीछे लिए चलते हैं. 1990 में पहली बार लालू प्रसाद यादव के नेतृत्व में बिहार में जनता दल की सरकार बनी थी. लालू प्रसाद यादव बिहार के मुख्यमंत्री बने. पूरे बिहार में मंडल की राजनीति जोर पकड़ने लगी. लालू प्रसाद यादव ने पिछड़ा एवं अति पिछड़ा को अपने साथ गोलबंद किया. लालू प्रसाद यादव के साथ बिहार की बड़ी आबादी यादव और मुसलमान एक साथ खड़ी रही. यही कारण है कि 15 वर्षों तक बिहार की राजनीति पर लालू प्रसाद यादव का एकछत्र राज रहा. लालू यादव को लोग मंडल मसीह के रूप में लोग जानने लगे.
कब हुआ आरजेडी का गठन? : बिहार के तत्कालीन मुख्यमंत्री लालू प्रसाद यादव के नेतृत्व में आरजेडी का गठन 5 जुलाई 1997 को हुआ था. राष्ट्रीय जनता दल (राजद) की स्थापना दिल्ली में की गई थी. स्थापना के समय लालू प्रसाद यादव के नेतृत्व में रघुवंश प्रसाद सिंह, कांति सिंह समेत 17 लोकसभा सांसद और 8 राज्यसभा सांसदों ने पार्टी की स्थापना की थी. बड़ी तादाद में कार्यकर्ता और नेताओं ने लालू प्रसाद यादव को पार्टी का अध्यक्ष चुना. 1997 से लेकर आज तक लालू प्रसाद पार्टी के राष्ट्रीय अध्यक्ष पद हैं.
लालू यादव का मूल जनाधार : बिहार की सत्ता में आने के बाद लालू प्रसाद यादव ने अति पिछड़ों, दलितों और आम गरीबों में भी अपना आधार बनाया. राजद के बारे में धारना है कि माई समीकरण (यादव-14 फीसदी और मुस्लिम 16 फीसदी) के कुल 30 फीसदी वोट पर लालू अकेले राज करते हैं. यही वजह थी कि राजद स्थापना काल से ही इनके बलबूते चुनावों में कमोबेश प्रदर्शन करती रही थी. लालू का पहली बार सत्ता में आना पिछड़ों में स्वाभिमान और मुसलमानों में सुरक्षा का ठोस भाव जगाने के लिए बताया गया.
नीतीश कुमार का प्रभाव बढ़ा : बिहार की राजनीति में लालू प्रसाद यादव और नीतीश कुमार के बीच दूरी बढ़ने लगी. लालू प्रसाद यादव से अलग होकर नीतीश कुमार ने समता पार्टी की स्थापना की. राज्य की राजनीति में नीतीश कुमार के उभरने और जनता दल में टूट से कुर्मी वोट अलग होने से भी फर्क पड़ा. नीतीश के इस कुर्मी आधार और रामविलास पासवान के साथ दुसाध वोटों के भाजपा के संग जुड़ने से फर्क पड़ा और इसी के चलते 1999 के लोकसभा चुनाव में लालू प्रसाद को नुकसान उठाना पड़ा. उसके बाद से बिहार की राजनीति ने करवट ली.
दो खेमों में बंटा बिहार : बिहार की राजनीति दो खेमों में बंट चुका है. अगड़ी जातियां नीतीश कुमार का लवकुश समीकरण और ईबीसी किसी भी कीमत पर लालू यादव के खिलाफ गोलबंद होती है. जबकि मुस्लिम-यादव वोट बैंक राजद का समर्थन करता है. लालू का समर्थन जैसे-जैसे अन्य पिछड़ों और गरीबों में कम होता गया लालू प्रसाद की राजनीति में धीरे धीरे कमजोर होते गए.
यादव नेता की अनदेखी! लालू प्रसाद यादव और अब उनके पुत्र तेजस्वी प्रसाद यादव बिहार की राजनीति में अभी भी यादव के सबसे बड़े नेता हैं. यादव और मुस्लिम समीकरण पर अभी भी आरजेडी का प्रभाव दिखता है, लेकिन पिछले कई वर्षों में अनेक यादव के बड़े नेता धीरे-धीरे लालू प्रसाद यादव से दूर होते गए. सबसे पहले नीतीश कुमार के साथ विजेंद्र प्रसाद यादव ने लालू का साथ छोड़ा.
कई नेताओं ने छोड़ा लालू का साथ : कई बड़े यादव नेता आरजेडी से धीरे-धीरे अलग होने लगे. जिनका अपने क्षेत्र में व्यापक प्रभाव है. रामकृपाल यादव, दिनेश चंद्र यादव, नवल किशोर यादव, पप्पू यादव, देवेंद्र प्रसाद यादव सरीखे दर्जनों नेताओं ने राजद से अपनी दूरी बना ली. जिसका नुकसान आरजेडी को उठाना पड़ रहा है.
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