श्रीनगर: उत्तराखंड देश विदेश में अपनी जैव विविधता के लिए जाना जाता है. यहां अनेक प्रकार की जड़ी बूटी से लेकर अनेक प्रकार के अनाजों का उत्पादन किया जाता है. इस उत्पादन की सबसे बड़ी खूबी ये होती है कि ये सभी चीजें प्राकृतिक और ऑर्गेनिक रूप से उगाई जाती हैं. बदलते वक्त के साथ अब उत्तराखंड के ऑर्गेनिक उत्पादन पर मानों किसी की नजर सी लग गई है. उत्तराखंड के एक मात्र केंद्रीय विवि और गोविंद बल्लभ पंत विश्व विद्यालय के शोध में पता चला है कि उत्तराखंड में उगाए जाने वाले 23 प्रकार के मोटे अनाजों से अब केवल 10 ही फसलें बची हैं. बाकी 13 विलुप्ति की कगार पर हैं. हालात ये हैं कि मोटे अनाज के उत्पादन में 50 प्रतिशत की कमी आई है. ये कमी सरकार और नीति नियंताओं के चिंता का विषय है.
गढ़वाल केन्द्रीय विवि के वैज्ञानिकों द्वारा जिसमें विवि का अर्थशास्त्र विभाग, हेप्रेक विभाग, गृह विज्ञान विभाग और जीबी पंत विवि के संयुक्त शोध में मोटे अनाज की पैदावार को लेकर रिसर्च किया गया. शोध में उत्तराखंड के दो जिले चमोली, चम्पावत के 3000 कृषकों को लिया गया. शोध करने पर चौंकाने वाले तथ्य सामने आए हैं. कभी 2 लाख हेक्टेयर पर की जाने वाली मोटे अनाज की खेती अब सिमट कर 1 लाख हेक्टेयर ही बची है. इसके पीछे वैज्ञानिक पलायन ,जंगली जानवर, बंदर, सुअरों, जंगली भालू का आतंक, ग्लोबल वॉर्मिग को मान रहे हैं. हालात ये हैं कि कभी 23 प्रकार के मोटे अनाज की खेती इन दोनों जनपदों में अब घट कर 10 प्रकार पर आ कर सिमट गई है.
गढ़वाल केन्द्रीय विवि के अर्थशास्त्र विभाग के वरिष्ठ प्रोफेसर महेश सती बताते हैं कि अगर आगामी 2030 पर मोटे अनाज पर कार्य नहीं किया गया, तो मंडुवा, झंगोरा, चौलाई की खेती 1 लाख 20 हज़ार हेक्टेयर से घट कर 73 हज़ार हेक्टेयर तक ही सीमित रह जायेगी. उन्होंने कहा चिंडा, फाफर, कोंडी, ऊवा जौ, भांगड़ा, उगल, राम दाना विलुप्ति की कगार पर पहुंच जाएंगे. रुद्रप्रयाग जनपद की रहने वाली कृषक संतोषी नेगी बताती हैं कि मौसम की मार और जंगली जानवर खेतों को तबाह कर रहे हैं. जब कभी पैदावार अच्छी होती है तो जंगली जानवर खेती को बर्बाद कर देते हैं.