पटना : भले आरक्षण की आग में पड़ोसी देश बांग्लादेश चल रहा हो लेकिन, पड़ोसी देश के इस आंदोलन से भारत या फिर बिहार अछूता नहीं है. भले बांग्लादेश से बिहार का रोटी-बेटी का संबंध नहीं रहा हो लेकिन, बांग्लादेश से संबंध इतना गहरा है कि उसे नकारा नहीं जा सकता है. यह संबंध बहुत पुराना भी नहीं है.
बांग्लादेश में 7.5 लाख बिहारी मुसलमान : यदि वक्त के तराजू पर इस संबंध को तौला जाए तो महज पांच दशक पहले जो बिहारी मुसलमान बांग्लादेश गए थे, उनकी स्थिति आज बेहतर नहीं कहीं जा सकती है. समूचे बांग्लादेश में लगभग 7.5 लाख बिहारी मुसलमान रहते हैं. बिहारी मुसलमान कहने का मतलब यह है कि वह मुसलमान जो उर्दू भाषी हैं, जिनकी भाषा उर्दू है, ना कि बांग्ला है.
जब 'बांग्लादेश' अस्तित्व में आया : अब थोड़ा आपको पीछे लिए चलते हैं. दरअसल, जब भारत और पाकिस्तान का बंटवारा हुआ तो उस समय पूर्वी और पश्चिमी पाकिस्तान बनाया गया. यह पूर्वी और पश्चिमी पाकिस्तान एक दूसरे से बिल्कुल अलग थे. बीच में भारत था. 1971 में जब तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी के समय पाकिस्तान के साथ युद्ध में भारत ने विजय हासिल की थी तो उस समय पूर्वी पाकिस्तान को अलग कर दिया गया और पश्चिमी पाकिस्तान को अलग कर दिया गया. पूर्वी पाकिस्तान को नया नाम दिया गया 'बांग्लादेश'.
क्यों गए बिहारी? : बांग्लादेश को भाषा के आधार पर बांटा गया था. बांग्लादेश में बंगाली मुसलमान की तादाद अच्छी खासी है. एक रिपोर्ट के मुताबिक बांग्लादेश दुनिया का आठवां सबसे बड़ा जनसंख्या वाला देश है. ऐसे में भारत-पाकिस्तान की बंटवारे में जो मुसलमान पाकिस्तान जाना चाह रहे थे. उसमें बिहारी मुसलमानों ने पश्चिमी पाकिस्तान के बजाय पूर्वी पाकिस्तान में शरण लिया. ऐसा इसलिए हुआ क्योंकि पूर्वी पाकिस्तान बिहार से काफी नजदीक था. कोलकाता से ढाका महज 300 किलोमीटर की दूरी पर है. ऐसे में बिहार, उत्तर प्रदेश सहित आसपास के राज्यों से जो मुसलमान पाकिस्तान में बसाना चाह रहे थे वह वहां चले गए.
कैंप में रहते हैं बिहारी मुसलमान : जब बांग्लादेश भाषा के आधार पर बना तो इन मुसलमानों की स्थिति खराब होती गई. क्योंकि उर्दू भाषी मुसलमान मजहब, तहजीब और भाषा को लेकर बहुत सजग रहते हैं. ऐसे में इन्होंने बांग्लादेश के मुसलमान के साथ घुलना-मिलना बहुत पसंद नहीं किया. अदावत यहीं से शुरू हो गई. स्थिति बिगड़ने लगी. बाद के समय में तो उर्दू भाषी मुसलमानों के लिए बांग्लादेश में ना तो रहने का ठिकाना बना और ना ही रोजगार की कोई व्यवस्था थी.
'अटका बाड़ो पाकिस्तानी' : स्थिति ऐसी हो गई की बिहारी मुसलमान को 1971 से अपना गुजारा कैंप में करना पड़ रहा है. बांग्लादेश के मुसलमान उर्दू भाषी मुसलमान को 'अटका बाड़ो पाकिस्तानी' कहकर संबोधित करते हैं. इसका मतलब यह हुआ कि ना तो वह पाकिस्तान के रहने वाले हैं और ना ही बांग्लादेश के रहने वाले हैं. यह अटके हुए पाकिस्तानी हैं. जिसका कोई ठिकाना नहीं है.
जमीन लेने का भी हक नहीं : बंटवारे के बाद मुंगेर से गए रियाजुद्दीन का जन्म बांग्लादेश में ही हुआ था. उनके वालिद बांग्लादेश गए. उसके बाद उनका जन्म हुआ. उम्र के 65 बसंत देख चुके रियाजुद्दीन को बांग्लादेश का पहचान पत्र 2015 में बनकर मिला. रियाजुद्दीन बताते हैं कि उनके वालिद बंटवारे के समय बिहार के मुंगेर से पूर्वी पाकिस्तान में आए थे. जहां उनका जन्म हुआ.
''सब कुछ ठीक-ठाक चल रहा था लेकिन, 1971 के बाद स्थिति खराब होती गई. अब ना तो हम पाकिस्तान जा सकते हैं और ना ही बांग्लादेश ने हमें पूरी तरह से अपनाया है. हमारे साथ दोयम दर्जे का व्यवहार किया जाता है. भले यहां सभी मुसलमान हैं लेकिन हम लोगों को अटका पड़ा पाकिस्तानी कहा जाता है. पिछले 65 सालों से किराए के मकान में रहते हैं. छोटी सी दुकान चला रहे हैं. चार बच्चे हैं लेकिन, सरकार की तरफ से बहुत सुविधा नहीं मिलती है. यहां शिक्षा में उर्दू नहीं पढ़ाई जाती है. भाषा को लेकर यहां भेद भाव होता है.''- रियाजुद्दीन, बिहारी मुस्लिम
'उर्दू नहीं पढ़ाई जाती' : बांग्लादेश में रहने वाले मोहम्मद जाबादुल्लाह मुशर्फी बताते हैं कि वह पटना के रहने वाले हैं. अभी जो भारत में नरेंद्र मोदी की सरकार चल रही है, वह बेहतर है. पड़ोसी देश है अच्छा लगता है, वहां सब कुछ बेहतर हो रहा है. यहां नौकरी को लेकर बहुत परेशानी है. सरकारी नौकरी (गवर्नमेंट जॉब) नहीं मिलती है. बिहार मुसलमान को नौकरी नहीं दी जाती है. यहां बांग्ला, इंग्लिश, अरबी पढ़ाई जाती है, उर्दू नहीं पढ़ाई जाती है.
''यहां ज्यादातर लोग रिफ्यूजी कैंप में रहते हैं. रिफ्यूजी कैंप को भी स्थाई तौर पर बना दिया गया है. महज 10 फीट के कमरे में छह लोगों का परिवार साथ-साथ रहता है. इन्हें अपना प्रॉपर्टी लेने का अधिकार नहीं है. दरअसल, इनका अपना पहचान पत्र ही नहीं मिला है, तो ऐसे में यह लोग रिफ्यूजी की तरह अपना जीवन व्यतीत कर रहे हैं.''- मोहम्मद जाबादुल्लाह मुशर्फी, बिहारी मुस्लिम
2008 में मिला वोट देने का अधिकार : ऐसा नहीं है कि बिहार मुसलमान या फिर उर्दू भाषा मुसलमान के अधिकार के लिए बांग्लादेश में आंदोलन नहीं हो रहे हैं. इसको लेकर उर्दू स्पीकिंग पीपल्स यूथ रिहैबिलिटेशन मूवमेंट चलाया जा रहा है. इसी संस्थान ने बांग्लादेश के हाईकोर्ट में एक रिट याचिका दायर करके अधिकार की मांग की थी. उसके बाद 2008 में बांग्लादेश हाई कोर्ट ने सबसे बड़ा फैसला सुनाते हुए बिहारी मुसलमान को बांग्लादेश की नागरिकता और वोटिंग देने का राइट दिया. इसके बावजूद भी वहां की स्थिति बदली नहीं है.
बिहार के कई जिलों के मुस्लिम बसे हैं : बांग्लादेश के मीरपुर जैसे इलाकों में 39 ऐसे कैंप है जहां बिहारी मुसलमान रहते हैं. यह सभी बिहार के बेगूसराय, मुंगेर, पटना, गया, छपरा, दरभंगा, भागलपुर सहित कई इलाकों से जाकर पाकिस्तान में बसे थे. हालांकि, बाद में जब बांग्लादेश बना तो उनकी स्थिति बद से बदतर होती गई.
'शेख हसीना का सॉफ्ट कार्नर दिखा' : किशनगंज के वरिष्ठ पत्रकार शक्ति प्रसाद ज्वारदार बताते हैं कि जो स्थिति वहां उत्पन्न हुई है वह तत्काल कारणों से नहीं हुई है. इसका बीजारोपण पहले से होता गया है. उसके बाद यह आग बना है. वह बताते हैं कि जिस तरह से शेख हसीना की सरकार लिबरल होती जा रही थी और लगातार हिंदुओं के प्रति और उर्दू स्पीकिंग मुसलमान के प्रति उनका सॉफ्टनेस बढ़ता जा रहा था. जो कट्टरपंथी मुसलमान थे, उन्हें यह रास नहीं आ रहा था. ऐसे में भले बहाना आरक्षण का हो लेकिन, अंदर ही अंदर आग सुलग रही थी और स्थिति यह हो गई कि शेख हसीना को बांग्लादेश छोड़ना पड़ा, इस्तीफा देना पड़ा.
''जो बिहारी मुसलमान बांग्लादेश में जाकर बसे हैं. उनकी स्थिति ना पहले अच्छी थी ना अब अच्छी है. उनको मुजाहिद कहा जाता है, उनको अटका पड़ा पाकिस्तानी कहा जाता है. उन्हें नौकरी नहीं दी जाती है. उनके साथ कोई शादी नहीं करना चाहता है. अब ऐसे लोग भारत में आना चाहते हैं. बॉर्डर की रिपोर्ट के मुताबिक, नो मैन लैंड पर बांग्लादेश के लाखों ऐसे बिहारी मुसलमान आये हुए थे, जो हाल के समय बिहार या हिंदुस्तान में आना चाहते हैं. हालांकि बीएसएफ ने उन्हें रोक दिया है और उस पूरे इलाके को खाली कर दिया गया है. लाखों की संख्या में ऐसे मुसलमान है जो भारत में अपना शरण लेना चाहते हैं.''- शक्ति प्रसाद ज्वारदार, वरिष्ठ पत्रकार
'1971 से चल रहा संघर्ष' : पटना के वरिष्ठ पत्रकार इमरान खान बताते हैं है कि कट्टरपंत हमेशा के लिए घातक ही साबित हुआ है. यह जो बांग्लादेश में आग पनपी है, इसकी सबसे बड़ी वजह वहां के कट्टर पंथी लोग हैं. यह संघर्ष अंदर ही अंदर बहुत सालों से चला आ रहा है. या यूं कहें 1971 से यह संघर्ष चलता रहा है. शेख हसीना का लिबरल माइंडसेट की शासक रही है. ऐसे में उन्हें और उनके शासन को कट्टरपंथी पसंद नहीं कर रहे थे और स्थिति आज भयावह हो गई है.
''हमारे कई ऐसे रिश्तेदार अभी भी बांग्लादेश में रहते हैं. हालांकि अब कुछ लोगों को वहां के लोगों ने जरूर अपना लिया है लेकिन, जो रिपोर्ट है उसमें उनकी बहुत सही स्थिति नहीं है. हमारे कुछ रिश्तेदार और जानने वाले ऐसे लोग हैं जो 1947 में पाकिस्तान तो जरूर गए थे लेकिन, 1971 के समय वह भारत वापस आ गए. वह पाकिस्तान के काफी अमीर लोग हुआ करते थे लेकिन, भारत में जब आए तो उन्होंने अपने आप को फिर से खड़ा किया. आज गया और आसपास के इलाकों में वह सुकून से रहते हैं.''- इमरान खान, वरिष्ठ पत्रकार
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