भोपाल: राजधानी में साल 1984 के दिसंबर में हुई गैस त्रासदी को भले ही 40 साल बीत चुके हैं, लेकिन इतने सालों बाद भी गैस पीड़ित परिवारों के आर्थिक और सामाजिक जीवन में कोई विशेष अंतर नहीं आया है. जेपी नगर स्थित यूनियन कार्बाइड की जिस फैक्ट्री में भीषण हादसा हुआ था, उसके आसपास की बस्तियों के लोग बेरोजगारी और जन्मजात बीमारियों से ग्रसित हैं. शासन द्वारा चलाई जा रही योजनाओं का लाभ भी इन परिवारों को ठीक से नहीं मिल पा रहा है.
इनके बीच यूनियन कार्बाइड कारखाने से महज 4 किलोमीटर दूरी पर बसी उड़िया बस्ती का एक स्कूल इन परिवारों में रंग भरने की कोशिश कर रहा है. जो अभावग्रस्त बच्चों को प्राथमिक शिक्षा देकर उच्च शिक्षा के लिए मार्ग प्रशस्त कर रहा है. ये स्कूल ऐसे बच्चों के सहयोग से संचालित हो रही है, जो इस स्कूल में पहले पढ़ाई कर चुके हैं और अब कहीं और नौकरी कर रहे हैं.
आपदा में उम्मीद की किरण बना स्कूल
उड़िया बस्ती में पहुंचते ही सड़क के किनारे एक टीनशेड और ईंट की दीवारों का एक जर्जर भवन है. यहां तक पहुंचने के लिए बच्चों को सड़क के कीचड़ को पार करना होता है. एक कमरे के इस स्कूल में प्रवेश करते ही दीवार पर एक फोटो लगी है. जब ईटीवी भारत की टीम ने स्कूल के बच्चों से पूछा कि ये कौन हैं, तो स्कूल के सारे बच्चे एक स्वर में कहते हैं कि ये गंगाराम दादा हैं. बच्चे बड़े प्यार से गंगाराम दादा के बारे में बताते हैं.
गंगाराम बीड़कर ने की थी स्कूल की शुरुआत
इस स्कूल की टीचर त्रिवेणी सोनानी से बात की तो उन्होंने बताया कि "गंगाराम बीड़कर उड़िया बस्ती में ही रहते थे. गैस त्रासदी के बाद उन्होंने इस स्कूल की शुरूआत की थी. उनका सपना था कि इस स्कूल के माध्यम से बस्ती के बच्चे प्राथमिक शिक्षा ग्रहणकर अपना भविष्य सुरक्षित कर सकेंगे. इसलिए जब तक गंगाराम दादा थे, वो बस्ती के बच्चों को पकड़-पकड़कर स्कूल ले आते थे. बच्चों के माता-पिता की काउंसलिंग कर उनके स्वास्थ्य और शिक्षा को बेहतर बनाने के लिए प्रेरित करते थे. बस्ती के लोग उन्हें बड़ा सम्मान देते थे. लेकिन साल 2019 में गंगाराम दादा की मृत्यु हो गई.
300-300 रुपये जोड़कर उठाते हैं खर्च
उड़िया बस्ती के इस स्कूल में बच्चों के बैठने के लिए टेबल और मेज समाजसेवियों ने दान की है. इसके साथ ही यहां बच्चों को पढ़ाने के लिए पुस्तकों की व्यवस्था भी पूर्व छात्र करते हैं. वहीं स्कूल के संचालन में हर महीने 3 से 4 हजार रुपये का खर्च होता है, जो पूर्व छात्र अपनी कमाई से देते हैं. बता दें कि इस स्कूल से निकले करीब 20 छात्र-छात्राएं अब रोजगार से जुड़ गए हैं. वो अपनी बचत में से 300-300 रुपये इकठ्ठा कर स्कूल को डोनेट करते हैं.
स्कूल की शिक्षिका त्रिवेणी सोनानी ने बताया कि "पूर्व छात्र भी बड़ी मेहनत से पढ़ाई कर मुकाम तक पहुंचे हैं. पहले उनके पास पैरों में पहनने के लिए जूते-चप्पल नहीं होते थे. यूनिफॉर्म और किताबें तो दूर की बात है. इसलिए अब ये दूसरे बच्चों की पढ़ाई में भी मदद कर रहे हैं."
बच्चों के पास जूते-चप्पल और यूनिफॉर्म भी नहीं
शिक्षिका त्रिवेणी सोनानी बताती हैं कि इस स्कूल में करीब 40 बच्चे पढ़ते हैं. ये अधिकतर उड़िया कम्यूनिटी से हैं. इन बच्चों के माता-पिता दोनों सुबह से मजदूरी करने निकल जाते हैं, लेकिन जरुरी नहीं कि उनको रोज काम मिले. ऐसे में ये परिवार बेहद गरीबी में जीवन यापन कर रहे हैं. गैस पीड़ित इन परिवारों के पास बच्चों के जूते-चप्पल और यूनिफॉर्म समेत अन्य शैक्षणिक सामग्री खरीदने के पैसे भी नहीं होते हैं. ऐसे में बच्चे नंगे पांव स्कूल आते हैं. स्कूल टीचर ही किताबों की व्यवस्था कर बच्चों को पढ़ाती हैं."
मदद नहीं मिलने से बिगड़ी व्यवस्था
बता दें कि इस स्कूल के संचालन का पूर्व छात्रों द्वारा की गई मदद और भोपाल गैस त्रासदी को लेकर प्रकाशित पुस्तक फाइव पास्ट मिडनाइट इन भोपाल से मिली रायल्टी से चलता था. लेकिन अब इस पुस्तक के लेखक डोमिनिक लैपियर की मृत्यु के बाद रायल्टी के पैसे मिलना भी बंद हो गए. ऐसे में पूर्व छात्रों द्वारा दी गई सहायता राशि से ही इस स्कूल का संचालन किया जा रहा है. हालांकि कुछ लोग कभी कभार आर्थिक मदद कर देते हैं, जिससे स्कूल का संचालन संभव हो रहा है.
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मजदूर मां-बाप की बेटी कर रही इंजीनियरिंग की पढ़ाई
बस्ती के लोगों ने बताया कि यहां करीब 40 सालों से अनौपचारिक शिक्षा के लिए स्कूल का संचालन हो रहा है. अब तक इस स्कूल में 500 से अधिक बच्चे पढ़ाई कर चुके हैं. उड़िया बस्ती का यह स्कूल चौथी कक्षा तक है. इसके बाद 5वीं कक्षा में बच्चों का एडमिशन सरकारी स्कूलों में करा दिया जाता है.
इस स्कूल से पढ़ी हुई छात्रा रिंकी ने बताया कि "उसके माता-पिता मजदूरी करते थे. उनके पास स्कूल में पढ़ाने के पैसे नहीं थे. ऐसे में उसने इसी स्कूल से पढ़ाई की. आगे की पढ़ाई उसने सरकारी स्कूल से की. अच्छे नंबर लाने पर प्रोत्साहन भी मिला. अब वह भोपाल के प्रतिष्ठित कालेज एलएनसीटी से मैकेनिकल इंजीनियरिंग की पढ़ाई कर रही है. उसका यह तीसरा साल है." इसके साथ ही कई अन्य बच्चे भी हैं, जो इस स्कूल से पढ़ने के बाद नर्सिंग, मार्केटिंग और अन्य प्राइवेट सेक्टर में काम कर रहे हैं.