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उत्तर प्रदेश को चार बार मुख्यमंत्री देने वाली बहुजन समाज पार्टी आखिर क्यों है हाशिए पर? - बहुजन समाज पार्टी

बहुजन समाज पार्टी ने 2007 के विधानसभा चुनाव में 206 सीटें जीती (Bahujan Samaj Party) थीं. बसपा सुप्रीमो की एक सख्त प्रशासक की छवि थी. भ्रष्टाचार व अन्य प्रकरणों के कारण मायावती ने कई नेताओं को बर्खास्त भी किया. फिर भी यूपी को चार बार मुख्यमंत्री देने वाली बहुजन समाज पार्टी आखिर क्यों है हाशिए पर?

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By ETV Bharat Uttar Pradesh Team

Published : Feb 28, 2024, 7:02 PM IST

लखनऊ : उत्तर प्रदेश की राजनीति ने तमाम उलटफेर देखे हैं. कभी जो दल सत्ता के शीर्ष पर थे, आज रसातल में पहुंच गए हैं. ऐसी पार्टियों में एक है बहुजन समाज पार्टी. जिस पार्टी ने प्रदेश को चार बार मुख्यमंत्री दिया, वह आज हाशिए पर है. यह तब है, जबकि बसपा का एक ऐसा खास वोट बैंक माना जाता था, जिसके बारे में कहा जाता था कि चाहे दुनिया इधर से उधर हो जाए, लेकिन बसपा का वोटर सिर्फ मायावती के साथ ही रहेगा. आखिर एक दशक में ऐसा क्या हो गया कि 2007 में पूर्ण बहुमत की सरकार बनाने वाली बसपा पिछले विधानसभा चुनाव में बमुश्किल सिर्फ एक सीट जीतने में कामयाब हो पाई?

चार बार मुख्यमंत्री रहीं बसपा सुप्रीमो मायावती

बसपा ने जीती थीं 206 सीटें :2007 के विधानसभा चुनाव में बहुजन समाज पार्टी ने 403 में से 206 सीटें जीती थीं और अपने बल पर सरकार बनाने में कामयाब हुई थी. इस चुनाव में समाजवादी पार्टी को महज 97 सीटें, भाजपा को 51, कांग्रेस को 22 और राष्ट्रीय लोक दल को 10 सीटें प्राप्त हुई थीं. यदि वोट शेयर की बात करें, तो बसपा को 36.27 प्रतिशत, सपा को 27.01 प्रतिशत, भाजपा को 23.05 प्रतिशत और कांग्रेस पार्टी को 21.60 प्रतिशत वोट मिले थे. हालांकि, विश्लेषकों को भी यह उम्मीद नहीं थी कि मायावती की बहुजन समाज पार्टी पूर्ण बहुमत की सरकार बनाने में कामयाब होगी. मायावती की एक सख्त प्रशासक की छवि थी. उन्होंने कई अच्छे काम भी किए. हालांकि, भ्रष्टाचार व अन्य प्रकरणों के कारण उनके कई मंत्री और नेता चर्चा में रहे. कई नेताओं को मायावती ने पद से बर्खास्त किया तो कुछ को तो जेल की हवा भी खानी पड़ी.

2019 में मिलीं सीटें

कई मंत्रियों को पद से हटाने की सिफारिश :तत्कालीन लोकायुक्त जस्टिस एनके मेहरोत्रा ने कई मंत्रियों को पद से हटाने की सिफारिश की, जिसे मायावती ने माना भी. इन मंत्रियों में रंगनाथ मिश्रा, राजेश त्रिपाठी, अवध पाल सिंह यादव, रतन लाल अहिरवार और बादशाह सिंह आदि के नाम प्रमुख थे. उन्होंने हरिओम उपाध्याय, अवधेश कुमार वर्मा, राकेश धर त्रिपाठी और राजपाल त्यागी को अपनी सरकार से बर्खास्त भी किया. इन कार्रवाईयों से मंत्रियों और नेताओं को लेकर जनता में यह संदेश गया कि सरकार में भ्रष्टाचार बहुत है, भले ही मायावती ऐसे लोगों के खिलाफ ताबड़तोड़ कार्रवाईयां कर रही हों. बावजूद इसके बसपा की लोकप्रियता तेजी से नीचे गिरी और 2009 के लोकसभा चुनाव में पार्टी उसे सिर्फ 20 सीटों पर संतोष करना पड़ा, जबकि सपा को 23, भाजपा को 21 और कांग्रेस को 12 सीटें मिलीं. राज्य में बसपा की सरकार को देखते हुए लोकसभा चुनावों में सीटों की यह संख्या अनुमान से कम ही मानी गई. 2012 के चुनाव में जनता ने बसपा को नकार दिया और इस चुनाव में सपा को 224, बसपा को 80, भाजपा को 47 और कांग्रेस पार्टी को 28 सीटों पर संतोष करना पड़ा.


बसपा का प्रदर्शन

इस पराजय के बाद बसपा की जमीनी पकड़ लगातार कमजोर होती गई. पांच साल मुख्य विपक्षी दल होने के बावजूद बसपा सरकार की खामियों के खिलाफ कभी आंदोलन करती नहीं देखी गई, चुनाव से इतर मायावती राजनीतिक गलियारों से भी नदारद ही रहीं. स्वाभाविक है कि जनता का विश्वास भी बसपा से धीरे-धीरे जाता रहा. बसपा प्रमुख 2012 के बाद से चुनावों के अलावा सिर्फ पत्रकार वार्ताओं में ही देखी गईं. वहीं, 2014 से भाजपा में नरेंद्र मोदी का दौर शुरू हुआ, जिसने लोकप्रियता की नई ऊंचाइयां देखीं. फिर 2017 में प्रदेश में भाजपा की सरकार बनी और योगी आदित्यनाथ को मुख्यमंत्री बनने का मौका मिला. योगी-मोदी का यही वह दौर था, जिसने प्रदेश की राजनीति में बहुत कुछ बदल दिया. वह भी लोगों को जिसकी उम्मीद कम ही थी. केंद्र और राज्य सरकारों की नीतियों के कारण गरीबों और कमजोर वर्गों को खूब सौगातें दी गईं, जिसके कारण यह वर्ग भाजपा का स्थाई वोट बैंक बन गया. वहीं, विपक्षी दलों ने भी संघर्ष की राजनीति को ताक पर रखकर भाजपा को और मजबूत होने दिया. यही कारण है कि बसपा अपने सबसे बुरे दौर से गुजर रही है.

यूपी की दलीय स्थिति

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राजनीतिक विश्लेषक डॉ आलोक कुमार कहते हैं कि 'देश और प्रदेश में हिंदुत्व को लेकर एक माहौल तो बना ही है, जिसका फायदा भाजपा उठा रही है, लेकिन विपक्षी दलों की भूमिका भी उन्हें पतन के गर्त में ले जाने के लिए जिम्मेदार है. राष्ट्रीय स्तर पर बात करें, तो कोई भी पार्टी नरेंद्र मोदी से मुकाबले के लिए उस कद का चेहरा जनता के सामने रखने में नाकाम रही है. यदि योग्य चेहरा सामने हो तो यह लड़ाई कांटे की और रोचक भी बन सकती है. वैसे ही प्रदेश में भी विपक्षी दलों ने अपनी अहमित खुद ही घटाई है. यदि प्रमुख राजनीतिक दल सरकार की खामियों को सही ढंग से जनता के सामने रखें और अपनी भावी योजनाओं के बारे में विश्वास दिला सकें, तो बात बदल सकती है. हालांकि, यहां सभी पार्टियां चुनावों से इतर एसी कमरों में ही कैद रहती हैं. उन्हें यह समझना चाहिए कि सिर्फ ट्विटर पर सक्रिय होने से बड़े राजनीतिक बदलाव नहीं आते.'

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