पटनाःबिहार के सिवान लोकसभा सीट से दिवंगत नेता शहाबुद्दीन की पत्नी हिना शहाब मैदान में उतरने के लिए तैयार है. पूर्व में वाम राजनीति के मजबूत स्तंभ रहे रमेश कुशवाहा की पत्नी विजयलक्ष्मी दो-दो हाथ के लिए तैयार हैं. जदयू ने विजलक्ष्मी को टिकट दिया है. हालांकि राजद ने अभी तक उम्मीदवारों की घोषणा नहीं की है. ऐसे में साहेब की शहाब को दो बड़ी पार्टी से टक्कर है.
'पहले की तरह नहीं है पकड़ मजबूत' :दो बड़ी पार्टी के सामने बाहुलबली की पत्नी के लिए कितनी चुनौती है. इसको लेकर वरिष्ठ पत्रकार प्रवीण बागी का मानना है कि शहाबुद्दीन की मजबूती पहले की तरह नहीं रही है. उनके रहते हुए उनकी पत्नी हिना शहाब तीन बार चुनाव मैदान में उतरी लेकिन हार गई. उनकी मौत के बाद पहली बार चुनाव के मैदान में हैं. उन्हें सहानुभूति वोट की उम्मीद भी होगी लेकिन कुछ खास असर नहीं दिखाई दे रहा है.
"शहाबुद्दीन को सिवान में सभी जातियों का समर्थन मिला. ऐसा इसलिए था की खेती से जुड़े हुए लोग वाम आंदोलन से परेशान थे. उन्होंने शहाबुद्दीन को संरक्षण दिया. बाद के दिनों में आपराधिक गतिविधियों में संलिप्त होने के चलते उनकी राजनीतिक ताकत कम होती चली गई. अब तक इसकी भारपाई नहीं हो सकी है."-प्रवीण बागी, वरिष्ठ पत्रकार
4 बार सांसद रहे शहाबुद्दीनः सिवान लोकसभा सीट लेफ्ट का मजबूत किला माना जाता था, लेकिन बाहुबली नेता मोहम्मद शहाबुद्दीन ने इस मिथक को तोड़ा और रॉबिन हुड छवि के बदौलत सिवान के अंदर समानांतर सरकार चलाई. 1996 से 2000 के बीच मोहम्मद शहाबुद्दीन चार बार लोकसभा के लिए चुने गए. इससे पहले जीरादेई से निर्दलीय उम्मीदवार के तौर पर विधायक भी बने थे.
वाम को चुनौती में सफल हो पाए थे शहाबुद्दीनः 80 के दशक में सिवान के अंदर वाम राजनीति की जड़ें गहरी थी. जमींदारों के खिलाफ वाम दलों के द्वारा लगातार आंदोलन हो रहे थे. उन दिनों वहां के जमींदार वाम गतिविधियों से त्रस्त थे. इसी बीच शहाबुद्दीन का उदय हुआ था. भाकपा माले के खिलाफ शहाबुद्दीन लड़ाई शुरू कर दिए. वहां के जमींदार और किसानों का संरक्षण मिला और पहली बार निर्दलीय उम्मीदवार के तौर पर विधायक बने. इसके बाद कारवां आगे बढ़ता गया.
जेल जाने के बाद गिरता गया रूतबाः मोहम्मद शहाबुद्दीन भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी लिबरेशन के एक कार्यकर्ता छोटेलाल गुप्ता के अपहरण और लापता होने के मामले में जेल जाने के बाद चुनाव लड़ने के लिए अयोग्य हो गए. उन्हें आजीवन कारावास की सजा सुनाई गई थी. उन पर पूर्व छात्र नेता चंद्रशेखर प्रसाद सहित 15 अन्य कम्युनिस्ट पार्टी कार्यकर्ताओं की भी हत्या का भी आरोप था.
राजद के साथ रहे शहाबुद्दीनः मोहम्मद शहाबुद्दीन 1990-1995 में विधानसभा के लिए चुनाव जीते और 1996 में जनता दल के टिकट पर लोकसभा के लिए चुने गए. 1997 में राजद के गठन के साथ ही शहाबुद्दीन की शक्तियां बढ़ी. शहाबुद्दीन ने अपने राजनीतिक क्षेत्र में अपने उत्थान का श्रेय अपने क्षेत्र के राजपूत, भूमिहारों और ब्राह्मणों को दिया और सिवान के आसपास के इलाकों में ऊंची जाति के लोगों के चहते बने. शहाबुद्दीन जब तक जिंदा रहे तब तक राष्ट्रीय जनता दल के साथ रहे.
लंबे समय तक जेल में रहने से नुकसानः 2000 के दशक की शुरुआत में मोहम्मद शहाबुद्दीन सिवान में समानांतर प्रशासन चलाते थे. जिले में वे पारिवारिक और भूमि विवाद के मुद्दे को निपटाने का काम भी करते थे. खाप पंचायत भी आयोजित की जाती थी. डॉक्टर की फीस भी उन्होंने तय कर रखी थी. बाद के दिनों में मोहम्मद शहाबुद्दीन आपराधिक गिरोह के साथ सम्मिलित हो गए और उनकी भूमिका अपराधिक घटनाओं में देखी जाने लगी. इससे उनका ग्राफ गिरता चला गया.
डॉलर की मदद से हुई राजनीतिः लंबे समय तक जेल में रहने के चलते मोहम्मद शहाबुद्दीन की ताकत कम हुई लेकिन उन्होंने राजनीतिक तौर पर कभी भी पाला नहीं बदला. सीवान को डॉलर इकोनामी वाला राज्य कहा जाता है. बड़ी संख्या में लोग खाड़ी देशों में रहते हैं. वहां से विदेशी करेंसी भेजते हैं. रोजगार के लिए बड़ी संख्या में लोगों ने विदेशों में पलायन किया है. शहाबुद्दीन के ताकत में इजाफे के पीछे एक वजह यह अभी मानी जाती है. विदेशों में रहने वाले लोगों ने शहाबुद्दीन को आर्थिक मदद दी.
सीएम के खिलाफ बोलने के बाद बढ़ी परेशानीः नीतीश कुमार को मोहम्मद शहाबुद्दीन ने परिस्थितियों का मुख्यमंत्री कहा था. तब से उनकी परेशानी बढ़ गई. शहाबुद्दीन के खिलाफ जांच में तेजी आ गई और फिर से वह जेल चले गए. बाद में उन्हें तिहाड़ जेल भी ट्रांसफर कर दिया गया. कोरोना काल में बीमारी के चलते 2021 जेल में ही मोहम्मद शहाबुद्दीन की मौत हो गई.
क्या शहाब को सिवान से मिलेगी सहानुभूति? शहाबुद्दीन के राजनीतिक विरासत को आगे बढ़ाने की जिम्मेदारी उनकी पत्नी हिना शहाब के कंधों पर थी. राष्ट्रीय जनता दल ने दो बार टिकट दिया लेकिन वह चुनाव हार गई. साल 2009 साल 2014 और 2019 लोकसभा चुनाव में हिना साहब चुनाव लड़ी लेकिन उन्हें शिकस्त मिली. मोहम्मद शहाबुद्दीन के मौत के बाद यह पहला मौका होगा जब उनकी पत्नी ही निर्दलीय उम्मीदवार के तौर पर मैदान में होगी. लेकिन राजनीतिक विशेषज्ञ मानते हैं कि इस बार भी कोई खास असर नहीं दिखेगा क्योंकि अभी भी सिवान में वाम दल जिंदा है.