जयपुर :आमेर की शिला माता की प्रतिमा बेहद खास है. इस प्रतिमा को राजा मानसिंह बंगाल (जसौर) से लेकर आए थे. यही वजह है कि यहां आज भी शिला माता की बंगाली पद्धति से पूजा-अर्चना की जाती है. दरअसल, जसौर के राजा को राजा मानसिंह ने हराया था. उसके बाद वो शिला माता की प्रतिमा को बंगाल से लेकर आए थे और आमेर में मंदिर बनवाकर शिला माता की स्थापना की थी. नवरात्रि में शिला माता मंदिर परिसर में मेले जैसा दृश्य देखने को मिलता है. यहां दूर-दूर से श्रद्धालु माता रानी के दर्शन के लिए आते हैं. ऐसी मान्यता है कि जो भी भक्त सच्चे मन से माता के दरबार में मत्था टेकता है, उसकी मैया सभी मनोकामनाएं पूरी करती हैं.
आमेर महल में स्थित शिला माता जयपुरवासियों की आराध्य देवी हैं. मिर्जा राजा मानसिंह ने शिला माता मंदिर की स्थापना करवाई थी. 1580 में बंगाल के जसौर के राजा को हराकर मिर्जा राजा मानसिंह शिला माता की प्रतिमा को लेकर आमेर आए थे. बताया जाता है कि शुरुआत में माता को नरबलि दी जाती थी, लेकिन बाद पशु बलि दी जाने लगी. हालांकि, 1972 के बाद पशु बलि भी यहां बंद कर दी गई.
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शिला माता मंदिर के पुजारी बनवारी लाल शर्मा ने बताया कि नवरात्रि में शिला माता का विशेष शृंगार किया जाता है. रोजाना दुर्गा सप्तशती का पाठ और 10 महाविद्याओं के पाठ व हवन होते हैं. इसके अलावा प्रतिदिन माता की फूल बंगला झांकी सजाई जाती है. पुजारी शर्मा ने आगे बताया कि श्रद्धालु अपनी मनोकामनाएं लेकर माता के दरबार में आते हैं. कई भक्त दंडवत करते हुए तो कई भक्त हाथ में दीपक लिए माता को धोक लगाते हैं. उन्होंने बताया कि करीब 500 साल पहले महाराजा मानसिंह ने शिला माता मंदिर की बनवाकर थी. शिला माता को यशोरेश्वरी काली माता के नाम से भी जाना जाता है और यहां मैया की बंगला पद्धति से पूजा की जाती है.
इतिहासकारों की मानें तो राजा केदारनाथ देव राय बंगाल के शासक थे. उस समय मिर्जा राजा मानसिंह से उनका मुकाबला हुआ. राजा मानसिंह को पता चला कि राजा केदारनाथ देव राय के पास शिला माता का विग्रह है. राजा केदारनाथ को युद्ध में हराने के बाद वो माता की प्रतिमा को आमेर लेकर आए.
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यह भी कहा जाता है कि शिला माता की विग्रह को समुद्र तल से लाया गया था. राजा के सपने में आया था कि इस विग्रह को निकालने पर युद्ध में विजय मिलेगी. पहले माता के विग्रह की दृष्टि जयपुर की तरफ थी. सवाई जयसिंह द्वितीय के समय इस विग्रह को उत्तर मुखी किया गया था. ताकि माता की पीठ जयपुर की तरफ हो जाए. उसके बाद जयपुर में बहुत विकास हुए. विग्रह के बारे में कहा जाता है कि इसके सामने विनाश और पीछे विकास है. इसलिए प्रतिमा को पहले दक्षिण मुखी रखा गया था और फिर जयपुर बेसन के बाद उत्तर मुखी कर दिया गया था.
माता की प्रतिमा की दृष्टि टेढ़ी होने के पीछे कई ऐतिहासिक तथ्य भी हैं. एक मान्यता यह भी है कि 1727 ईस्वी में आमेर को छोड़कर कछवाहा राजवंश ने अपनी राजधानी जयपुर को बनाया था. इससे माता रुष्ट होकर अपनी दृष्टि टेढ़ी कर ली थी. वहीं, कहा यह भी जाता है कि राजा मानसिंह से सपने में माता ने मंदिर स्थापना के बाद रोज एक नरबलि का वचन लिया था. राजा मानसिंह ने इस वचन को निभाया, लेकिन बाद के शासक इसे नहीं निभा पाए और नरबलि की जगह पशु बलि देना शुरू कर दिए. इससे नाराज होकर शिला देवी ने अपनी दृष्टि को टेढ़ी कर ली. नरबलि और पशु बलि के बाद माता के मावे के पेड़े और नारियल का भोग लगना शुरू हुआ.
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शिला देवी मंदिर में अंदर जाने पर सबसे पहले चांदी का बना मुख्य द्वार आकर्षण का केंद्र है. मुख्य द्वार पर नवदुर्गा शैलपुत्री, ब्रह्मचारिणी, चंद्रघंटा, कूष्मांडा, स्कंदमाता, कात्यायनी, कालरात्रि और सिद्धिदात्री की प्रतिमा उत्कीर्ण हैं. दस महाविद्याओं के रूप में काली, तारा, षोडशी, भुनेश्वरी, छिन्नमस्ता, त्रिपुर, भैरवी, धूमावती, बगलामुखी, मातंगी और कमला चित्रित हैं.
दरवाजे के ऊपर लाल पत्थर की गणेश मूर्ति स्थापित है. मंदिर में कलात्मक संगमरमर का कार्य महाराजा मानसिंह द्वितीय ने 1906 में करवाया था. कहा जाता है कि शिला माता मंदिर की मूल प्रतिमा का तेज इतना अधिक है कि उसे केवल राजा मानसिंह सहन कर सकते थे. उसके बाद मूल स्वरूप को तहखाने में रखा गया, जबकि प्रतीकात्मक स्वरूप की पूजा अर्चना की जाती है.