रायपुर : एक जमाना था जब लोग दिवाली के साथ कोई भी पर्व और त्योहार मिट्टी के दीये जलाकर अपने घर आंगन को रोशन किया करते थे. लेकिन बदलते दौर ने दिवाली मनाने का तौर तरीका भी बदल दिया. आधुनिकता की चमक धमक के आगे मिट्टी के दीयों की रोशनी कम होती गई. आज के समय में दिवाली के दौरान जितने झालर और लाइट बिकते हैं,उतनी संख्या मिट्टी के दीयों की नहीं होती.जिसका सीधा असर कुम्हारों की आजीविका पर पड़ता है.डिमांड कम होने से कुम्हार कम संख्या में मिट्टी के दीये बना रहे हैं.जिससे उनकी कमाई भी सीमित हो चुकी है.
झालर और जगमग लाइट्स ने दीयों की चमक की फीकी :मिट्टी के दीये की डिमांड पहले की तुलना में काफी घट गई है. इसका एक कारण महंगाई भी है. इसके साथ ही दीये में तेल और रुई की बत्ती के झंझट से बचने के लिए लोग इलेक्ट्रॉनिक दीये और झालर खरीदने लगे हैं. इसके कारण मिट्टी से बने दीयों की बाजार में पूछ परख भी कम हो गई है. जिसका नुकसान मिट्टी के काम करने वाले कुम्हार परिवारों को सहना पड़ रहा है.
इलेक्ट्रिक झालर ने कुम्हारों की कमाई छीनी (ETV BHARAT) बाजार में बिजली से चलने वाले दीये और झालर ने मिट्टी के दीयों के बाजार के आकार को छोटा कर दिया है. यही वजह है कि मिट्टी के दीयों की डिमांड बाजार में कम हो गई है- मालतीचक्रधारी, कुम्हार
झालर ने छीना दीयों का बाजार (ETV Bharat Chhattisgarh) कुम्हारों पर मंडराया आर्थिक संकट :दीये बेचने वाले कुम्हारों का कहना है कि "पहले की तुलना में मिट्टी के दीये लोग कम खरीदते हैं. भगवान की पूजा पाठ के लिए ही दीयों की खरीदी की जाती है. सालों पहले लोग भगवान की पूजा पाठ करने के साथ ही पूरे घर आंगन को रोशन करने के लिए मिट्टी के दीये खरीदा करते थे. लेकिन अब मिट्टी के दीये में वो बात अब नहीं रह गई है.
इलेक्ट्रिक दीयों से सजा बाजार (ETV Bharat Chhattisgarh) अब लोग कहते हैं कि दीया बहुत महंगा है.इसलिए कम बिकता है.बिजली के झालर आने से तेल और रुई डालने की टेंशन नहीं रहती .इसलिए लोग सिर्फ काम चलाने के लिए 10-20 दीया ही लेते हैं.पहले तो सौ से दो सौ तक दीया बिकता था- गिरिवर चक्रधारी, कुम्हार
दुकानदार भी मानते हैं अब दीयों का दौर कम हुआ :इलेक्ट्रिकल दुकानदार गौरव देवांगन बताते हैं कि "पहले के समय में पूरे घर आंगन को मिट्टी से बने दीयों से रोशन किया जाता था, लेकिन अब लोग इलेक्ट्रिक से चलने वाले दीये और झालर सहित दूसरी फैंसी लाइट लेकर अपने घर आंगन को रोशन कर रहे हैं. इस वजह से भी मिट्टी के दीयों की डिमांड बाज़ार में कम हो गई है."
कुम्हार परिवार पिछले कई दशक से मिट्टी के बर्तन मिट्टी की मूर्ति और अन्य चीज बनाकर अपना और अपने परिवार का पालन पोषण करता आ रहा है. लेकिन जिस तरह से परिवेश बदल रहा है,उसका सीधा असर कुम्हारों की रोजी रोटी पर पड़ा है. कुम्हार परिवार पुश्तैनी धंधा होने के कारण इसके अलावा कोई दूसरा व्यवसाय नहीं करते.इसलिए अक्सर कुम्हार परिवार आर्थिक तंगी से जूझते रहते हैं.सरकार की ओर से भी कुम्हारों के लिए कोई खास मदद नहीं मिलती.जिसके कारण अब हर दिवाली कुम्हारों के लिए खुशहाली नहीं लाती.