रीवा: महाभारत के भीषण युद्ध के बारे में तो आप सभी ने वेद और पुराणों में पढ़ा ही होगा. कौरव और पांडवों की सेना के बीच हुआ महासंग्राम कई दिनों तक चला. जिसमें दोनों तरफ के सैनिक बड़ी संख्या में घायल होते थे, लेकिन शायद आपको यह पता नहीं होगा की महाभारत के युद्ध में घायल होने वाले योद्धाओं और सैनिकों का उपचार किस जड़ी बूटी से और कैसे किया जाता था. आज हम आपको बताने जा रहे हैं, ऐसे ही एक औषधीय गुणकारी चमत्कारी पौधे शल्यकर्णी के बारे में जो अब विलुप्त होने के कगार पर है. कहा जाता है की महाभारत के युद्ध में भाले, तलवार और तीर के वार से घायल हुए सैनिकों का उपचार शल्यकर्णी पौधे के पत्ते और उसके छाल के रस से किया जाता था और उपचार के कुछ घंटों बाद ही घायल सैनिक दोबारा युद्ध के मैदान में लड़ने के लिए तैयार खड़ा हुआ दिखाई देता था.
रामायण और महाभारत में शल्यकर्णी पौधे का वर्णन
अगर रामायण काल की बात करें तो उसमें तीन महा शक्तिशाली जड़ी बूटियों का वर्णन आता है. जिसमें मृत संजीवनी, विश्ल्यकर्णी और शल्यकर्णी है. जिस प्रकार से संजीवनी जड़ी-बूटी के सेवन से मर्णाशन हालत में पड़ा व्यक्ति जीवित हो जाता था. उसी तरह से प्राचीन काल के दौरान विश्ल्यकर्णी का पौधा भी विभिन्न प्रकार के बिमारियों में उपचार के लिए उपयोग में लाया जाता था. वहीं अगर बात करें शल्यकर्णी के औषधीय गुणकारी पौधे के बारे में तो इस पौधे का इस्तेमाल महाभारत के युद्ध में व्यापक स्तर पर किया गया था.
कहा जाता है की कौरव और पांडवों के बीच कई दिनों तक चले भीषण युद्ध के दौरान जो भी सैनिक रणभूमि में तलवार भाले और तीर के वार से घायल होते थे उनका उपचार वैद्य इसी शल्यकर्णी के गुणकारी पौधे से करते थे.
युद्ध में घायल हुए सैनिकों का शल्यकर्णी पौधे से होता था उपचार
महाभारत काल में युद्ध के दौरान शल्यकर्णी के पौधे के पत्ते और उसके छाल को पीसकर उसके रस को निकाला जाता था. इसके बाद कपड़े को उसी रस में भिगोकर उस कपड़े को घायल सैनिकों के घाव वाले जगह पर बांध दिया जाता था. इसके बाद कुछ घंटों के भीतर ही स्वस्थ होकर घायल सैनिक दोबारा युद्ध के लिए रणभूमि में युद्ध के लिए खड़ा दिखाई देता था. प्राचीन काल में शल्य चिकित्सा वह चिकित्सा पद्धति थी, जिसे आज के समय में हम सर्जरी कहते हैं.
ऐसे दोबारा अस्तित्त्व में आया चमत्कारी गुणकारी शल्यकर्णी का पौधा
बताया जाता है की सीधी और अमरकंटक के पहाड़ी क्षेत्र के आलावा रीवा के छुहिया पहाड़ में इसकी खोज आदिवासियों ने की थी. किवदंती है की कई साल पहले आदिवासियों ने एक झरने के समीप एक बड़ी सी मछली को तीर मारकर उसका शिकार किया था. जिसके बाद आदिवासियों ने मछली को घर तक ले जाने के लिए पास ही लगे शल्यकर्णी के पत्तों का स्तेमाल किया था. उन्होंने शिकार की गई मछली को शल्यकर्णी के पत्ते से लपेटा और उसे घर लेकर गए. दूसरे दिन सुबह जब मछली के ऊपर लपेटे गए पत्ते को हटाए गए तो मछली पर लगे तीर के घाव गायब थे. अब इसी बात से अंदाजा लगाया जा सकता है कि यह पौधा कितना चमत्कारी, लाभकारी और गुणकारी है.
आदिवासियों ने की थी शल्यकर्णी के खोज
जानकारी के मुताबिक 2008 में एक आदिवादी सम्मेलन हुआ. उसी दौरान उन आदिवासियों ने इस दुर्लभ शल्यकर्णी पौधे की जानकारी दी थी. तभी यह पौधा दोबारा अस्तित्त्व में आया, लेकिन अब यह पौधा विलुप्त होने के कगार पर है. यह पौधा हिमालय पर्वत के आलावा पंचमढ़ी अमरकंटक और रीवा सीधी के मध्य छुहिया पहाड़ में पाए जाते थे. कहा जाता है की यह खास पौधे अब काफी कम संख्या में छुहिया पहाड़ मौजूद है. मगर यह गुणकारी पौधा अब अन्य स्थानों से धीरे धीरे करके लुप्त होता जा रहा है. बताया गया है कि आज भी आदिवासी इस गुणकारी पौधे का इस्तेमाल करके बाखूबी अपना इलाज कर लेते हैं.