लखनऊ :नवाबों का शहर लखनऊ संस्कृति, शानदार वास्तुकला और ऐतिहासिक धरोहरों के लिए विख्यात है. नवाब वाजिद अली शाह की विरासत परीखाना भी इनमें से एक है. नवाब के दौर में यह सांस्कृतिक गतिविधियों का केंद्र थी. यहां से कला और कलाकारों को अलग मुकाम मिला. अब इस भवन में भातखंडे संगीत संस्थान विश्वविद्यालय की गीत-संगीत और शास्त्रीय नृत्य की कक्षाएं चलती हैं. आइए जानते हैं परीखाना के इतिहास और महत्व के बारे में...
अवध के अंतिम नवाब वाजिद अली शाह (1822-1887) ने परीखाना का निर्माण करवाया. यहां संगीत, नृत्य, नाटक, ठुमरी, दादरा, कथक, मुजरा और उर्दू शायरी जैसी कलाओं को बढ़ावा दिया जाता था. मौजूदा समय में यह भवन बड़ा इमामबाड़ा, छोटा इमामबाड़ा या रूमी दरवाजा जितना प्रसिद्ध नहीं है, लेकिन लखनऊ के सांस्कृतिक परिदृश्य को आकार देने में इसकी भूमिका काफी अहम रही है.
लखनवी संस्कृति की जन्मभूमि है परीखाना :नवाब के वंशज नवाब मसूद अब्दुल्ला ने ईटीवी भारत को बताया कि परीखाना ने अवध को कला और संस्कृति के केंद्र के रूप में स्थापित किया. नवाबों के दौर में लखनऊ की परंपरा और संस्कृति का केंद्र परीखाना रहा है. यहां लखनऊ की संस्कृति सिखाई जाती थी. आदाब के तरीके बताए जाते थे. लखनऊ की नफासत और नजाकत, नवाबी अंदाज, पानदान, खासदान, उगलदान के दस्तूर सिखाए जाते थे. इसके साथ ही उठने-बैठने की और शाही दरबार के आदाब भी यहां सिखाए जाते थे.
कथक और ठुमरी की विरासत :नवाब वाजिद अली शाह के दौर में लखनऊ कथक और अर्ध-शास्त्रीय संगीत का प्रमुख केंद्र बन गया था. कथक का लखनऊ घराना अपनी नफासत और भाव-भंगिमा के लिए मशहूर हुआ. इसी दौर में ठुमरी को भी एक नई पहचान मिली. इसे तवायफों की महफिलों में नया अंदाज मिला.
सांस्कृतिक संस्थान भी था परीखाना :नवाब मसूद अब्दुल्ला बताते हैं कि परीखाना केवल मनोरंजन का स्थान नहीं था, बल्कि यह एक प्रतिष्ठित अकादमी भी थी. यहां जाफर खान, बासित खान, प्यार खान और कालका-बिंदादीन महाराज जैसे महान कलाकारों ने अपनी कला को निखारा. तवायफों को अक्सर मनोरंजन के साधन के रूप में देखा जाता है, लेकिन वे वास्तव में उच्च कोटि की प्रशिक्षित कलाकार थीं. उन्होंने अवध की सांस्कृतिक विरासत को संजोया. परीखाना का अर्थ परियों का घर था.