रांची:झारखंड में इन दिनों 'एक आंख में काजल और एक आंख में सुरमा' वाली कहावत चर्चा के केंद्र में है. क्योंकि एक तरफ 18 साल से 50 साल तक की युवती/महिलाओं को बिना काम कराए सरकार मंईयां सम्मान योजना के तहत 2500 रुपए प्रति माह दिया जा है, तो दूसरी तरफ आंगनबाड़ी केंद्रों में 3 से 5 साल के बच्चों को पोषणयुक्त आहार के साथ शिक्षा देकर राज्य की बुनियाद मजबूत कर रही सूबे की सेविकाओं और सहायिकाओं को अपनी मेहनत के पैसे के लिए दर-दर की ठोकरें खानी पड़ रही है.
आंगनबाड़ी केंद्रों में काम करने वाली सेविकाओं और सहायिकाओं को पिछले छह माह से केंद्र सरकार की ओर से मिलने वाला मानदेय बकाया है. इसके लिए राज्य सरकार को जिम्मेदार ठहराते हुए 24 फरवरी से शुरू हो रहे बजट सत्र के दौरान विधानसभा घेराव का ऐलान किया गया है. आंगनबाड़ी वर्कर्स यूनियन का दावा है कि इस आंदोलन में सूबे की 30 से 40 हजार सेविका-सहायिकाएं शामिल होंगी.
वादा पूरा नहीं कर रही राज्य सरकार
झारखंड प्रदेश आंगनबाड़ी वर्कर्स यूनियन के प्रदेश कार्यकारी अध्यक्ष बालमुकुंद सिन्हा का कहना है कि सेविका को कुल 10500 रुपए प्रतिमाह मानदेय मिलता है. जिसमें राज्य सरकार 6 हजार और केंद्र सरकार 4500 रुपए देती है. सहायिकाओं को ठीक इसकी आधी राशि यानी 5250 मिलती है. राज्य सरकार 3000 रुपए जबकि केंद्र सरकार 2250 रुपए प्रतिमाह देती है. लेकिन पिछले अक्टूबर माह से केंद्र सरकार ने अपनी हिस्सेदारी नहीं दी है. यूनियन का कहना है कि साल 2022 में सीएम और विभागीय अधिकारियों के साथ वार्ता के दौरान भरोसा दिलाया गया था कि केंद्र सरकार की हिस्सेदारी को बकाया नहीं रहने दिया जाएगा. राज्य सरकार अपने फंड से पैसे देकर केंद्र से राशि आने के बाद एडजस्ट कर लेगी. लेकिन ऐसा नहीं हो रहा है.
उधार के पैसे से चल रहे हैं आंगनबाड़ी केंद्र
आंगनबाड़ी केंद्रों पर चावल तो पहुंच जाते हैं लेकिन दाल नहीं मिलता. गैस की व्यवस्था भी नहीं है. सेविकाओं को उधार में दाल लेकर सेंटर चलाना पड़ रहा है. बच्चों को हर दिन अंडा देना है. लेकिन सरकार एक अंडा के बदले 6 रुपए देती है. जबकि बाजार में एक अंडे की कीमत 7 रुपए से ज्यादा हो गई है. वर्कर्स यूनियन के मुताबिक आंगनबाड़ी केंद्र पर सुबह के वक्त नाश्ते में हलवा परोसा जाता है. दोपहर में चावल-दाल की खिचड़ी दी जाती है. इसके साथ अंडा भी दिया जाता है. लेकिन जो बच्चे अंडा नहीं खाते उनके लिए कोई वैकल्पिक व्यवस्था नहीं है.
डाटा एंट्री नहीं होने पर काटा जाता है मानदेय
सेविकाओं की दलील है कि पूरे माह काम करने के बावजूद बमुश्किल 14 से 17 दिन की हाजिरी बन रही है. नेटवर्क के अभाव में डाटा इंट्री नहीं होने पर पैसे काट लिए जाते हैं. जबकि ऑफलाइन मोड पर सारी रिपोर्ट तैयार रहती है. केंद्र की गतिविधियों का वीडियो और डाटा ऑनलाइन अपलोड करने के लिए आज तक मोबाइल की सुविधा नहीं दी गई है. जबकि चुनाव के दौरान सेविकाओं से बीएलओ का भी काम लिया जाता है.
कई मोर्चों पर साथ के बाद भी उपेक्षा