ग्वालियर। जब भी चुनाव नजदीक आते हैं, तो अपने साथ कई पुराने कहानी और किस्से लेकर आते हैं. आज किस्सों के इस कारवा में बात करेंगे, उस दौर की जब देश आजाद हुआ और पहली बार आम चुनाव भारत में कराए गए. एक ओर पूरे देश में कांग्रेस का एक छत्र राज हुआ, तो वही ग्वालियर की जनता ने इसके उलट हिन्दू महासभा को प्रतिनिधि चुना था. चलिए जानते हैं पूरा किस्सा...
देश जब आधिकारिक रूप से 1947 में आजाद हुआ. तब पहली बार 1951-52 में आजाद भारत में सरकार बनाने के लिए आम चुनाव कराए गए. इस देरी की बड़ी वजह यह थी कि 1948 तक भारत में निर्वाचन आयोग नहीं था. ऐसे में 1949 में पहली बार भारत में निर्वाचन आयोग का गठन हुआ और 1950 में सुकुमार सेन को मुख्य निर्वाचन आयुक्त बनाया गया. इसके बाद पीपल एक्ट को सबके सामने रखकर पार्लियामेंट में पास किया गया. जिसमें यह निर्धारित किया गया था कि देश में किस तरह राज्य और संसद के चुनाव कराए जाएंगे. आखिरकार अक्टूबर 1951 से 1952 में देश में पहली बार 489 सीटों पर चुनाव कराए गए थे.
कांग्रेस नहीं बल्कि हिन्दू महासभा के पक्ष में था ग्वालियर का चुनाव
1952 में संपन्न हुए पहले लोकसभा चुनाव में कांग्रेस ने 364 सीट हासिल की थी. जिससे यह साफ था की सरकार कांग्रेस की ही बनी, लेकिन इस चुनाव में ग्वालियर की जनता ने कांग्रेस से हटकर अपना पहले सांसद चुना था. ग्वालियर में आयोजित हुए लोकसभा चुनाव में जनता का फैसला हिंदू महासभा के पक्ष में गया था, क्योंकि जनता ने हिंदू महासभा के प्रत्याशी रहे वीजी देशपांडे को अपना समर्थन दिया था.
जीतकर छोड़ दी थी पहले संसद ने सीट
हालांकि जब फैसला आया तो वीजी देशपांडे ग्वालियर के अलावा गुना सीट पर भी चुनाव लड़े थे. दोनों ही जगह से जीते भी थे. ऐसे में उन्होंने निर्वाचित होने के बाद ग्वालियर की सीट छोड़ दी. जिसकी वजह से यहां पहले ही आम सभा के बाद पहला उपचुनाव कराना पड़ा, लेकिन इस बार भी ग्वालियर की जनता का फैसला हिन्दू महासभा के पक्ष में गया और नारायण भास्कर खरे उपचुनाव जीत कर एक ही साल में दूसरे सांसद चुने गए.
आजादी से पहले ही हिन्दू महासभा के गढ़ था ग्वालियर
वरिष्ठ पत्रकार और राजनीतिक विश्लेषक देव श्रीमाली कहते हैं कि, 'ग्वालियर आजादी के पहले से ही लगभग 40 के दशक से ही ग्वालियर अंचल हिंदू महासभा का गढ़ था, क्योंकि सिंधिया रियासत उस दौरान हिंदू महासभा को संरक्षण देती थी. 1985 तक अगर देखेंगे तो हिंदू महासभा द्वारा दशहरा का कार्यक्रम आयोजित किया जाता था. उसमें माधवराव सिंधिया भी जाते थे और इससे पहले भी जब दशहरा मनाया जाता था. तब भी उनमें सिंधिया घराने की बड़ी भूमिका रहती थी.'