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ढोल नगाड़ों वाली शव यात्रा : शीतला सप्तमी पर यहां निकलती है जिंदा आदमी की अर्थी - Special Report

By ETV Bharat Rajasthan Team

Published : Mar 31, 2024, 11:11 AM IST

Updated : Mar 31, 2024, 2:29 PM IST

भीलवाड़ा शहर में शीतला सप्तमी का त्योहार अनुठे तरीके से मनाया जाता है, जहां शीतल सप्तमी के दिन भीलवाड़ा के मुख्य बाजार में जीवित व्यक्ति को अर्थी पर लेटा कर मुर्दे की सवारी निकाली जाती है.

SHITALA SAPTAMI IN BHILWARA
SHITALA SAPTAMI IN BHILWARA

भीलवाड़ा का शीतला सप्तमी पर्व

भीलवाड़ा. मेवाड़ के प्रवेश द्वार पर स्थित भीलवाड़ा जिले में शीतला सप्तमी का त्योहार अनूठे अंदाज में मनाया जाता है, जहां इस दिन भीलवाड़ा के मुख्य बाजार में जीवित व्यक्ति को अर्थी पर लेटाकर 'मुर्दे' की सवारी निकाली जाती है. इस आयोजन में हजारों युवा, बड़े व बुजुर्ग शिरकत करते हैं. जिंदा व्यक्ति की 'शव यात्रा' देखने और सुनने में भले ही आपको अजीब लगे लेकिन यह सच है. इस आयोजन को गाजे-बाजे और रंग गुलाल उड़ाते हुए आयोजित किया जाता है.

भाग खड़ा होता है मुर्दा : अर्थी में लेटा जिंदा व्यक्ति कभी अपना एक हाथ बाहर निकालता है तो कभी हिलता-डुलता है. यहां तक की अपने उड़ते कफ़न को भी खुद ही ठीक कर लेता है तो कभी उठ कर पानी पी लेता है. अर्थी जब अंतिम पड़ाव पर पहुंचती है तो वह उठ कर भागने की कोशिश करता है, तब मुर्दे की सवारी में शामिल लोग उसे जबरन बैठा देते हैं. यह अनूठी परंपरा वस्त्रनगरी भीलवाड़ा में शीतला सप्तमी पर पिछले 200 सालों से निभाई जा रही है. इस मुर्दे की सवारी में बड़ी संख्या में लोग रंग गुलाल उड़ाते शामिल होते हैं.

ढोल नगाड़ों वाली शव यात्रा : इस शव यात्रा में लोग अर्थी के आगे ढोल नगाड़ों के साथ नाचते गाते, हंसी के गुब्बारे छोड़ते हुए और अश्लील फब्तियां कसते हुए चलते हैं. वहीं गुलाल के बादलों से पूरा शहर अट जाता है. यात्रा की विशेष बात यह है कि जिन मार्गों से यह यात्रा निकलती है उन मार्गों पर महिलाओं का प्रवेश वर्जित होता है.

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लोक देवता ईलो जी से संबंध :शहर में शीतला सप्तमी पर एक बार फिर होली खेली जाती है. शहर में स्थित चित्तौड़ वालों की हवेली से शहर के भीतरी इलाके बड़े मंदिर तक यह यात्रा निकाली जाती है. जिले में जिला कलेक्टर की ओर से स्थानीय अवकाश भी घोषित किया जाता है. शहर के लोगों ने बताया कि यह मुर्दे की सवारी निकालने की परंपरा मेवाड़ रियासत के समय से चली आ रही है, इस परंपरा को लोक देवता ईलो जी से जोड़ा जाता है.

प्रदेश भर से लोग देखने आते हैं : वहीं पदम श्री पुरस्कार के लिए घोषित व अंतर्राष्ट्रीय बहरूपिया कलाकार जानकीलाल भांड ने कहा कि यह परंपरा रियासत काल से शुरू हुई थी, जो अनवरत जारी है. वो खुद भी इस मुर्दे की सवारी में शरीक होकर बहरूपिया रूप धारण करते हैं. वहीं वरिष्ठ नागरिक मुरली मनोहर सेन बताते हैं कि प्रदेश भर से काफी लोग इस आयोजन को देखने आते हैं. इस सवारी में रंग गुलाल उड़ाते हुए हंसी ठिटौली भी की जाती है.

Last Updated : Mar 31, 2024, 2:29 PM IST

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