जैसलमेर: जैसलमेर में दीपावली पूजन के साथ ही हटड़ी पूजन का भी विशेष महत्व है. इस पूजन के बिना दिवाली पर्व अधूरा माना जाता है. पहले हटड़ी घोड़े की लीद से बनी होती थी. अब बदलते समय के साथ-साथ स्टील व अन्य धातु से बनी हटड़ी का प्रचलन बढ़ा है. हालांकि, जैसलमेर के गांधी कॉलोनी क्षेत्र में रहने वाले मांगणियार परिवार आज भी पारंपरिक तरीके से बनाई गई हटड़ी को ही शुभ मानते हैं.
जैसलमेर में हटड़ी पूजन बिना अधूरा है दीपोत्सव (Video Etv Bharat Jaisalmer) जैसलमेर में एकमात्र हटड़ी बनाने वाले फकीरचंद मिरासी बताते हैं कि मांगणियार परिवार के लोग हटड़ी का निर्माण कर दीपावली, विवाह उत्सव, पुत्र जन्मोत्सव और अन्य शुभ कार्य में इसे भेंट करते हैं. इसके बदले में संबंधित लोग उन्हें अच्छा नारियल, ओढ़नी व श्रद्धानुसार भेंट देते हैं.
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बाजार में मिलती है हटड़ियां: अब धातु से बनी हटड़ियां बाजार में आसानी से उपलब्ध है. इसके बावजूद कई लोग मिट्टी व बांस की लड़कियों से निर्मित हटड़ी को ही शुभ मानते हैं. उनका कहना है कि परंपरागत रूप से बनी हटड़ी व उसके पूजन का महत्व अलग ही है.
दिवाली के दिन पूजन का है विशेष महत्व: फकीरचंद मिरासी बताते हैं कि यह उनका खानदानी पेशा है. उन्होंने बताया कि यह परंपरा केवल जैसलमेर में है. हटड़ी को एक प्रकार से लक्ष्मी का स्वरूप माना जाता है. उन्होंने बताया कि हटड़ी के निर्माण में मिट्टी लाने से लेकर हटड़ी को बनाने और किसी को देने तक का काम शुभ मुहूर्त देखकर ही किया जाता है. फकीरचंद ने बताया कि हटड़ी घोड़े की लीद और एक विशेष स्थान से लाई गई मिट्टी से बनाई जाती है. इसके बाद इस पर विभिन्न प्रकार की आकृतियां बनाकर आकर्षक बनाया जाता है.
ऐसे बनाई जाती है हटड़ी: मिरासी ने बताया कि सबसे पहले लाल मिट्टी व घोड़े की लीद को मिलाकर मिश्रण तैयार किया जाता है. बाद में बांस की लकड़ियों को मिलाकर एक ढांचा तैयार किया जाता है. इस ढांचे को मिश्रण से पुन: भर दिया जाता है. जब यह सूख जाता है तो उस पर रंगीन चित्रकारी या अन्य सजावट की जाती है. दीपावली पर विशेष पूजन करने के लिए हटड़ी के बीच में दीपक के लिए विशिष्ट स्थान भी बनाया जाता है. दस दिन पहले ही हटड़ी बनाने में काम में आने वाली सभी जरुरी सामग्री की व्यवस्था कर ली जाती है.
यह है पौराणिक कथा: बताया जाता है कि भगवान श्रीराम, माता सीता और लक्ष्मण जी जब अयोध्या से लौटे थे तो लोगों ने उनके स्वागत के लिए घरों में घी के दीपक जलाए थे. इसी के साथ कई लोगों ने उस दिन मिट्टी का घरौंदा, यानी घर भी बनाया था. साथ ही उसे कई तरह से सजाया भी था. इसे प्रतीकात्मक तौर पर नगर के बसने के तौर पर देखा जाता है, तभी से यह प्रचलन चला आ रहा है. मान्यता है कि इस घरौंदे की पूजा करने वाले का शीघ्र ही खुद का घर बन जाता है.