साहिबगंज: ब्रिटिश हुकूमत के खिलाफ देश का प्रथम आंदोलन 1855 में झारखंड के सुदूरवर्ती जिला साहिबगंज के बरहेट प्रखंड के भोगनाडीह से शुरु हुआ था. यह आंदोलन दो साल तक चला. गरीब तबका आदिवासी और गैर आदिवासी को सेठ साहूकारों द्वारा शोषण किया जा रहा था. इसी को लेकर भोगनाडीह की धरती से चार भाई और दो बहन जो सिदो कान्हू, चांद भैरव और फूलो झानो ने आंदोलन का बिगुल फूंका.
अंग्रेजों के खिलाफ इस लड़ाई को हूल कांति का नाम दिया गया. इस बीच अंग्रेजों ने आदिवासियों पर काफी जुल्म ढाए. इस लड़ाई में दस हजार से अधिक आदिवासी, गैर आदिवासियों ने सिदो कान्हू के नेतृत्व में चल रहे आंदोलन में शामिल हो गए. अंग्रेजों को अपनी तीर कमान और अपने विवेक से उन्होंने पानी पिला दिया. सिदो कान्हू के गुट के कुछ लोग अंग्रेजों से मिलकर विश्वासघात किया, जिसमें चांद भैरव और फूलो झानों मारे गए. बरहेट प्रखंड के पंचकठिया स्थित क्रांति स्थल पीपल के पेड़ के नीचे खुलेआम सिदो और कान्हू को फांसी की सजा दी गयी. इस लड़ाई में हजारों लोगों की जान चली गई. अंग्रेजों ने कूटनीति से इस आंदोलन का दमन कर दिया लेकिन यह आग धीरे धीरे फैलते गई और अंग्रेजों भारत छोड़ो जैसी आंदोलन में परिणत हो गयी.
इतिहासकारों ने वर्ष को गलत किया पेशः इतिहासकार कमल महावर ने बताया कि इतिहासकारों ने 1857 को सिपाही विद्रोह का नाम दिया. जबकि देश में सबसे पहला अंग्रेजों के खिलाफ हूल कांति 1855 में शुरु हुई थी जो 1856 तक चली. इस लड़ाई में एक परिवार के चार भाई व दो बहनों ने इस लड़ाई में अपनी कुर्बानी दे दी. इनके आंदोलन में एक साथ करीब 30 हजार आदिवासी व गैर आदिवासियों ने भाग लिया था. आज भी पचकठिया में वो पेड़ गवाह जहां सिदो कान्हू को फांसी दी गयी थी. उन्होंने बताया कि उस समय लोग शिक्षित नहीं थे, संचार का साधन नहीं था, अस्त्र शस्त्र नहीं था लेकिन लोगों में देश के प्रति प्रेम और कुछ कर गुजर जाने की तमन्ना थी. आज हम इन वीर शहीदों की बदौलत खुली हवा में सांस ले रहे हैं. हर साल 30 जून को शहीद दिवस और 11 अप्रैल को सिदो कान्हू की जयंती के रुप में याद कर उन्हें नमन करते हैं और शौर्य गाथा को याद करते हैं.