हथकरघा उद्योग को आगे बढ़ा रहे चमन लाल विकासनगर:आधुनिकता के दौर में हथकरघा कारोबार पर संकट के बादल छाए हुए हैं. बाजारों पर ब्रांड की कब्जेदारी होने से सदियों से पीढ़ी दर पीढ़ी चला आ रहा यह कारोबार बदहाली की दौर से गुजर रहा है, लेकिन कुछ लोग इस कारोबार को आगे बढ़ा रहे हैं. इनमें एक शख्स हरिपुर के चमन लाल हैं, जो साल 1975 से लगातार हथकरघा (खड्डी) के काम को आगे बढा रहे हैं. उनके इस काम में पूरा परिवार हाथ बंटाता है तो इस कारोबार में 30-35 ग्रामीण लोग भी जुड़े हुए हैं. जिससे कई लोगों की आय भी बढ़ रही है.
ऊन से तैयार किए जाते हैं कई उत्पाद:पहाड़ों में भेड़ पालन करने वाले पशुपालक ऊन को चमन लाल के पास लेकर आते हैं. जिससे ऊन के धागे तैयार कर कपड़ा बनाने का काम खड्डी में किया जाता है. ऊन से कपड़ा तैयार करने में लंबी प्रक्रिया चलती है. जिसके बाद ऊन से कपड़ा तैयार हो पाता है. कपड़े की सिलाई करने के बाद विभिन्न प्रकार के वस्त्र तैयार किए जाते हैं.
इसके तहत ऊन का कोट, टोपी (डिगवा), जंघेल, सलकूवा (वास्कट), चौलूडी, चौड़ा, चौड़ी, धौड (कंबल) जैसे उत्पाद बनाए जाते हैं. जो महिलाओं और पुरुषों दोनों के लिए अलग-अलग बनाया जाता है. जिसकी डिमांड ज्यादातर हिमालय राज्यों समेत देश के कोने-कोने में होती है.
1975 से अपने पुश्तैनी काम को आगे बढ़ा रहे चमनलाल:हथकरघा संचालक चमन लाल बताते हैं कि उनका हरिपुर में चमन लाल खादी ग्रामोद्योग समिति है. जहां उनका हथकरघा का कारोबार चलता है. जो साल 1975 में स्थापित की थी. उनके पिता ने यह काम शुरू किया था. वो बचपन से ही में अपने पिता के कार्य में हाथ बंटाते थे. उनके परिवार ने भी इस कार्य में कड़ी मेहनत की. यह उनका पैतृक कार्य है, जो पहले पार्ट टाइम होता था, लेकिन उनके पिता ने इसे फुल टाइम करना शुरू कर दिया.
उन्होंने कहा कि उनके पिता ने उद्योग विभाग की मदद से गांव-गांव में हथकरघा की ट्रेनिंग दी. उन्होंने कई बच्चों को हथकरघा सिखाया. उन्होंने करीब 1500 बच्चों को ट्रेनिंग दी. ऐसे में साल 2015 में 'उत्तराखंड राज्य शिल्प रत्न पुरस्कार' से उनके पिता को सम्मानित किया गया. इसके बाद 2018 में उनके पिता का देहांत हो गया. जिसके बाद से वो लगातार इस कारोबार को आगे बढ़ा रहे हैं.
ऊन से कपड़ा तैयार करते चमन लाल चमन लाल ने बताया कि उनके पास पहाड़ों से ऊन आता है. जिसके बाद वो ग्रामीण महिलाओं और अन्य लोगों को देते हैं, जो अपने हाथों से ऊन से धागा कातते हैं. वहां से ऊन का धागा उनके पास आता है. जिसके बाद कपड़ा बनाने की प्रक्रिया शुरू होती है. वो ऊन से चोला, चौड़ा, चौड़ी, कुर्ती, मेखडी, बैंड़ी तैयार करते हैं. भेड़ के ऊन को धोने से लेकर धागा तैयार करने फिर कपड़ा बनाने से लेकर मिलिंग करने के बाद कपड़ा तैयार होता है. जिसके बाद फिनिशिंग की जाती है, फिर सिलाई करने के बाद बिक्री के लिए तैयार होती है.
मददगार साबित होती है प्रदर्शनी:हथकरघा संचालक चमन लाल बताते हैं कि वो करीब 11 साल से दिल्ली प्रगति मैदान में अपने हथकरघा की प्रदर्शनी लगाते आ रहे हैं. जहां वो अपनी उत्पाद प्रदर्शनी के माध्यम से बेचते हैं. भारत सरकार के जनजाति विपणन के माध्यम से उन्हें लेह, लद्दाख, गुवाहाटी समेत भारत के विभिन्न हिस्सों में जाने के मौका मिलता है. ट्राईफेड, जिला उद्योग केंद्र, खादी विभाग की ओर से भी प्रदर्शनी लगाई जाती है. जिसमें उन्हें भी बुलाया जाता है.
चनन लाल के पिता को मिल चुका उत्तराखंड राज्य शिल्प रत्न पुरस्कार उन्होंने बताया कि प्रदर्शनी से काफी मदद मिलती है. प्रदर्शनी में उनका कपड़ा बढ़िया रेट में बिक जाता है. जिससे उनका काफी फायदा भी होता है. उनके पास कच्ची ऊन आने बाद धुलाई से लेकर सिलाई तक काम होता है. जिसमें कई लोग जुड़े हुए हैं. ऊन की धुलाई में कम से कम 3 लोग काम करते हैं. उसके बाद कार्डिंग करने वाले को अलग काम मिलता है. इसके बाद कताई करने के लिए घर-घर जाकर ऊन कतवाते हैं.
इस तरह से होता है काम, कई लोगों को मिला रोजगार:गांवों में जो लोग ऊन कातते हैं, उनसे संपर्क कर उन्हें ऊन दे देते हैं. जब वो ऊन की कताई कर देते हैं तो उसके बदले उन्हें मजदूरी देते हैं. फिर कती हुई ऊन लेकर उससे कपड़ा बनाना शुरू करते हैं. कपड़ा तैयार करने के लिए उसकी फिनिशिंग होती है. जिसके बाद पैरों से उसकी मिलिंग की जाती है. कपड़े को तैयार करने के बाद कटिंग कर फिर सिलाई की जाती है. करीब 20-25 महिलाएं ऊन की कताई करती हैं. इसी तरह 10-11 लोग सिलाई की यूनिट में हमेशा काम करते हैं. इस तरह उनके कारोबार से 30 से 35 लोगों को रोजगार मिल रहा है.
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