नई दिल्ली: प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की 21-22 दिसंबर को होने वाली कुवैत यात्रा खाड़ी क्षेत्र में भारत की कूटनीतिक पहुंच में एक और मील का पत्थर है, जिसे नई दिल्ली अपने विस्तारित पड़ोस का हिस्सा मानता है. यह चार दशकों में किसी भारतीय प्रधानमंत्री की पहली कुवैत यात्रा होगी. भारत की ओर से कुवैत की पिछली प्रधानमंत्री यात्रा 1981 में हुई थी, जब इंदिरा गांधी इस पद पर थीं.
पीएम मोदी की यात्रा से द्विपक्षीय संबंधों, खासकर एनर्जी, ट्रेड और लेबर कॉओपरेशन को और मजबूत करने की उम्मीद है. साथ ही इससे खाड़ी सहयोग परिषद (GCC) देशों के साथ संबंधों को मजबूत करने की भारत की प्रतिबद्धता की भी पुष्टि होगी.
विदेश मंत्रालय की ओर से जारी किए गए एक बयान के अनुसार मोदी कुवैत के नेतृत्व के साथ चर्चा करेंगे और उस खाड़ी देश में भारतीय समुदाय के साथ भी बातचीत करेंगे. बयान में कहा गया है, "भारत और कुवैत के बीच पारंपरिक रूप से घनिष्ठ और मैत्रीपूर्ण संबंध हैं, जो इतिहास में निहित हैं और आर्थिक और मजबूत लोगों के बीच संबंधों पर आधारित हैं.भारत कुवैत के शीर्ष व्यापारिक भागीदारों में से एक है. भारतीय समुदाय कुवैत में सबसे बड़ा प्रवासी समुदाय है."
पीएम मोदी की यात्रा की घोषणा कुवैती विदेश मंत्री अब्दुल्ला अली अल याह्या की इस महीने की शुरुआत में भारत यात्रा के तुरंत बाद हुई है. विदेश मंत्री के रूप में अल याह्या की यह पहली भारत यात्रा थी. अल याह्या की यात्रा के बाद मंत्रालय द्वारा जारी एक बयान के अनुसार, विदेश मंत्री एस जयशंकर और उनके कुवैती समकक्ष ने एक ज्वाइंट कमीशन आयोग (जेसीसी) की स्थापना पर एक समझौता ज्ञापन (एमओयू) पर हस्ताक्षर किए.
उस वक्तव्य में कहा गया है, "व्यापार, निवेश, शिक्षा, टेक्नोलॉजी, कृषि, सुरक्षा और संस्कृति के क्षेत्रों में नए संयुक्त कार्य समूह जेसीसी के तहत स्थापित किए जाएंगे. जेसीसी तंत्र नए संयुक्त कार्य समूहों और हाइड्रोकार्बन, स्वास्थ्य और वाणिज्य दूतावास मामलों सहित क्षेत्रों में मौजूदा लोगों के तहत हमारे द्विपक्षीय संबंधों के पूरे दायरे की व्यापक समीक्षा और निगरानी करने के लिए एक छत्र संस्थागत तंत्र के रूप में कार्य करेगा."
2014 में मोदी के प्रधानमंत्री बनने के बाद से भारत और जीसीसी देशों के बीच संबंधों में महत्वपूर्ण बदलाव देखने को मिले हैं. जीसीसी में बहरीन, कुवैत, ओमान, कतर, सऊदी अरब और संयुक्त अरब अमीरात (यूएई) शामिल हैं. इस अवधि में रणनीतिक, आर्थिक और सांस्कृतिक सहयोग बढ़ा है, जिससे खाड़ी क्षेत्र भारत की विदेश नीति का एक प्रमुख आधार बन गया है. हालांकि, कुवैत एक ऐसा देश है, जहां मोदी ने प्रधानमंत्री बनने के बाद से 10 वर्षों में कोई दौरा नहीं किया है. भारत और कुवैत के बीच पारंपरिक रूप से मैत्रीपूर्ण संबंध हैं.
भारत कुवैत का एक स्वाभाविक व्यापारिक साझेदार रहा है और 1961 तक, भारतीय रुपया कुवैत में एक लीगल टेंडर थी. तेल की खोज और विकास तक, कुवैत की अर्थव्यवस्था अपने बेहतरीन बंदरगाह और समुद्री गतिविधियों के इर्द-गिर्द घूमती थी, जिसमें जहाज निर्माण, पर्ल डाइविंग, मछली पकड़ना और खजूर, अरबी घोड़े और मोती ले जाने वाले लकड़ी के ढो पर भारत की यात्राएं शामिल थीं, जिनका व्यापार लकड़ी, अनाज, कपड़े और मसालों के लिए किया जाता था. 1961 में ब्रिटिश संरक्षक से स्वतंत्रता के बाद भारत कुवैत के साथ राजनयिक संबंध स्थापित करने वाले पहले देशों में से एक था.
पीएम मोदी को कुवैत जाने में इतना समय क्यों लगा?
इराक और जॉर्डन में भारत के पूर्व राजदूत आर दयाकर ने ईटीवी भारत को बताया, "इस सप्ताह प्रधानमंत्री की कुवैत यात्रा का कोई विशेष कूटनीतिक निहितार्थ नहीं है, क्योंकि यह जीसीसी का अंतिम देश है, जिसकी यात्रा की गई है." उन्होंने कहा कि शिखर सम्मेलन स्तर पर यात्राओं का समय विभिन्न फैक्टर्स, विशेष रूप से दोनों पक्षों के बीच पारस्परिक सुविधा पर निर्भर करता है. जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय के स्कूल ऑफ इंटरनेशनल स्टडीज में पश्चिम एशियाई अध्ययन केंद्र के एसोसिएट प्रोफेसर मुदस्सिर कमर ने भी इस पर सहमति जताई.
कमर ने ईटीवी भारत को बताया, "आप कुवैत की इस यात्रा में देरी के लिए किसी विशेष कारण को जिम्मेदार नहीं ठहरा सकते. जब नेता द्विपक्षीय यात्रा करते हैं, तो प्राथमिकताएं होती हैं." इसके बाद उन्होंने बताया कि जहां तक आर्थिक बदलाव का सवाल है, कुवैत जीसीसी के अन्य देशों के साथ प्रतिस्पर्धा करने में सक्षम नहीं है.