पेपर शहतूत की उत्पत्ति पूर्वी एशिया, यानी चीन, जापान और मंगोलिया से हुई थी. इसे छाल, तपा कपड़ा और कागज बनाने के लिए उपजाऊ बनाया गया था. शहरी वानिकी (शहरों में पौधारोपण) के लिए यह 1880 के दशक में भारत आया और पिछले 25 वर्षों से यह पौधा 'बेंगलुरु' के उद्यान शहर पर आक्रामक रूप से फैल रहा है. शुरू में यह शहर के मुख्य क्षेत्रों में उगा और अब शहर के बाहरी इलाकों और खुले स्थानों तक फैल रहा है. बेंगलुरु में 30 प्रतिशत हरियाली पेपर शहतूत के पौधों के कारण है.
पेपर शहतूत (जंगली तूत) बेंगलुरु की खाली जगहों में बड़े पैमाने पर फैला हुआ, जिसे वनस्पति विज्ञान में ब्रूसोनेटिया पेपिरिफेरा (broussonetia papyrifera) के नाम से जाना जाता है. यह एक आक्रामक और अत्यधिक एलर्जिक पौधा है. ताइवान, पाकिस्तान और अमेरिका में इस पौधे को बेहद एलर्जिक माना जाता है. इसके प्रतिकूल प्रभावों के बारे में लोगों में जानकारी न होने के कारण, पौधे की हरियाली ने लोगों को आकर्षित किया और इसे पॉपुलर सजावटी पौधा बना दिया. लोग इस पौधे के हानिकारक प्रभावों के बारे में ज्यादा नहीं जानते हैं, जो थोड़े ही समय में देसी पेड़-पौधों को नष्ट कर सकता है. इस पौधे को काटना भी हानिकारक है क्योंकि यह बहुत अधिक मात्रा में दूधिया लेटेक्स पैदा करता है, इसलिए इसको काटना डरावना लगता है और इसका चिपचिपा रस भी आंखों और त्वचा के लिए अच्छा नहीं होता है.
कई विशेषज्ञ विदेशी प्रजातियों, जैसे- तबेबुइया (Tabebuia) और जकारांडा (Jacaranda) को लेकर बेंगलुरु वासियों की पसंद से असंतुष्ट हैं. जिन पैधों को लोकप्रिय रूप से बेंगलुरु के फूल कहा जाता है, वे मुख्य रूप से ऐसी प्रजातियां हैं जो दूसरे देशों या महाद्वीपों से लाई गई हैं. पर्यावरणविद् और सेवानिवृत्त वन अधिकारी एएन येलप्पा रेड्डी (AN Yellappa Reddy) ने मेरे साथ बातचीत में कहा कि स्थानीय पौधों की प्रजातियां, मुख्य रूप से औषधीय गुणों वाली प्रजातियां शहर के प्राकृतिक दृश्य से गायब हो गई हैं. इसके विपरीत, विदेशी पौधों की प्रजातियां पसंद बनती गईं.
शहरीकरण के कारण आक्रामक पौधों का आयात हो रहा है, लेकिन इसकी कोई निगरानी नहीं है. एफआरआई देहरादून से वन वनस्पति विज्ञान में पीएचडी करने वाले एनएम गणेश बाबू वर्तमान में बेंगलुरु स्थित ट्रांसडिसिप्लिनरी यूनिवर्सिटी में एसोसिएट प्रोफेसर हैं, जो प्राइवेट विश्वविद्यालय है. उन्होंने अनुभा जैन के साथ इंटरव्यू में कहा कि पेपर शहतूत (Paper Mulberry) के पौधे नर और मादा दोनों होते हैं. नर पौधे भारी मात्रा में पराग (pollen) उत्पन्न करते हैं और मादा पौधे फल पैदा करते हैं. दोनों पौधे बहुत सशक्त हैं. हर छह महीने में यह पेड़ फल देता है और इसके बड़े पुष्पक्रमों से निकलने वाले पराग कण को बेहद एलर्जिक माना जाता है. इससे अस्थमा के लक्षण बढ़ जाते हैं.
गणेश ने दुख जताते हुए कहा कि बृहत बेंगलुरु महानगर पालिका (बीबीएमपी) इसके दुष्प्रभावों पर गौर किए बिना शहर में गलत तरीके से गैर-देसी प्रजाति के और पेपर शहतूत तथा कोनोकार्पस लैंसिफोलियस जैसे विदेशी फूल वाले पौधे लगा रही है. यह मानव और पशु स्वास्थ्य की कीमत पर नहीं किया जा सकता. इससे इंसानों में सर्दी, खांसी, अस्थमा और एलर्जी होती है. इससे पारिस्थितिकी तंत्र भी खराब होता है. शहर प्रशासन इस बात पर ध्यान नहीं देता कि कहां किस तरह के पौधे लगाए जाएं. गुजरात सरकार ने जनवरी 2024 में कोनोकार्पस के पौधे लगाने पर प्रतिबंध लगा दिया और इसका कारण 'पर्यावरण और मानव स्वास्थ्य पर प्रतिकूल प्रभाव' बताया गया.
रिटायर्ड आईएफएस और पूर्व प्रधान मुख्य वन संरक्षक (वन बल के प्रमुख) श्रीधर पुनाती (Sridhar Punathi) ने कहा कि बेंगलुरु समुद्र तल से 3,000 वर्ग फीट ऊपर है, और सही तापमान, वर्षा और पानी की उपलब्धता के साथ रोपण के लिए अनुकूल है, जिससे पश्चिमी घाटों सहित कई प्रजातियां यहां उग सकती हैं. गणेश ने आगे कहा, "पिछले 30 वर्षों से, हमारा संगठन देसी औषधीय पौधों को पुनर्जीवित कर रहा है. आयुर्वेदिक दवाएं देसी औषधीय वनस्पतियों पर आधारित हैं." उन्होंने निराश मन से कहा, "20 से अधिक वर्षों से स्थानीय वनस्पति लुप्त हो रही है. आने वाले समय में, जैसे-जैसे गलत दोहन और अवैध या अनौपचारिक व्यापार के कारण संसाधन समाप्त होते जाएंगे, हमें आयुर्वेद प्रैक्टिस के लिए देसी वनस्पतियां नहीं मिलेंगी."