नई दिल्लीः पर्यावरण, वन और जलवायु परिवर्तन मंत्रालय (MoEFCC) को अपने बजट आवंटन में मामूली 2.47% की वृद्धि मिली है. औद्योगिक डीकार्बोनाइजेशन, जलवायु अनुकूलन और पारिस्थितिकी तंत्र संरक्षण जैसे महत्वपूर्ण क्षेत्रों के लिए धन की कमी होगी. हालांकि सौर ऊर्जा और इलेक्ट्रिक वाहनों पर बढ़ता खर्च स्वच्छ ऊर्जा की ओर बढ़ने का संकेत देता है. लेकिन, यह बजट भारत के जलवायु एजेंडे के प्रति समग्र दृष्टिकोण अपनाने में विफल दिख रहा है.
जलवायु संकट से जीडीपी को नुकसानः भारत ने महत्वाकांक्षी जलवायु लक्ष्य निर्धारित किए हैं, जिसका लक्ष्य 2070 तक शुद्ध-शून्य उत्सर्जन और 2030 तक उत्सर्जन तीव्रता में 50% की कमी लाना है. इन लक्ष्यों को प्राप्त करने के साथ-साथ विकसित भारत के लिए लचीली और समावेशी विकास रणनीतियों को अपनाना होगा. यदि जलवायु जोखिम कम नहीं किये गये तो भारत को जलवायु संकट के कारण 2070 तक अपने सकल घरेलू उत्पाद का 24.7% कम होने की आशंका है.
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अमेरिका के बाद भारत की भूमिका बढ़ीः संयुक्त राज्य अमेरिका के पेरिस समझौते से बाहर आने की घोषणा के बाद, दुनिया तेजी से भारत को वैश्विक जलवायु नेता के रूप में देख रहा है. हालांकि, जलवायु परिवर्तन पर रोक को लेकर भारत का मौजूदा बजट उम्मीदों से कम है. महत्वपूर्ण जलवायु क्षेत्रों के लिए न्यूनतम बजटीय सहायता के साथ, भारत अपने जलवायु कार्रवाई प्रयासों को सार्थक रूप से कैसे आगे बढ़ा सकता है? जलवायु संतुलन को बनाये रखने के लिए कौन-कौन से संरचनात्मक और रणनीतिक ढांचे को लागू किया जाना चाहिए?
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नीति निर्माण में बदलाव की जरूरतः सबसे पहले, भारत को नीति निर्माण में सार्थक बदलाव की आवश्यकता है. जिसके लिए विकास को मापने के तरीके को फिर से परिभाषित करना होगा. भारत के सामने मौजूद मूलभूत चुनौतियों में से एक जलवायु नीतियों और आर्थिक रणनीतियों के बीच एकीकरण की कमी है. बजट बुनियादी ढांचे के विस्तार और औद्योगिक निवेश द्वारा संचालित आर्थिक विकास और पर्यावरणीय स्थिरता के बीच चल रहे संघर्ष को उजागर करता है. जलवायु संतुलन बनाये रखने के लिए सरकार की घोषणाएं, आर्थिक विकास पर की गई घोषणाओं से अलग हैं. जिससे दोनों के बीच विरोधाभास बना हुआ है. दृष्टिकोण में बदलाव ज़रूरी है.
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जीडीपी पर निर्भरता कम होः जलवायु संतुलन के लिए की जा रही पहल को आर्थिक बाधा के रूप में नहीं बल्कि विकास गुणक के रूप में देखा जाना चाहिए. भारत को आर्थिक प्रगति के प्राथमिक संकेतक के रूप में जीडीपी पर निर्भरता से आगे बढ़ना चाहिए. एक अधिक व्यापक ढांचा जिसमें कार्बन तीव्रता, संसाधन दक्षता और जलवायु लचीलापन जैसे स्थिरता मीट्रिक शामिल हैं. दीर्घकालिक विकास की एक स्पष्ट तस्वीर प्रदान करेगा. भारत को अपनी आर्थिक योजना में स्थिरता को शामिल करना चाहिए ताकि यह सुनिश्चित हो सके कि विकास पर्यावरणीय और सामाजिक गिरावट की कीमत पर न हो.
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ब्लूप्रिंट का अभावः दूसरा, बजट में बुनियादी ढांचे के विकास पर ध्यान केंद्रित करने से इस असंगत दृष्टिकोण को और उजागर किया गया है. पूंजीगत व्यय के लिए आवंटित 11.5 लाख करोड़ रुपये के साथ, सरकार ने भारत के बुनियादी ढांचे के आधुनिकीकरण के लिए अपनी प्रतिबद्धता की पुष्टि की है. हालांकि, इस खर्च में जलवायु-लचीले ब्लूप्रिंट का अभाव है. आज शुरू की गई बुनियादी ढांचा परियोजनाएं आने वाले दशकों के लिए भारत के विकास पथ को आकार देंगी, जिनमें से कई के 2050 से आगे तक चलने की उम्मीद है. एक ऐसा समय जब जलवायु जोखिम तीव्र होने का अनुमान है, बुनियादी ढांचे की योजना में जलवायु लचीलापन को एकीकृत किए बिना, ये परियोजनाएँ कमज़ोरियों को कम करने के बजाय उन्हें और गहरा कर सकती हैं.
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जलवायु परिवर्तन से संकट का आकलनः भारत के बुनियादी ढांचे के विस्तार में जलवायु परिवर्तन से उत्पन्न पर्यावरणीय और सामाजिक-आर्थिक जोखिमों को ध्यान में रखना चाहिए. बड़े पैमाने की परियोजनाओं के कारण अक्सर विस्थापन, भूमि की हानि और आजीविका संबंधी चुनौतियां पैदा होती हैं, जो विशेष रूप से हाशिए पर रहने वाले समुदायों को प्रभावित करती हैं. फिर भी, बजट में इन प्रभावों को कम करने की रणनीतियों की रूपरेखा नहीं दी गई है. सार्वजनिक निवेश योजना में जलवायु जोखिम आकलन की अनुपस्थिति एक स्पष्ट चूक बनी हुई है. जैसे-जैसे भारत अपने भविष्य के शहरों, राजमार्गों और ऊर्जा ग्रिडों का निर्माण कर रहा है, इन परियोजनाओं में स्थिरता को मुख्यधारा में लाना अनिवार्य है.
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इलेक्ट्रिक वाहन को बढ़ावाः तीसरा, बजट में एक महत्वपूर्ण कमी यह है कि इसमें अनुकूलन की कीमत पर शमन पर बहुत अधिक ध्यान दिया गया है. जबकि सौर क्षेत्र और इलेक्ट्रिक वाहनों में निवेश भारत के कम कार्बन संक्रमण लक्ष्यों के अनुरूप है, अनुकूलन उपायों पर कम ध्यान दिया जाता है. जैव विविधता संरक्षण के लिए वित्तपोषण स्थिर हो गया है, और तटीय लचीलेपन के लिए आवंटन- जो बढ़ते समुद्री स्तरों के प्रति भारत की भेद्यता को देखते हुए एक महत्वपूर्ण क्षेत्र है में कमी आई है. जलवायु परिवर्तन के लिए राष्ट्रीय अनुकूलन कोष (NAFCC) जिसे अनुकूलन प्रयासों का समर्थन करने के लिए डिजाइन किया गया है. अभी भी कम वित्तपोषित है, जिससे कमजोर समुदायों की रक्षा करने की क्षमता सीमित है.
फसल की पैदावार में गिरावटः जलवायु के प्रति सबसे संवेदनशील देशों में से एक भारत को अपनी कृषि, जल सुरक्षा और शहरी लचीलेपन के लिए गंभीर खतरों का सामना करना पड़ रहा है. बढ़ते तापमान और बदलते मौसम के कारण पहले से ही फसल की पैदावार में गिरावट आ रही है. खाद्य सुरक्षा को खतरा है और पानी की कमी बढ़ रही है. इन जलवायु प्रभावों का खामियाजा सामाजिक-आर्थिक रूप से वंचित समूहों को उठाना पड़ रहा है, जिसमें छोटे किसान, प्रवासी श्रमिक और पारिस्थितिकी रूप से कमजोर क्षेत्रों में रहने वाले लोग शामिल हैं. आजीविका की सुरक्षा और दीर्घकालिक लचीलापन सुनिश्चित करने के लिए एक अधिक संतुलित दृष्टिकोण-जिसमें शमन और अनुकूलन पर समान जोर दिया जाता है वो आवश्यक है.
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पर्यावरण लाभ वाली परियोजनाः चौथा, मौजूदा जलवायु वित्त ढांचे की एक बड़ी कमजोरी अस्थिर निजी निवेशों पर इसकी अत्यधिक निर्भरता है. बजट इस चुनौती से निपटने के लिए बहुत कम करता है. बड़े पैमाने पर जलवायु वित्त जुटाने के लिए, भारत को एक मजबूत विनियामक ढांचा लागू करना चाहिए जो जलवायु-केंद्रित परियोजनाओं में सार्वजनिक और निजी दोनों तरह की पूंजी को आकर्षित करे. एक टिकाऊ वित्त वर्गीकरण की स्थापना, सख्त प्रकटीकरण मानदंडों के साथ, निवेशकों के लिए बहुत जरूरी स्पष्टता प्रदान करेगी. यह सुनिश्चित करेगी कि पूंजी ठोस पर्यावरणीय लाभ वाली परियोजनाओं की ओर प्रवाहित हो.
बजट आवंटन बढ़ाये जाने की जरूरतः भारत की जलवायु प्रतिबद्धताओं के लिए बजट आवंटन बढ़ाये जाने की जरूरत है. जलवायु लचीलापन और सतत विकास हासिल करने के लिए संरचनात्मक नीतिगत बदलाव, विकास योजना में जलवायु कार्रवाई का एकीकरण और शमन, अनुकूलन और वित्त के बीच एक संतुलन की जरूरत है. इन उपायों के बिना, महत्वाकांक्षा और क्रियान्वयन के बीच की खाई को पाटना एक कठिन लड़ाई बनी रहेगी.
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