नई दिल्ली: लोकतंत्र में सुशासन के लिए मजबूत विपक्ष का होना बहुत जरूरी है. हालांकि, अब ऐसा लगता है कि विपक्ष दिन-ब-दिन कमजोर होता जा रहा है. इसका ताजा उदाहरण महाराष्ट्र विधानसभा चुनाव का नतीजा है, जहां विपक्ष का अस्तित्व खतरे में है. महाराष्ट्र विधानसभा में अब सत्ता पक्ष ही फैसले लेगा और विपक्ष की आवाजें सदन के वेल में दबकर रह जाएंगी.
महाराष्ट्र विधानसभा चुनाव के नतीजों ने कई लोगों को चौंका दिया है, खासकर उन लोगों को जो उम्मीद कर रहे थे कि एनसीपी (शरद पवार) और शिवसेना (यूबीटी) थोड़ा बेहतर प्रदर्शन करेंगे, ताकि वे कुछ महत्वपूर्ण संख्या हासिल कर सकें और विधानसभा में अपनी बात रख सकें.
2019 के महाराष्ट्र विधानसभा चुनाव में अविभाजित एनसीपी ने 54 सीटें जीती थीं, जबकि अविभाजित शिवसेना ने 56 सीटें जीती थीं. पिछली बार अविभाजित शिवसेना ने भाजपा के साथ चुनाव लड़ा था, जबकि अविभाजित एनसीपी ने कांग्रेस के साथ चुनाव लड़ा था.
चुनाव आयोग के आंकड़ों के अनुसार 2024 के महाराष्ट्र विधानसभा चुनाव में शिंदे की शिवसेना ने अब तक 57 सीटें जीती हैं, जबकि एनसीपी ने अब तक 41 सीटें जीती हैं इसके विपरीत, शिवसेना (यूबीटी) और एनसीपी (शरद पवार) का प्रदर्शन खराब रहा है. एनसीपी (एसपी) ने अब तक 10 सीटें जीती हैं, जबकि शिवसेना (यूबीटी) ने 20 सीटें जीती हैं.
शरद पवार की एनसीपी से अलग होकर बनी अजित पवार की एनसीपी ने आगे बढ़कर वरिष्ठ पवार को निराश और टूटा हुआ छोड़ दिया, जबकि वे अपने राजनीतिक करियर के अंतिम पड़ाव पर हैं. इसके साथ ही उनकी राजनीतिक विरासत का अस्तित्व ही खतरे में पड़ गया है. अपनी बेटी सुप्रिया सुले के प्रति अपने स्नेह के कारण वरिष्ठ पवार को भारी कीमत चुकानी पड़ी और उनके नेतृत्व वाली राष्ट्रीय कांग्रेस पार्टी का विघटन हुआ.
इसी तरह शिवसेना के उद्धव ठाकरे शिवसेना के अस्तित्व को खतरे में डालने के बजाय एकनाथ शिंदे को सम्मानजनक पद देकर संतुष्ट रख सकते थे, जिस पर उनका दावा है कि वह उनकी है. वह अपने चचेरे भाई राज ठाकरे के साथ भी समझौता कर सकते थे. हालांकि, वार्ताकारों ने उद्धव और राज के बीच मध्यस्थता करने की कोशिश की, लेकिन बात नहीं बन सकती और दोनों को एक-दूसरे के खिलाफ कर दिया. अब एकनाथ शिंदे को मिले लोकप्रिय जनादेश ने अनिर्णायक लड़ाई को आसानी से तय कर दिया क्योंकि बालासाहेब ठाकरे की शिवसेना पर उनके बेटे उद्धव का दावा शिंदे के पास ही रहा.
सीनियर पवार, उद्धव और कांग्रेस नेताओं को 2024 के लोकसभा चुनावों के बाद कुछ उम्मीद थी, लेकिन उनकी आत्मसंतुष्टि - उनके आंतरिक कलह से पता चलता है - उन्होंने मतदाताओं में असंतोष भड़काकर भाजपा के लिए मैदान खुला छोड़ दिया.
नतीजों ने न केवल उद्धव या शरद को खतरे में डाल दिया है, बल्कि अजित के नेतृत्व वाली एनसीपी और एकनाथ के नेतृत्व वाली शिवसेना को भी खतरे में डाल दिया है, जिनकी संख्या इतनी कम है कि आने वाले दिनों और हफ्तों में जब उन्हें सरकार गठन के दौरान भाजपा के साथ बातचीत करने की जरूरत होगी, तो वे अपनी आवाज नहीं उठा पाएंगे.