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जानें, तीन नए आपराधिक कानूनों का न्याय व्यवस्था और नागरिकों पर क्या असर होगा - Justice Madan Lokur on 3 laws

Justice Madan Lokur on 3 New laws: 1 जुलाई 2024 से देश में तीन नए आपराधिक कानून - भारतीय न्याय संहिता (BNS), भारतीय नागरिक सुरक्षा संहिता (BNSS) और भारतीय साक्ष्य अधिनियम (BSA) - लागू कर दिए गए हैं. नए कानून दशकों पुराने भारतीय दंड संहिता (IPC), आपराधिक प्रक्रिया संहिता और 1872 के भारतीय साक्ष्य अधिनियम की जगह पर लाया गया है. सुप्रीम कोर्ट के पूर्व न्यायमूर्ति ने नए कानूनों में क्या कमियां और अच्छाइयां हैं, उसे विस्तार से समझाया है.

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सुप्रीम कोर्ट के पूर्व जज मदन लोकुर (फाइल फोटो) (ANI)

By Justice Madan Lokur

Published : Jul 29, 2024, 6:13 AM IST

Updated : Jul 30, 2024, 2:44 PM IST

नई दिल्ली: आपराधिक न्याय प्रशासन से संबंधित तीन नए कानून 1 जुलाई, 2024 से लागू किए गए हैं. ये तीन कानून काफी समय से चर्चा का विषय रहे हैं, जिसको लेकर बहुत कुछ लिखा और बोला गया है. भारतीय न्यायविद् जस्टिस मदन लोकुर ने इन तीन कानूनों के बारे में विस्तार से समझाया है. उन्होंने यहां भारतीय न्याय संहिता (BNS), भारतीय नागरिक सुरक्षा संहिता (BNSS) और भारतीय साक्ष्य अधिनियम (BSA) का उल्लेख किया है. ये तीन कानून भारतीय दंड संहिता (आईपीसी), दंड प्रक्रिया संहिता और भारतीय साक्ष्य अधिनियम का स्थान लिया है.

सुप्रीम कोर्ट के पूर्व जज लोकुर ने कहा कि, इन कानूनों के प्रभाव की चर्चा एक छोटे लेख में नहीं की जा सकती. इसलिए, वे इन कानूनों के केवल कुछ पहलुओं के बारे में चर्चा करना चाहते हैं. हालांकि, उन्होंने एक जुलाई से लागू किए गए कानूनों को लेकर कहा कि, इनमें से कुछ अजीब हैं, कुछ अच्छे हैं और कुछ में भारी बदलाव की आवश्यकता है.

बीएनएस में क्या अजीब है?
भारतीय न्याविद् जस्टिस मदन लोकुर ने बताया कि, इन कानूनों का घोषित उद्देश्य औपनिवेशिक मानसिकता से छुटकारा पाना था, लेकिन लगभग 90 फीसदी बीएनएस एक कट और पेस्ट का काम है. उन्होंने आगे कहा कि, आईपीसी की मूल संरचना को बरकरार रखा जा सकता था और इसमें आवश्यक संशोधन किये जा सकते थे. जो अधिकतर औपनिवेशिक कानून बना हुआ है उसे दोबारा अधिनियमित करने की कोई आवश्यकता नहीं थी. उन्होंने निष्कर्ष निकाला कि, बीएनएस नई बोतल में पुरानी शराब के अलावा कुछ नहीं है.

जस्टिस लोकुर ने बताया कि, आईपीसी में सबसे अधिक दुरुपयोग की जाने वाली धाराओं में से एक धारा राजद्रोह की थी. उन्होंने विस्तार से समझाते हुए कहा कि, इनोसेंट ट्वीट्स के लिए युवाओं को गिरफ्तार किया गया. कुछ समय पहले, सर्वोच्च न्यायालय और वास्तव में देश को यह धारणा दी गई थी कि इस औपनिवेशिक प्रावधान को निरस्त कर दिया जाएगा. लेकिन अब हम पाते हैं कि इसका उलटा हुआ है. नया प्रावधान (धारा 152 बीएनएस) देशद्रोह प्लस है. अब अधिक कठोर दंड वाले प्रावधान के दुरुपयोग की अधिक गुंजाइश है. कुछ दिन पहले फिलिस्तीन का झंडा लहराने के आरोप में कुछ लोगों को गिरफ्तार किया गया था. अब, उन पर धारा 152 बीएनएस के तहत विध्वंसक गतिविधि के लिए अपरिभाषित उत्तेजना का आरोप लगाया जा सकता है.

जस्टिस लोकुर ने कहा कि, इसी तरह, आईपीसी की एक दुरुपयोग धारा 153ए (विभिन्न समूहों के बीच दुश्मनी को बढ़ावा देना) को फिर से अधिनियमित किया गया है और धारा 196 बीएनएस के रूप में विस्तारित किया गया है। इस धारा के तहत किसी व्यक्ति पर गैर-जमानती अपराध दर्ज करने के लिए पुलिस को अभी भी भारी विवेकाधिकार दिया गया है। लेकिन, पहले की तरह, नफरत फैलाने वालों के खिलाफ इसका इस्तेमाल होने की संभावना नहीं है।

नए कानून में अच्छा क्या है?
फिजी सुप्रीम कोर्ट के न्यायाधीश लोकुर ने कहा कि, बीएनएसएस में कुछ अच्छे प्रावधानों में तलाशी के मामलों में वीडियोग्राफी शामिल है (धारा 185) लेकिन मोबाइल फोन पर...उम्मीद है, इससे अधिकारियों की कभी-कभार होने वाली मनमानी खत्म हो जाएगी. लेकिन ऐसा लगता है कि वीडियोग्राफी के लिए कोई मानक संचालन प्रक्रिया नहीं है.

कानून के तहत अब पुलिस स्टेशन में गिरफ्तार व्यक्तियों की सूची प्रदर्शित करना अनिवार्य है (धारा 37)। अच्छा है, लेकिन अगर गिरफ़्तारी नहीं दिखाई तो क्या होगा? पुलिस यह खेल खेलने के लिए जानी जाती है। 3 वर्ष से कम सजा वाले अपराधों में 60 वर्ष से अधिक आयु के व्यक्तियों की गिरफ्तारी (धारा 35) पर भी प्रतिबंध है। आयु का सत्यापन कैसे किया जाता है? वैसे, ऐसे अधिकतर अपराध कुल मिलाकर जमानती होते हैं। तो यह वास्तव में एक हास्यपूर्ण सुधार है।

जस्टिस लोकुर ने बीएनएसएस कानून के विषय पर चर्चा करते हुए बताया कि, इस नए कानून में अपराध के शिकार व्यक्ति को कुछ कॉस्मेटिक लाभ प्रदान करता है. उन्होंने उदाहरण देते हुए कहा, 'धारा 193 में प्रावधान है कि यौन अपराधों के मामलों में जांच दो महीने के भीतर पूरी की जानी चाहिए. हालांकि प्रावधान अच्छा है, अगर जांच दो महीने के भीतर पूरी नहीं होती है, तो समय बढ़ाने के लिए अदालत का दरवाजा खटखटाया जा सकता है. उसके लिए समय सीमा क्यों तय करें? एक शर्त यह भी है कि यौन अपराध के मामले में पुलिस को 90 दिनों के भीतर पीड़ित को जांच की प्रगति के बारे में सूचित करना होगा. अगर जानकारी नहीं दी तो कोई फर्क नहीं पड़ता. क्या पुलिस वास्तव में इस प्रावधान का सम्मान करेगी? अजीब बात यह है कि 90 दिनों के बाद जानकारी देने की कोई आवश्यकता नहीं है. उन्होंने कहा कि, इस नए कानून में बहुत सारी कमियां है, जो बिना किसी अनिवार्य अनुवर्ती कार्रवाई के अच्छे प्रावधानों को भी निरर्थक बना देती हैं.

कानून में परिवर्तन की आवश्यकता
जस्टिस मदन लोकुर ने कहा कि, बीएनएस ने कठोर प्रावधान पेश किए हैं. उदाहरण के लिए, आतंकवादी घटना को अंजाम देने वाले किसी संगठन की सदस्यता मात्र आजीवन कारावास (धारा 113) से दंडनीय है. इसलिए, एक अच्छी तरह से स्थापित क्लब के एक अनिवासी सदस्य को गिरफ्तार किया जा सकता है यदि उस क्लब का कोई क्रैकपॉट सदस्य आतंकवादी कृत्य करता है.

उन्होंने पुलिस एक्शन पर सवाल खड़े करते हुए कहा कि, पुलिस को गिरफ्तारी की शक्ति का बेधड़क दुरुपयोग करने के लिए जाना जाता है. वर्तमान समय में जवाबदेही अत्यंत जरूरी है. हम कानूनों को हथियारबंद होते और पुलिस को बच निकलते हुए देख रहे हैं. जवाबदेही का अभाव आजादी से पहले का अभिशाप है और यह जारी है. नए कानून इसका प्रावधान करने में विफल रहे हैं. झूठी गिरफ्तारियों और फेक एनकाउंटर के लिए पुलिस को जवाबदेह बनाया जाना चाहिए.

जस्टिस लोकुर ने आगे कहा कि, लिखा गया जमानत का प्रावधान (धारा 480 बीएनएसएस) स्पष्ट नहीं है. इसे इस तरह से पढ़ा जा सकता है कि हत्या के आरोपी व्यक्ति को जमानत नहीं दी जा सकती. इसके अलावा, पुलिस किसी आरोपी को गिरफ्तारी के पहले 40 दिनों के भीतर कभी भी और इस अवधि के दौरान कई बार हिरासत में ले सकती है. यह न्यायाधीशों को किसी आरोपी को जमानत देने से स्पष्ट रूप से हतोत्साहित करेगा, जिसके परिणामस्वरूप कुछ मामलों में 40 दिनों के कारावास की कमोबेश गारंटी होगी.

सुप्रीम कोर्ट के पूर्व जज जस्टिस मदन लोकुर ने धारा 173 बीएनएसएस का जिक्र करते हुए कहा कि, जीरो एफआईआर दर्ज करना अब कानून का हिस्सा है. यह प्रथा पहले से ही प्रचलित थी, लेकिन अब इसे वैधानिक मान्यता दे दी गई है. उन्होंने कहा कि, एफआईआर को तत्काल संबंधित पुलिस स्टेशन में स्थानांतरित करने का कोई प्रावधान नहीं है. लोकुर ने कहा, याद रखें, जब मणिपुर में दो महिलाओं को नग्न कर घुमाया गया था, तो एक जीरो एफआईआर दर्ज की गई थी, लेकिन लगभग दो सप्ताह तक इसे अधिकार क्षेत्र वाले पुलिस स्टेशन में ट्रांसफर नहीं किया गया था. उन्होंने कहा, हम सभी देरी के परिणामों को जानते हैं.

उन्होंने लागू तीन नए कानूनों का जिक्र करते हुए कहा कि, नए कानूनों में ऐसे कई प्रावधान अस्पष्ट शब्दों में हैं जिसकी वजह से नए कानूनों पर वकीलों की तरफ से लंबी बहस की जा सकती है. ऐसे में ट्रायल कोर्ट और हाई कोर्ट में जजों पर बोझ बढ़ेगा. उन्हें कुछ मामलों को पुरानी कानूनी व्यवस्था के तहत और कुछ को नई कानूनी व्यवस्था के तहत निपटाना होगा जो कि कोई आसान काम नहीं है. इसका नतीजा चारो तरफ अव्यवस्था और मुकदमों के निपटारे में गिरावट आएगी और ऐसे में इससे किसे लाभ होता है?

इस समस्या का समाधान क्या है?
नए कानूनों में अगर कुछ न कुछ समस्याएं हैं तो फिर इसका समाधान क्या हो सकता है. सुप्रीम कोर्ट के पूर्व जज लोकुर ने कहा कि, उनका दृढ़ मत है कि जवाबदेही सभी स्तरों पर होनी चाहिए, चाहे वह आम नागरिक हो या वरिष्ठ नौकरशाह या पुलिस अधिकारी. कानूनों के कार्यान्वयन में समानता के बिना, हम दो कानूनी प्रणालियों द्वारा शासित होते रहेंगे, एक उन लोगों के लिए जिनके पास शक्ति है और दूसरी आम नागरिकों के लिए. उन्होंने आगे कहा कि, 'यदि हम औपनिवेशिक खुमारी को दूर करने के बारे में गंभीर हैं, तो आइए हम सभी के लिए कानून का शासन लागू करके शुरुआत करें और न्याय वितरण में वॉशिंग मशीन सिंड्रोम को जारी न रखें.'

जस्टिस मदन लोकुर एक भारतीय न्यायविद् हैं. सुप्रीम कोर्ट के पूर्व जज लोकुर वर्तमान में फिजी के सुप्रीम कोर्ट के न्यायाधीश हैं. उन्होंने आंध्र प्रदेश उच्च न्यायालय और गुवाहाटी उच्च न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश के रूप में कार्य किया है. लोकुर दिल्ली उच्च न्यायालय में न्यायाधीश भी रह चुके हैं.

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Last Updated : Jul 30, 2024, 2:44 PM IST

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