हैदराबाद:पिछले कई दशकों से अर्थव्यवस्था के सामने सबसे बड़ी समस्या औपचारिक क्षेत्र में उचित वेतन के साथ रोजगार सृजन में सुस्ती रही है. हालांकि आवधिक श्रम बल सर्वेक्षण (पीएलएफएस) के अनुसार पिछले पांच वर्षों में श्रम बल भागीदारी दर में सुधार हुआ है, लेकिन वित्त वर्ष 2022-23 में यह सिर्फ 50.6 प्रतिशत थी, जबकि महिला श्रम बल भागीदारी दर सिर्फ 31.6 प्रतिशत थी. इस बात के पर्याप्त सबूत हैं कि युवा आबादी में बेरोजगारी दर उच्च बनी हुई है, जो असंतोषजनक है. पीएलएफएस डेटा के अनुसार, 15 से 29 वर्ष की उम्र के युवाओं के लिए अनुमानित बेरोजगारी दर 2022-23 में 12.9 प्रतिशत थी, जो पिछले तीन वर्षों में बढ़ी है. यह हमारे जनसांख्यिकीय लाभांश का फायदा उठाने में गिरावट को दर्शाता है.
पिछले 75 वर्षों में, जो देश अपने कार्यबल के लिए पर्याप्त रोजगार पैदा करने में सफल रहे हैं, उन्होंने अपने निर्यात को बढ़ाने और विश्व बाजारों में बड़ा हिस्सा हासिल करने पर भरोसा किया है. दूसरे विश्व युद्ध के बाद के शुरुआती दशकों में सिंगापुर, कोरिया, ताइवान और जापान एशिया की चार तेजी से विकास करती अर्थव्यवस्थाएं थीं, जिन्होंने निर्यात-प्रोत्साहन नीतियों को अपनाया और वर्षों बाद पूर्ण रोजगार हासिल किया. उस समय हमारे सदाबहार निर्यात निराशावादियों ने तर्क दिया कि उनका उदाहरण भारत के लिए प्रासंगिक नहीं है क्योंकि ये छोटी अर्थव्यवस्थाएं थीं, जिनमें पर्याप्त घरेलू मांग नहीं थी, जबकि भारत की आबादी बहुत ज्यादा थी. वे भूल गए कि बड़ी आबादी, कम प्रति व्यक्ति आय के साथ घरेलू कंपनियों के लिए वैश्विक स्तर और प्रतिस्पर्धा में कामयाबी हासिल करने के लिए पर्याप्त मांग का प्रतिनिधित्व नहीं करती है.
आईआईटी में प्लेसमेंट के चिंताजनक आंकड़े
प्रतिष्ठित आईआईटी से नवीनतम समाचार काफी चिंताजनक है, आईआईटी मुंबई ने कहा है कि 2024 में 33 प्रतिशत छात्रों का प्लेसमेंट नहीं हुआ, जबकि 2023 में 18 प्रतिशत छात्रों का प्लेसमेंट नहीं था. इसी तरह आईआईटी दिल्ली ने बताया है कि उसके 22 प्रतिशत स्नातक छात्रों को चालू वर्ष में संतोषजनक प्लेसमेंट नहीं मिल पाया है.
रोजगार करने वालों में से एक बहुत बड़ा हिस्सा स्वरोजगार में लगा हुआ है. पिछले कुछ वर्षों में स्वरोजगार करने वालों की संख्या में वृद्धि हुई है. एनएसओ के ताजा आंकड़ों के अनुसार, स्वरोजगार करने वालों की संख्या 2020-21 में 55.6 प्रतिशत थाी और 2022-23 में बढ़कर 57 प्रतिशत हो गई है. यह अपने आप में अच्छा संकेत नहीं है क्योंकि स्वरोजगार करने वालों में से अधिकांश ऐसी बेरोजगारी का प्रतिनिधित्व करते हैं, जिनकी पहचान करना आसान नहीं है. इसके अलावा, स्वरोजगार करने वालों में से लगभग पांचवां (18 प्रतिशत) 'घरेलू उद्यमों में अवैतनिक सहायक' हैं, जिन्हें वेतन नहीं मिलता है.
भारत में बेरोजगारी की स्थिति को सही ढंग से समझने के लिए स्वरोजगार की इस श्रेणी के फैलाव को पहचानना जरूरी है. चिंता की बात यह है कि पिछले कुछ वर्षों में स्वरोजगार करने वालों की संख्या में वृद्धि औपचारिक कार्यस्थल में संकट के कारण हुई. यह पिछले पांच वर्षों में कृषि कार्यबल में वृद्धि से भी पता चलता है. यह शहरी आधारित विनिर्माण क्षेत्र में रोजगार के अवसरों की कमी को दर्शाता है. देश में बेरोजगारी की समस्या को नकारने का प्रयास युवा आबादी की आकांक्षाओं के खिलाफ है, लेकिन इससे भी महत्वपूर्ण बात यह है कि यह नीतिगत ध्यान को उस प्रमुख मुद्दे से हटा देता है जिस पर इसे आगे बढ़ने के लिए ध्यान केंद्रित करना चाहिए.
मुफ्त चीजें बांटना कोई समाधान नहीं...
नकद सहायता (विभिन्न प्रकार की पेंशन और अन्य सुविधाएं) और मुफ्त अनाज आवंटन एक सुरक्षित नौकरी और नियमित आय का विकल्प नहीं है. सहायता को अस्थायी माना जाना चाहिए और यह लाभार्थियों के आत्म-सम्मान (आत्मविश्वास) को भी ठेस पहुंचाता है.
अनाज आवंटन जीविका की अनिवार्यता को पूरा करता है, लेकिन निश्चित रूप से कपड़े, स्वास्थ्य और शिक्षा सहित अन्य आवश्यक व्ययों के लिए पर्याप्त नहीं है. पर्याप्त रोजगार सृजन की कमी शायद पिछले पांच वर्षों में निजी खपत में वृद्धि की अस्वीकार्य रूप से कम दर में सबसे अच्छी तरह से झलकती है, जब इसने मात्र 4.2 प्रतिशत की वृद्धि दर्ज की, जो लगभग 7 प्रतिशत की औसत जीडीपी वृद्धि दर से काफी कम है. पिछले कुछ वर्षों में कोविड महामारी के बाद के K-आकार के आर्थिक सुधार में, औपचारिक रोजगार में कमजोर वृद्धि के कारण निम्न आय वर्ग के लोगों की आय में वृद्धि नहीं देखी गई है. इसलिए सरकार को अपेक्षाकृत उच्च आर्थिक विकास दर बनाए रखने के लिए इस बड़ी बाधा पर ध्यान केंद्रित करना चाहिए.
कम आय वाली अर्थव्यवस्था में (जिसमें भारत अभी भी लगभग 3000 अमेरिकी डॉलर की प्रति व्यक्ति आय पर है) घरेलू निवेशकों के लिए घरेलू मांग को स्थिर करने के लिए बाहरी मांग का उपयोग करने के अलावा कोई विकल्प नहीं है, ताकि वे क्षमता विस्तार में अपने निवेश को बढ़ा सकें और वैश्विक रूप से तुलनीय पैमाने और प्रतिस्पर्धात्मकता प्राप्त कर सकें.
गुणवत्तापूर्ण रोजगार कैसे सृजित करें?
स्वरोजगार को छोड़कर, आवश्यक संख्या में 'अच्छी गुणवत्ता वाली नौकरियों' के सृजन के लिए भारत को ग्लोबल मर्चन्डाइज व्यापार में अपनी हिस्सेदारी बढ़ाने पर ध्यान केंद्रित करना चाहिए. विनिर्माण क्षेत्र के निर्यात में विस्तार, उनके अनेक पिछड़े लिंकेज तथा कुशल और अर्ध-कुशल श्रम की उच्च मांग ही आवश्यक नौकरियों का सृजन करेगी तथा कृषि क्षेत्र से श्रम को बाहर निकालेगी.
हां, पर्यटन से राजस्व बढ़ाने सहित सेवा निर्यात में वृद्धि निश्चित रूप से मदद करेगी. लेकिन इस तर्क में कोई दम नहीं है कि सेवा निर्यात भारत के लिए अपने आर्थिक विकास को तेज करने और आवश्यक संख्या में नौकरियां पैदा करने के लिए निर्मित वस्तुओं के निर्यात में मजबूत वृद्धि की जगह ले सकता है. हां, यह सच है कि रोबोटाइजेशन, एआई और रीशोरिंग निर्यात-आधारित रोजगार सृजन रणनीति को प्राप्त करने में संभावित बाधाएं हैं. लेकिन यह देखते हुए कि इसका कोई विकल्प नहीं है, हमें आगे का रास्ता खोजना होगा जैसा कि अन्य देशों ने किया है, जब उन्होंने अपनी निर्यात-आधारित रणनीति पर काम शुरू किया तो उन्हें न केवल समान बल्कि अन्य बाधाओं का सामना करना पड़ा.
आगे का रास्ता राज्या द्वारा निर्यात प्रोत्साहन नीतियों को डिजाइन करना होगा. भारत जैसी विशाल और विविधतापूर्ण अर्थव्यवस्था में अखिल भारतीय निर्यात संवर्धन नीति निश्चित रूप से अनुकूल है. राज्य की विशिष्ट निर्यात संवर्धन नीतियां विशेष बाधाओं को सुलझाएंगी और राज्यों के तुलनात्मक और प्रतिस्पर्धी लाभ को ध्यान में रखेंगी. यह एक ऐसी परियोजना है जिसे शुरू किया जाना चाहिए.
राज्य-विशिष्ट नीतियां कैसे गेम-चेंजर साबित हो सकती हैं...
आइए हम दूसरे देशों में कृषि उत्पादों के निर्यात को बढ़ावा देकर रोजगार सृजन के लिए केरल की पहल पर नजर डालें...