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लोकसभा चुनाव में NDA को मिला जनादेश तो विपक्ष भी हुआ मजबूत - Democracy And Governance

By ETV Bharat Hindi Team

Published : Jun 29, 2024, 5:30 PM IST

Democracy And Governance: जैसे-जैसे दुनिया तेजी से विकसित हो रही है, वैसे-वैसे लोकतंत्र की अवधारणा और कार्यान्वयन अभूतपूर्व चुनौतियों और अनिश्चितताओं का सामना कर रहे हैं. बेंगलुरु स्थित शासन और विकास केंद्र में राजनीति विज्ञान के प्रोफेसर और लेखक अनिल कुमार वद्दीराजू ने इस लेख में बताया कि भारत में चुनावी लोकतंत्र जीवंत है, जानें कैसे...

DEMOCRACY AND GOVERNANCE
Etv Bharat (ANI)

बेंगलुरु :हाल के चुनावों ने इस बात को बिना किसी संदेह के साबित कर दिया है कि भारत में चुनावी लोकतंत्र जीवंत है. चुनावों ने एनडीए को जनादेश दिया है जबकि विपक्ष भी पहले से ज्यादा मजबूत होकर उभरा है. यह निश्चित रूप से भारतीय लोकतंत्र के लिए स्वस्थ है. हालांकि, नई केंद्र सरकार के साथ यह देखना दिलचस्प है कि उसने बेहतर शासन के लिए अपने संकल्प को और मजबूत किया है. इसके लिए लोकतंत्र और शासन पर चर्चा पर विचार करने की जरूरत है.

लेखक अनिल कुमार वद्दीराजू का तर्क यह है कि प्रभावी लोकतंत्र अपने आप में अच्छे शासन का संकेत है, लेकिन लोकतंत्र और शासन के कामकाज में विरोधाभास हो सकता है. ऐसा इसलिए है क्योंकि लोकतांत्रिक प्रक्रियाओं में संस्थागत प्रक्रियाएं शामिल होती हैं जो समय लेने वाली होती हैं. दूसरा, लोकतंत्र हमेशा गड़बड़ राजनीति का कारण बनता है. ये दो कारक शब्द के नव-उदारवादी अर्थ में शासन को कठिन बनाते हैं. शासन, विशेष रूप से प्रशासन और अर्थव्यवस्था में नव-उदारवादी सुधारों को लागू करने के लिए, एक उत्साही लोकतंत्र में कड़े विरोध का सामना करना पड़ता है.

अनिल कुमार ने आगे कहा कि नव-उदारवादी शासन सुधारों का विरोध केवल विपक्षी दलों से ही नहीं, बल्कि नौकरशाही के विभिन्न स्तरों सहित विभिन्न हितधारकों से भी होता है. नव-उदारवादी सुधारों को लागू करने के मामले में विकासशील देशों के अनुभव में, सरकारें शासन की खोज में उतनी ही विफल रही हैं, जितनी कि शासन की कमी के कारण. विकास साहित्य अक्सर हमें याद दिलाता है कि प्रभावी शासन और शासन सुधारों को लागू करना एक-रेखीय प्रक्रिया नहीं है. अक्सर इस प्रक्रिया को पुनरावृत्त माना जाता है. लोकतंत्र में चर्चा, समझौता, अनुनय शामिल होता है. उदार लोकतंत्र को 'चर्चा द्वारा सरकार' के रूप में जाना जाता है.

यदि नई एनडीए सरकार और उसके सहयोगी शासन करना चाहते हैं, तो उन्हें इस पर ध्यान देने की आवश्यकता है. यह विशेष रूप से गठबंधन सरकारों के मामले में है, जिसमें गठबंधन के आंतरिक दलों और हितों की मांगों को विपक्षी दलों की आलोचनाओं के समान ही महत्व दिया जाना चाहिए. एक काल्पनिक रूप से कहा जा सकता है कि लोकतंत्र जितना मजबूत होगा, शासन प्रक्रिया उतनी ही गड़बड़ होगी. ऐसी स्थिति में केंद्र और राज्य दोनों ही स्तर पर सरकारें बेलगाम तरीके से नव-उदारवादी शासन सुधारों को लागू नहीं कर सकतीं . यह हमें राजनीतिक संस्थाओं की भूमिका की ओर ले जाता है. राज्य और केंद्र स्तर पर नई सरकारें संसद और विधानसभाओं जैसी संस्थाओं को हल्के में नहीं ले सकतीं, न ही उनके भीतर विपक्ष को दबा सकती हैं.

लेखक ने आगे कहा कि संसद को राज्य विधानसभाओं के लिए 'चर्चा द्वारा सरकार' का मॉडल प्रदान करना चाहिए. विपक्ष के सांसदों का बेलगाम निलंबन नहीं होना चाहिए. नई सरकारों को इस तथ्य की निरंतर चेतना की आवश्यकता है कि लोगों ने उन्हें लोकतांत्रिक प्रक्रिया से वोट दिया है और संसद या विधानसभा के भीतर और बाहर समान सम्मान किया जाना चाहिए.

अंतिम, लेकिन बहुत महत्वपूर्ण बात यह है कि राज्य की दमनकारी एजेंसियों के माध्यम से विपक्ष की आवाज को चुप कराने पर प्रभावी शासन की प्रक्रिया के रूप में पुनर्विचार किया जाना चाहिए. इन एजेंसियों के बहुत असीमित तरीके से उपयोग ने हाल के चुनावों में विपक्ष को मजबूत बना दिया है. ऐसे में शासन के प्रति सावधान और संतुलित दृष्टिकोण की आवश्यकता है, जिसमें निरंतर यह जागरूकता हो कि भारत जैसे लोकतंत्र में शासन सुधारों के लिए एकनिष्ठ प्रयास से इच्छित परिणाम नहीं बल्कि केवल सरकारें बदल सकती हैं. इसलिए लोकतंत्र और शासन के बीच संबंधों पर विचार करने की बहुत आवश्यकता है.

लोकतंत्र और लोकतांत्रिक राजनीति एक बार राजनीति में अपनी जड़ें जमा लेने के बाद बहुत अधिक गहन हो जाती हैं. किसी देश की लोकतांत्रिक राजनीति जितनी मजबूत होगी, शासन सुधारों, विशेष रूप से नव-उदारवादी शासन सुधारों को लागू करने में उसके प्रयास उतने ही गड़बड़ होंगे.

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