रांचीः कोल्हान के टाइगर और झामुमो के वरिष्ठ नेता चंपाई सोरेन पिछले कई दिनों से सुर्खियों में हैं. 18 अगस्त को कोलकाता के रास्ते दिल्ली पहुंचने पर उन्होंने कहा था कि "अभी हम जहां पर हैं, वहीं पर हैं ". लेकिन इस बयान के चंद घंटों के भीतर उन्होंने सोशल मीडिया पर भावनात्मक पोस्ट के जरिए अपने दिल की बात साझा कर दी थी. सीएम रहते अपने साथ हुए अपमान का हवाला देते हुए उन्होंने कहा था कि उनके पास अब सिर्फ तीन विकल्प बचे हैं.
पहला, राजनीति से संन्यास लेना, दूसरा, अपना अलग संगठन खड़ा करना और तीसरा, इस राह में अगर कोई साथी मिले तो उसके साथ आगे का सफर तय करना. एक नेता के तौर पर उनके तीसरे विकल्प को लेकर कयास लगाए जा रहे थे. ये चर्चा थी कि कि वे दिल्ली में भाजपा ज्वाइन कर लेंगे. तीन दिन गुजर गये लेकिन ऐसा नहीं हुआ. अलबत्ता, भाजपा के प्रदेश अध्यक्ष बाबूलाल मरांडी ने चंपाई सोरेन के प्रति सहानुभूति जताते हुए इतना भर कहा कि जब कोई दुखी होता है तो किसी से भी संपर्क करता है, मिलता है, जुलता है. अगर कहीं ढंग से ठौर-ठिकाना मिल जाता है तो फिर छोड़ देता है.
इस बीच मंगलवार को दिल्ली से निकलते वक्त उन्होंने कह दिया है कि वे कोलकाता होते हुए सीधे सरायकेला जा रहे हैं. उनकी भाजपा के किसी भी नेता से बात नहीं हुई है. वह अपने स्टैंड पर कायम हैं. अब सवाल है कि चंपाई सोरेन के पास क्या विकल्प बचा है. तीसरा विकल्प तो ठंडे बस्ते में चला गया. अब क्या चंपाई सोरेन राजनीति से संन्यास ले लेंगे या फिर अपना संगठन खड़ा करेंगे.
अलग संगठन ही आखिरी विकल्प?
झारखंड की राजनीति को बारीकी से समझने वाले वरिष्ठ पत्रकार मधुकर के मुताबिक गुंजाईश है कि सरेंडर कर जाएं. बशर्ते, उनके पुत्र बाबूलाल सोरेन को टिकट देने के लिए हेमंत सोरेन राजी हों. इसकी संभावना कम दिख रही है. संन्यास वाला पहला विकल्प अपनाना होता तो सीएम का पद छोड़कर मंत्री बनते ही नहीं. ऐसे में चंपाई सोरेन के पास अलग संगठन खड़ा करने के सिवा कोई दूसरा रास्ता नहीं बचता है. यह सोच विचार के बाद लिया गया पॉलिटिकल मूव होगा. क्योंकि अलग संगठन बनाकर चंपाई सोरेन आदिवासी समाज को बताएंगे कि हेमंत सोरेन ने उनको अपमानित किया है. भले झामुमो ने कांग्रेस के एक मंत्री के जरिए चंपाई पर आरोप मढ़ने का खेल खेला लेकिन यह भी सही है कि आम लोगों के बीच इस बात की चर्चा है कि चंपाई के साथ अन्याय हुआ है. हालांकि यह भी नहीं भूलना चाहिए कि एक-दो नेताओं (अर्जुन मुंडा, विद्युत वरण महतो) को छोड़ दें तो झामुमो से अलग होकर अपने जमाने का कोई भी बड़ा नेता अलग लकीर नहीं खींच पाया. हेमलाल मुर्मू, स्टीफन मरांडी, लोबिन हेंब्रम का उदाहरण सबसे सामने है.