भुवनेश्वर: आम की गुठली खाने से 3 महिलाओं के मौत कुछ दिन बाद बाद मंडीपांका गांव में सन्नाटा पसरा हुआ है और यहां के लोग अनिश्चितता में खोए हुए हैं. इस बीच ईटीवी भारत के संवाददाता सीमर कुमार आचार्या मंडीपांका पहुंचे. इस दौरान जैसे ही उन्होंने मंडीपांका की धरती पर कदम रखा, उन्हें घबराहट होने लगी.
उन्होंने बताया, जब मैं गांव पहुंचा तो वहां शांति थी. हालांकि, यह कई मायनों में परेशान करने वाली थी. सड़कों पर कोई भी व्यक्ति मुझसे बातचीत करने में दिलचस्पी नहीं दिखा रहा था, न ही वे अचानक गांव में घूमने वाले बाहरी लोगों (जांच दल के सदस्य और पत्रकार और सरकारी अधिकारी) की भीड़ को लेकर उत्साहित थे. आम की गुठली के कारण हुई मौतों 20 से जय्दा दिन गुजरजाने के बाद भी मंडीपांका में सन्नाटा पसरा हुआ था और यहां के लोग अनिश्चितता में थे.
बीते 1 नवंबर की सुबह सूरज उगने से पहले मंडीपांका में आठ महिलाओं की गंभीर रूप से बीमार होने की खबर कंधमाल जिले में जंगल की आग की तरह फैल गई और कुछ ही घंटों में आम की गुठली का दलिया खाने से तीन महिलाओं की दुखद मौत एक भयावह सच्चाई बन गई.
गांव में मौत का मातम
दो दशकों से भी ज्यादा समय से ओडिशा खाद्य असुरक्षा से जूझ रहा है, लेकिन मंडीपांका को इससे पहले कभी इतने बड़े नुकसान का सामना नहीं करना पड़ा था. आज त्रासदी को 20 से ज्यादा दिन हो गए हैं, लेकिन यह गांव अभी भी खामोशी से मातम मना रहा है और इस सच्चाई को स्वीकार करने के लिए संघर्ष कर रहा है.
मृतकों के परिवार- जो कभी खुशी और जश्न में एकजुट रहते थे- अब शोक में डूबे हुए हैं. आंसू भरी आंखों वाली एक रिश्तेदार तराना पट्टामाझी कहती हैं, "हम साथ बैठते थे, साथ खाते थे, साथ हंसते थे. अब यह जगह मनहूस लगती है." वही, आम की गुठली जिसने मुश्किल वक्त में समुदाय को सहारा दिया, अब मौत का अग्रदूत बन गई है.
जहरीली हो गईं थी गुठलियां
तीन साल तक सावधानी से स्टोर की गई आम की गुठली को जरूरत के हिसाब से तैयार किया गया था. कई आदिवासी परिवारों के लिए, गुठली सूखे मौसम के दौरान एक विकल्प के तौर पर इस्तेमाल की जाती है. उन्हें धोकर, सुखाकर और बड़ी मेहनत से पीसकर, अक्सर चावल के साथ दलिया के रूप में खाया जाता था, ताकि भूख से बचा जा सके, लेकिन उस दिन, स्टेर की गई गुठली जहरीली हो गईं और फिर उनसे गंभीर पॉइजनिंग हो गई.
इस त्रासदी ने कई ऐसे सवाल छोड़े हैं, जिनके कोई जवाब नहीं मिल सका है. जैसे कि क्या बेहतर जागरूकता या खाद्य सुरक्षा उपायों से इन मौतों को टाला जा सकता था? या यह लगातार खाद्य असुरक्षा और क्या यह पारंपरिक जीवनयापन प्रथाओं पर निर्भरता का नतीजा था?
मंडीपांका अब अपनी महिलाओं की हंसी से नहीं गूंजता. वह स्थान जहां वे कभी भोजन बनाने और कहानियां साझा करने के लिए एकत्र होती थीं, अब भयावह रूप से शांत लगता है. हर घर पर शोक की छाया छा गई है.
एक मासूम बच्चा बेमतलब भटक रहा है, इतना छोटा कि उसे समझ में नहीं आ रहा कि उसकी मां कभी वापस नहीं आएगी. एक पति उस जगह को खाली आंखों से देख रहा है, जहां उसने आखिरी बार अपनी पत्नी को देखा था, वह अच्छे दिनों की यादों में खोया हुआ है. पूरा गांव ठहरा हुआ सा लगता है. ऐसा लगता है कि वह शोक और भय के बीच फंसा हुआ.