देहरादून (उत्तराखंड): गणेश महोत्सव के लिए राजधानी देहरादून के तमाम जगहों पर गोबर से बने गणपति बप्पा की स्थापना की जाएगी. दरअसल, प्रदेश में मौजूद कुछ स्वयं सहायता समूह गोबर से भगवान गणेश की मूर्ति तैयार कर रहे हैं. खास बात यह है कि गोबर से बनी गणेश जी के मूर्तियों की काफी अधिक डिमांड देखी जा रही है. इसके अलावा यह मूर्ति पूरी तरह से इको फ्रेंडली हैं, जिसका पर्यावरण पर कोई नुकसान नहीं पहुंचता है. जानिए इस रिपोर्ट में कैसे बनती हैं गोबर की मूर्तियां और क्या है इसकी विशेषता?
गाय के गोबर से बनाते हैं मूर्तियां:7 सितंबर को गणेश चतुर्थी है, जिसको लेकर पूरे प्रदेश में जोरों से तैयारियां चल रही हैं. गणेश महोत्सव की तैयारियां कुछ समय पहले से ही शुरू हो जाती हैं. लेकिन भगवान गणेश की मूर्ति को तैयार करने वाले कलाकार गणेश महोत्सव शुरू होने से करीब तीन से चार महीने पहले ही मूर्ति बनाने शुरू कर देते हैं. ऐसे ही राजधानी देहरादून में स्वदेश कुटुंब स्वयं सहायता समूह है, जो गाय के गोबर से भगवान गणेश की मूर्तियों को तैयार करता है. मूर्ति तैयार करने की प्रक्रिया गर्मियों के महीने से ही शुरू कर दी जाती है.
इको फ्रेंडली होती हैं मूर्तियां:सनातन धर्म में गाय के गोबर को काफी पवित्र माना गया है. यही वजह है कि किसी भी पूजा पाठ या अनुष्ठान के दौरान गाय का गोबर इस्तेमाल किया जाता है. ऐसे में स्वदेश कुटुम स्वयं सहायता समूह के लोग गाय के गोबर से भगवान गणेश की मूर्ति बना रहे हैं. ईटीवी भारत संवाददाता से बातचीत करते हुए समूह के प्रशिक्षक पवन थापा ने बताया कि जब गणेश महोत्सव संपन्न होने के बाद गणेश जी का विसर्जन किया जाता है तो उसे दौरान नदियों में पड़ी गणेश जी की मूर्तियों को देखकर अच्छा नहीं लगता है. जिसको देखते हुए उन्होंने गोबर से भगवान गणेश की मूर्ति बनाने का निर्णय लिया. क्योंकि ये मूर्ति पानी में जाते ही कुछ ही देर में पूरी तरह से घुल जाती है.
ऐसे बनाई जाती हैं गोबर से मूर्तियां:पवन थापा बताते हैं कि गोबर से गणेश जी की मूर्ति बनाने की प्रक्रिया गर्मियों के सीजन में ही शुरू कर दी जाती है. जिसके तहत गोबर एकत्र करने के बाद उसे छत पर अच्छी तरह से सुखाया जाता है और फिर उसका पाउडर बनाकर रख लेते हैं. साथ ही चिकनी मिट्टी को सुखाकर उसका भी पाउडर बनाकर रखा लेते हैं. इसके बाद गोबर और मिट्टी के पाउडर का अच्छे से घोल बनाकर सांचे में डाल दिया जाता है और फिर सांचे से बनी मूर्ति को निकालने के बाद गोंद की कोडिंग की जाती है, ताकि मूर्ति मजबूत बने और उठाने से टूटे नहीं.