श्रीनगर: सर्दियों में कांगड़ी और कश्मीरी लोग लैला और उसके प्रेमी मजनूं की तरह ही अभिन्न हैं और इन दिनों यह प्रेम प्रसंग जोश से भरा हुआ है. घाटी में हाड़ कंपा देने वाली ठंड पड़ रही है. शनिवार (21 दिसंबर, 2024) को श्रीनगर में इस सदी की सबसे ठंडी रात माइनस 8.5 डिग्री सेल्सियस दर्ज की गई.
कांगड़ी अंगारों से भरा पारंपरिक चूल्हा है. घाटी में सर्दियों के चार महीनों के दौरान ठंड से राहत पाने का लोगों के लिए यही एक सहारा होता है. हर सुबह एक कश्मीरी द्वारा पकड़ी जाने वाली ये पहली चीज है जब पारा हिमांक बिंदु से कई डिग्री नीचे चला जाता है.
ठंड से बचाव के लिए सबसे कारगर उपाय कांगड़ी है. इसे कश्मीरी लोग कांगेर कहते हैं. ये एक मिट्टी का बर्तन (कोंडुल) होता है जो दो हैंडलों के साथ बहु-परत वाले फ्रेम में रखा होता है. इससे यह एक पोर्टेबल हीटर बन जाता है. कांगड़ी को कश्मीर का हीटर भी कहते हैं.
श्रीनगर में रंग-बिरंगी कांगड़ियों को दिखाते स्ट्रीट वेंडर (ETV Bharat)
जैसे ही चिनार के पेड़ों की मेपल जैसी पत्तियां लाल हो जाती हैं जो शरद ऋतु के आगमन का संकेत है. तभी इन कांगड़ी को तैयार कर लिया जाता है. गर्म कांगड़ी को फेरन के पास कुशलतापूर्वक रखने की क्षमता इस क्षेत्र का अभिन्न अंग है. ये एक सच्चे कश्मीरी की पहचान है.
फेरन इस क्षेत्र का एक लंबा, ढीला ऊनी गाउन है. कई लोग इसे पूरी रात भारी रजाई के नीचे आसानी से पकड़ कर रख सकते हैं. इस सर्वव्यापी अग्निपात्र का उल्लेख कश्मीरी इतिहासकार कल्हण के 12वीं सदी के इतिहास राजतरंगिणी में भी मिलता है. इसके अन्य उपयोग भी हैं. घर में बंद रहने के दौरान सर्दियों की भूख मिटाने के लिए आलू, गाजर और अंडे भूनना या इसकी सुगंध के लिए धूप जलाना या इजबंद के बीज (जंगली रूई) जलाना, जिसे बुरी नजर से बचाने वाला माना जाता है.
बादाम से भरी एक लंबी सजावटी कांगड़ी एक नवविवाहित बेटी को उसके नए घर में पहली सर्दी से पहले दिया जाने वाला एक पारंपरिक उपहार है. चरार-ए-शरीफ की सबसे बेशकीमती चरार कांगड़ी में एक जटिल रूप से बुना हुआ होता है. यह तीन प्रसिद्ध किस्मों में से एक है. अन्य बांदीपोरा और अनंतनाग की हैं. इनमें से प्रत्येक का अपना विशिष्ट डिजाइन और स्थायित्व है. फिर कश्मीर के अन्य हिस्सों में तैयार की जाने वाली कांगड़ी में से प्रत्येक किस्म का अपना विशिष्ट मजबूती और डिजाइन है.
बुनकर कांगड़ी तैयार कर रहे हैं (ETV Bharat)
सामाजिक पहलू के अलावा गर्म कोयले से भरी कांगड़ी का उपयोग छोटे-मोटे झगड़ों या राजनीतिक लड़ाइयों के दौरान प्रतिद्वंद्वियों पर हमला करने के लिए एक हथियार के रूप में किया जाता है. ये एक खतरनाक और कभी-कभी हास्यास्पद दृश्य होता है जो देखने वालों में गुस्सा और हंसी दोनों पैदा करता है.
राजधानी श्रीनगर से करीब 65 किलोमीटर दूर दक्षिण कश्मीर के कुलगाम में कई गांवों ने कांगड़ी बनाने की कला में महारत हासिल कर ली है. हर साल ये कांगड़ी कारीगर हजारों पारंपरिक हवन सामग्री तैयार करने में व्यस्त हो जाते हैं. 50 वर्षीय नजीर अहमद मीर जिन्होंने अपने गांव से कांगड़ी बुनने का हुनर सीखा है. वह दलदली भूमि से टहनियां इकट्ठी करते हैं. इन्हें उबाला जाता है, फिर छीला जाता है और सुखाया जाता है. ताकि इसे तैयार किया जा सके. इसे फिर मिट्टी के बर्तनों के चारों ओर बुनकर अग्निपात्र तैयार किए जाते हैं.
बुमरथ गांव के मीर जो खुद रोजाना पांच ऐसे अग्निपात्र तैयार करते हैं. उन्होंने इसके बारे में कहा, 'पिछले 30 सालों से इस व्यापार ने मेरे परिवार का भरण-पोषण किया है. मुझे एक कांगड़ी बुनने में डेढ़ घंटे लगते हैं. हमारा गांव हर महीने 1200 कांगड़ी तैयार करता है और हम उन्हें व्यापारियों को बेचते हैं. मांग के आधार पर प्रत्येक कांगड़ी 150-200 रुपये में बिकती है. कुछ अन्य क्षेत्रों से आने वाली कांगड़ी इससे भी अधिक कीमत पर मिलती है.'
कांगड़ी परंपरा और कश्मीरी संस्कृति का प्रतीक (ETV Bharat)
मीर कहते हैं कि इस साल मांग और कीमतों में गिरावट आई है. आधुनिक इलेक्ट्रिक हीटिंग गैजेट ने हमारे व्यापार को प्रभावित किया है. अब मांग कम है. सरकार को इस शिल्प को बनाए रखने के लिए किसानों के किसान क्रेडिट कार्ड की तर्ज पर हमें सॉफ्ट लोन जैसी वित्तीय सहायता प्रदान करनी चाहिए.
श्रीनगर के एक व्यापारी अहसान उल हक बंदे ने तुर्की लकड़ी के हीटर बनाए. उनका मानना है कि आधुनिक हीटिंग गैजेट की मांग बढ़ रही है. कश्मीर में अंडरफ्लोर इलेक्ट्रिक हीटिंग सिस्टम की भी मांग बढ़ रही है, लेकिन की बिजली की कमी इसके व्यापक उपयोग को सीमित कर रही है.
बांडे ने ईटीवी भारत को बताया, 'हर साल तुर्की बुखारी में वृद्धि हो रही है. यह इस बात से स्पष्ट है कि पिछले पांच वर्षों में एक कंटेनर की तुलना में इस साल उनका शिपमेंट तीन कंटेनर तक बढ़ गया है. तुर्की बुखारी धुआं रहित ओवन होता है. बांडे कहते हैं, 'हीटर सुरक्षित, भरोसेमंद और किफायती है. एक तुर्की हीटर की कीमत मॉडल के हिसाब से करीब 18,000-1,75000 रुपये होती है. इसमें खाना पकाने और ओवन जैसी सुविधाएं भी शामिल हैं.'
उन्होंने कहा, 'हमारे पास 25 मॉडल हैं और इन उत्पादों की मांग न केवल कश्मीर में बल्कि लद्दाख में भी बढ़ रही है. लेकिन बहुत से लोग इसे वहन नहीं कर सकते और इसलिए उन्हें पूरी तरह से पारंपरिक चूल्हे पर निर्भर रहना पड़ता है. श्रीनगर के पुराने शहर में रहने वाले गुलजार अहमद की तरह, एक दिहाड़ी मजदूर का कहना है कि दो स्कूल जाने वाले बच्चों सहित उनके तीन लोगों के परिवार को बिजली के बढ़ते बिल और स्मार्ट मीटर लगने के कारण इस सर्दी में गर्म पानी नहीं मिल पा रहा है. उनका कहना है कि 21 दिसंबर से शुरू होने वाले सबसे कठोर 40 दिनों के चिल्लई कलां के दौरान कांगड़ी ही उन्हें गर्म रखने का एकमात्र साधन है.
सर्दियों के दौरान घाटी में 2,500 मेगावाट बिजली की मांग का लगभग एक तिहाई हिस्सा पूरा नहीं हो पाता है, जिससे प्रतिदिन चार से 12 घंटे तक बिजली कटौती होती है, जिससे पोर्टेबल इलेक्ट्रिक रूम हीटर भी बेकार हो जाता है. कश्मीर पावर डेवलपमेंट कॉरपोरेशन लिमिटेड के एक वरिष्ठ इंजीनियर ने नाम न बताने की शर्त पर कहा कि वे चौबीसों घंटे बिजली आपूर्ति सुनिश्चित करने के लिए काम कर रहे हैं. उन्होंने बताया कि बिजली चोरी रोकने और बिजली आपूर्ति में सुधार के लिए स्मार्ट मीटर और इंसुलेटेड केबल जैसे बिजली सुधार उपायों के अलावा बिजली उत्पादन क्षमता बढ़ाने पर काम चल रहा है.
कवि-व्यंग्यकार जरीफ अहमद जरीफ कहते हैं कि आधुनिक हीटिंग सिस्टम कांगड़ी की जगह नहीं ले सकते क्योंकि कश्मीर के इतिहास और संस्कृति में इसका अपना स्थान है. हालांकि कई लोग इसकी तुलना इटली के ब्रेजियर से करते हैं, लेकिन कांगड़ी की उत्पत्ति सदियों से सादे मनन (एक बड़ा मिट्टी का बर्तन) से लेकर इसके वर्तमान आकार तक विकसित हुई है. चमकीले रंगों के साथ अच्छी तरह से सजाये हुए कांगड़ी पर मध्य एशिया के यात्रियों का प्रभाव है.
जरीफ कहते हैं, 'मध्य एशिया के प्रभाव में सिर्फ कांगेर ही नहीं बल्कि फेरन भी बेहतर हुआ और बदला. जैसे कोट या गाउन फेरन की उपयोगिता को नहीं बदल सकता, वैसे ही आधुनिक हीटिंग सिस्टम कांगड़ी की जगह फेरन नहीं ले सकते. यह शरीर के हर हिस्से को गर्म रखता है- हाथ, पैर और यहां तक कि चेहरा भी.'
कांगड़ी परंपरा और कश्मीरी संस्कृति का प्रतीक (ETV Bharat)
ऐसा कहा जाता है कि अगर कांगड़ी को सावधानी से न रखा जाए तो यह जलने या आग लगने का कारण बन सकती है. इमारतों को नुकसान पहुंचा सकती है. जीवन के लिए खतरा पैदा कर सकती है. इसके अलावा, अगर खराब हवादार कमरों में इसका इस्तेमाल किया जाए तो दम घुटने से मौत के कुछ मामले भी सामने आए हैं. सिर्फ ऐसे सुरक्षा जोखिम ही नहीं, इन अग्निपात्रों के इस्तेमाल से एक अजीबोगरीब त्वचा कैंसर भी होता है. इसका इतिहास 150 से अधिक सालों से दर्ज है. इसे 'कांगड़ी कैंसर' भी कहा जाता है. यह नाम डब्ल्यू.जे. एल्म्सली ने गढ़ा था. वे कश्मीर आए थे और 1865 में एक मिशनरी डिस्पेंसरी की स्थापना की थी.
एक साल बाद उन्होंने इंडियन मेडिकल गजट के पहले अंक में इस घातक बीमारी के उच्च प्रकोप के बारे में बताया. गर्मी से प्रभावित त्वचा कार्सिनोमा (त्वचा की बाहरी परतों में उत्पन्न होने वाला कैंसर), यह जांघ के अंदरूनी हिस्से और पेट के निचले हिस्से में विकसित होता है. ये ऐसे क्षेत्र हैं जो कांगड़ी के लगातार संपर्क में रहते हैं.
श्रीनगर स्थित शेर-ए-कश्मीर आयुर्विज्ञान संस्थान (एसकेआईएमएस) का क्षेत्रीय कैंसर केंद्र अकेले ही प्रतिवर्ष लगभग 60 ऐसे मामलों की रिपोर्ट करता है. संस्थान में ऐसे दर्जनों रोगियों का उपचार और अध्ययन करने वाले रेडिएशन ऑन्कोलॉजिस्ट डॉ. मलिक तारिक रसूल कहते हैं कि जागरूकता और कांगड़ी के स्थान पर आधुनिक हीटिंग उपकरणों के इस्तेमाल से इस घातक बीमारी पर काफी हद तक अंकुश लगा है.
ऑन्कोलॉजिस्ट बताते हैं, 'कांगड़ी कैंसर 60 साल से अधिक उम्र के लोगों को प्रभावित करता है. क्योंकि गर्मी से त्वचा को नुकसान पहुंचने में दो दशक तक का समय लग सकता है. कोशिकाओं के क्षतिग्रस्त होने के कारण त्वचा का रंग बदलने से होने वाली बीमारी समय के साथ जानलेवा कैंसर में बदल सकती है. अगले 40 सालों में हो सकता है कि हमें यह बीमारी न दिखे.'
इस तरह के सुरक्षा और स्वास्थ्य संबंधी खतरों को देखते हुए और दुर्भाग्यशाली प्रेमी लैला और मजनूं के भाग्य को न भूलें - कश्मीर की सर्द रात में उस कांगड़ी को गले लगाने से पहले कुछ सावधानी बरतना उचित है.