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CAA के खिलाफ केरल सरकार ने सुप्रीम कोर्ट में दायर की याचिका

Kerala Govt moves SC on CAA: केरल सरकार ने नागरिकता संशोधन अधिनियम, 2019 (CAA) को लागू करने से रोकने की मांग करते हुए सुप्रीम कोर्ट का दरवाजा खटखटाया. केरल सरकार ने तर्क दिया है कि सीएए कानून को लागू करने में चार वर्षों से अधिक समय लगा, इसका मतलब ये है कि केंद्र सरकार जानती है कि इस कानून को लागू करने की कोई जल्दबाजी आवश्यकता नहीं है.

Kerala government files plea in Supreme Court on CAA its stay
केरल सरकार ने नागरिकता संशोधन अधिनियम (सीएए) के खिलाफ सुप्रीम कोर्ट में दायर की याचिका

By ETV Bharat Hindi Team

Published : Mar 17, 2024, 11:27 AM IST

नई दिल्ली:केरल सरकार ने केंद्र को नागरिकता संशोधन अधिनियम, 2019 (सीएए) और उसके नियमों को लागू करने से रोकने के लिए अंतरिम निषेधाज्ञा की मांग करते हुए सुप्रीम कोर्ट का रुख किया है, जिन्हें हाल ही में अधिसूचित किया गया. एक आवेदन में एलडीएफ सरकार ने प्रस्तुत किया कि सीएए नियमों के लागू होने के साथ जो व्यक्ति इसके अनुसार नागरिकता के हकदार बन गए हैं, वे नागरिकता के लिए आवेदन करेंगे. वादी राज्य सीएए का अनुपालन सुनिश्चित करने के लिए बाध्य होगा. प्रस्तुत किये गये नियम एवं आदेश असंवैधानिक हैं.

राज्य सरकार का मूल मुकदमा लंबित है, जहां उसने पाकिस्तान, बांग्लादेश और अफगानिस्तान के केवल छह धर्मों के अल्पसंख्यकों को नागरिकता प्रदान करने के लिए 2019 कानून की वैधता को चुनौती दी है. राज्य सरकार ने कहा कि धर्म और देश के आधार पर वर्गीकरण भेदभावपूर्ण, मनमाना, अनुचित और धर्मनिरपेक्षता के सिद्धांतों का उल्लंघन है. इसे इस अदालत ने संविधान की मूल संरचना के रूप में बार-बार मान्यता दी है.

इसमें कहा गया है कि अधिनियम के पारित होने के चार साल से अधिक समय बाद अधिसूचित सीएए नियमों से कई संकेत मिलते हैं. केंद्र को पता था कि प्रावधानों को लागू करने में कोई जल्दबाजी नहीं है. राज्य ने कहा कि यह प्रस्तुत किया गया है कि संशोधन अधिनियम एक रंग-बिरंगा कानून है. संविधान की धर्मनिरपेक्ष प्रकृति का उल्लंघन करते हुए उक्त कानून बनाने पर संवैधानिक रोक है, लेकिन इसके बावजूद विधायिका ने इसे अधिनियमित किया है.

यह प्रस्तुत किया गया है कि भले ही नागरिकता संशोधन विधेयक के उद्देश्यों और कारणों के बयान में पाकिस्तान, अफगानिस्तान और बांग्लादेश के अल्पसंख्यकों के उत्पीड़न का उल्लेख किया गया है, लेकिन लागू संशोधन अधिनियम उन व्यक्तियों के वर्ग को प्रतिबंधित नहीं करता है जिन्हें लाभ मिलता है. याचिका में कहा गया है कि संशोधन का विस्तार उन लोगों तक किया गया है जो वास्तव में सताए गए हैं या सताए जाने का दावा करते हैं.

संशोधन अधिनियम और नियमों और आदेशों के प्रयोजनों के लिए पाकिस्तान, अफगानिस्तान और बांग्लादेश तीन देशों को एक साथ समूहित करने का कोई औचित्य नहीं है. इस तरह का समूह धर्म के आधार पर उत्पीड़न का सामना करने वाले धार्मिक अल्पसंख्यकों के तर्कहीन रूप से चुने गए वर्ग के लिए एक अलग विशेष उपचार को उचित ठहराने वाले किसी भी तर्कसंगत सिद्धांत पर आधारित नहीं है.

याचिका में आगे कहा गया है, 'पाकिस्तान, अफगानिस्तान और बांग्लादेश के अल्पसंख्यकों के एक वर्ग को दिए गए अधिकारों को श्रीलंका, म्यांमार, नेपाल और भूटान के धार्मिक अल्पसंख्यकों तक नहीं बढ़ाने का कोई औचित्य नहीं है. बिना किसी तर्क या मानक सिद्धांतों के पाकिस्तान, अफगानिस्तान और बांग्लादेश के उपरोक्त तीन देशों का मनमाना वर्गीकरण स्पष्ट मनमानी है और संविधान के अनुच्छेद 14 का उल्लंघन है.

जबकि पाकिस्तान, अफगानिस्तान और बांग्लादेश के हिंदू लागू संशोधन अधिनियम के अंतर्गत आते हैं, प्रतिवादी ने श्रीलंका में मुख्य रूप से तमिल मूल के हिंदुओं और नेपाल के तराई में हिंदू मधेसियों के मुद्दों पर विचार नहीं किया, जिनके पूर्वज तत्कालीन ब्रिटिश भारत से अठारहवीं शताब्दी में क्रमशः श्रीलंका और नेपाल चले गए थे'.

याचिका में कहा गया, 'शियाओं को कथित तौर पर पाकिस्तान, अफगानिस्तान और बांग्लादेश में उत्पीड़न का शिकार होना पड़ता है और कथित तौर पर, हजारा ऐतिहासिक रूप से अफगानिस्तान में सबसे संयमित जातीय अल्पसंख्यक समूह हैं. यदि लागू संशोधन अधिनियम का उद्देश्य अफगानिस्तान, पाकिस्तान और बांग्लादेश में धार्मिक उत्पीड़न का सामना करने वाले अल्पसंख्यकों की रक्षा करना है, फिर इन देशों के अहमदिया और शिया भी हिंदू, सिख, बौद्ध, जैन, पारसी और ईसाई समुदायों के समान व्यवहार के हकदार हैं'.

याचिका में जोड़ा गया कि सभी उत्पीड़न केवल धार्मिक आधार पर नहीं होते हैं बल्कि जातीयता, भाषाई आदि जैसे विभिन्न कारणों से होते हैं. वे तीन देशों के उक्त वर्ग में भी जातीयता, भाषाविज्ञान आदि के आधार पर उत्पीड़न को कवर नहीं करते हैं. वे 12 पाकिस्तान में बलूच, सिंधी, पख्तून और मोहाजिरों और बांग्लादेश में बिहारियों के जातीय मुद्दों को कवर नहीं करते हैं.

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