गया:बिरहोरके दो शब्द बिर मतलब जंगल और होर मतलब आदमी यानी जंगल में रहने वाला आदमी, से बना है. बिरहोर का नाम जेहन में आते ही समय के साथ तेजी से विलुप्त होते जनजाति की तस्वीर सामने आती है. इनके उत्थान और विकास के लिए सरकार कई योजनाएं चला रही है, लेकिन आज भी इनकी किस्मत नहीं बदली. ईटीवी भारत आज आपको बिहार के गया के एक जंगल में निवास करने वाले ऐसे ही बिरहोर आदिवासियों की जिंदगी के बारे में बता रहा है.
गया में रहते हैं बिरहोर आदिवासी:बिहार के गया जिले के सुदूरवर्ती फतेहपुर प्रखंड अंतर्गत गुरपा में पहाड़ी की तलहटी के नीचे बिरहोर आदिवासी निवास करते हैं. तकरीबन ढाई सौ से अधिक इन बिरहोर आदिवासियों की संख्या है. आज भी यहां रहने वाले बिरहोर आदिवासियों का व्यवहार पुराने युग के आदिवासियों का एहसास करा देता है.
दूसरे लोगों से दूरी बनाकर रखते हैं: दूसरे लोगों को देखकर उनमें एक डर जैसा पैदा हो जाता है और वो बात करना पसंद नहीं करते. हालांकि कुछ लोग अब धीरे-धीरे खुलना शुरू हुए हैं, लेकिन आज भी ज्यादातर आबादी किसी से बात करने से दूर रहना ही पसंद करती है. खासकर महिलाएं नए अनजान व्यक्ति को देखकर दूर होने का प्रयास करती हैं.
विलुप्त होती जनजाति है बिरहोर:आदिवासियों की विलुप्त होती जनजाति में से एक बिरहोर आदिवासियों का समुदाय है. बिरहोर आदिवासी काफी कम संख्या में रह गए हैं. ऐसे अब गिने-चुने ही स्थान होंगे, जहां इन बिरहोर की आबादी होगी. इसी में एक गया का गुरपा है, जहां बिरहोरों की अच्छी खासी आबादी है.
बिरहोरों की भाषा को समझना होता है मुश्किल : पुराने व्यवहार के अनुसार आज भी कुछ बिरहोर ऐसे हैं, जो पेड़ों पर चढ़े रहते हैं और अपनी भाषा में आवाज निकालते हैं. पेड़ों की टहनियों को झुकाने और हिलाते हुए बोलते भी नजर आ जाते हैं. उनकी आदिवासी भाषा को समझना काफी मुश्किल है. हालांकि अब काफी संख्या में बिरहोर आदिवासियों ने पूरी तरह से हिंदी समझना और बोलना शुरू कर दिया है.
घरों में किवाड़, खटिया नहीं:इन बिरहोर आदिवासियों के घरों में किवाड़ लगे नहीं मिलेंगे. एक खटिया भी इनसे कोसों दूर है. पूरा बिरहोर आदिवासी जमीन में ही सोता है. निश्चित तौर पर आज के दौर में यह स्थिति प्रशासनिक संवेदनहीनता की पराकाष्ठा बताती है. यहां पुराने इंदिरा आवास कुछ संख्या में हैं, जो कि अब जीर्ण शीर्ण हालत में आ गए हैं.
"यहां कोई भी पढ़ा लिखा नहीं है. यह जो स्कूल खुला है, उसमें भी दूसरे टोले के बच्चे ज्यादा संख्या में आकर पढ़ते हैं. इक्के-दुक्के आदिवासी के बच्चे पढ़ने को जाते हैं. आज भी बिरहोर आदिवासियों में से कई को राशन कार्ड नहीं है. आवास योजना का लाभ नहीं दिया गया है, तो कई के पास वोटर कार्ड और आधार कार्ड भी नहीं है."- कारू बिरहोर, गुरपा गांव
ताड़ के पत्तों की झोपड़ी : इसके कारण आदिवासियों ने ताड़ के पत्तों से घर बनाया है. सूअर के बखोर जैसे बनाए घर में भी अधिकांश आबादी अपनी रात गुजारते हैं. हालांकि कुछ को आवास योजना का लाभ हाल में दिया गया है, लेकिन ये बताते हैं, कि उन्हें पैसे नहीं दिए गए, जिसके कारण पूरा निर्माण नहीं हो सका.
असहाय बिरहोरों की हकमारी कर रहे बिचौलिए: सरकार आदिवासियों के संरक्षण और उत्थान के लाख दावे कर ले, लेकिन गुरपा के बिरहोर आदिवासियों की स्थिति बताती है, कि कहीं ना कहीं प्रशासनिक संवेदनहीनता है. वहीं, बिचौलिए इन गरीब असहायों की हकमारी कर रहे हैं. इन्हें जो हक मिलना चाहिए, वह उनके घरों तक नहीं पहुंच पाता. बीच में ही डकार लिया जाता है.
"हमें राशन कार्ड नहीं मिला है. खाए बिना कमजोर हो गई हूं. बीमार रहती हूं. जब शरीर में कुछ ताकत रहती है, तो दूसरे के घर में काम करते हैं और तब जाकर किसी तरह से भोजन नसीब हो पाता है. सरकार की योजना का लाभ हमें नहीं मिलता है, जबकि हम लोग में से कई लोग वोट भी देते हैं."-शामू बिरहोर,गुरपा गांव
अनाज नहीं तो ये खाते हैं: बिरहोर आदिवासियों के अनुसार उन्हें दो शाम का भोजन नसीब नहीं हो पाता है. यदि कमाई अच्छी नहीं हुई, तो भूखे भी रहना पड़ता है. भूख मिटाने के लिए ये जड़ी बूटी खाते हैं. जड़ी बूटी के रूप में टेना गेठी का उपयोग करते हैं, जो शकरकंद की तरह मीठा होता है. कई दिनों तक उनकी भूख से लड़ाई जो चलती है, उसे टेना गेठी ही शांत करती है.
भीख नहीं मांगते बिरहोर: बरसात के दिनों में उनकी स्थिति बद से बदतर हो जाती है. बिरहोर आदिवासी मेहनती होते हैं. ये भीख मांगना पसंद नहीं करते, लेकिन उनकी ताकत और साहस आज भिक्षावृत्ति के रूप में तब्दील हो गए हैं. कई बिरहोर आदिवासी ऐसे हैं, जो दूसरों के घरों से जाकर भीख मांगते हैं और तब जाकर उनके घर का गुजारा बमुश्किल हो पाता है.
महीनों तक नहीं मिलती रोटी: कुल मिलाकर इनके 2 शाम की रोटी का भोजन का जुगाड़ हो पाना काफी मुश्किल है. यहां के बिरहोर आदिवासी बताते हैं, कि उन्हें रोटियां खाए कई दिन हो जाते हैं. यहां के लोगों के बैंक अकाउंट तक नहीं है.
बीमारियों ने तोड़ा, बच्चे कुपोषण का शिकार: गुरपा में रह रहे इन आदिवासियों को बीमारियों ने तोड़ दिया है. विभिन्न तरह की बीमारियों से बिरहोर आदिवासी ग्रसित है. यहां के लोग बताते हैं कि बच्चे कुपोषण का शिकार हो रहे हैं. यहां एक प्राथमिक विद्यालय खुला है, लेकिन यहां शिक्षा की बात करें, तो अब तक कोई भी शिक्षित नहीं है.