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भगवान बिरसा मुंडा की 150वीं जयंती, क्यों होती है इनकी पूजा, यहां जानिए

भगवान बिरसा मुंडा की आज 150वीं जयंती है. इस अवसर पर उन्हें पूरा देश नमन कर रहा है.इस रिपोर्ट में जानिए वे कैसे भगवान बनें.

BIRTH ANNIVERSARY OF BIRSA MUNDA
डिजाइन इमेज (ईटीवी भारत)

By ETV Bharat Jharkhand Team

Published : 6 hours ago

Updated : 2 hours ago

रांची: झारखंड में भगवान की तरह पूजे जाने वाले धरती आबा बिरसा मुंडा की आज 150वीं जयंती है. देश उनकी जयंती पर जनजाति गौरव दिवस के रूप में मना रहा है. आज प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी भी कई कार्यक्रमों में शामिल होंगे और बिरसा मुंडा को नमन करेंगे.

बिरसा मुंडा झारखंड और देश के ऐसे जननायक हैं जिन्हें कभी भुलाया नहीं जा सकता है. उनके नाम पर कई योजनाएं चलती हैं. संसद भवन परिसर में इनकी प्रतिमा है. झारखंड और आदिवासियों के बीच तो वे भगवान बिरसा मुंडा हैं.

बिरसा मुंडा का जन्म और उनकी शुरुआती पढ़ाई

बिरसा मुंडा का जन्म 15 नवंबर 1875 में तब के रांची और आज के खूंटी जिले उलीहातू गांव में एक आदिवासी परिवार में हुआ था. बिरसा के पिता का नाम सुगना मुंडा था और उसकी मां का नाम करमी मुंडा था. बिरसा मुंडा ने अपनी शुरुआती पढ़ाई मिशनरी स्कूल में की. पढ़ाई के दौरान ही उन्होंने देखा की अंग्रेज कैसे भारतीयों और उनके समाज पर जुल्म कर रहे हैं. आखिरकार उन्हें ये जुल्म बर्दाश्त नहीं हुआ और उन्होंने अंग्रेजों के खिलाफ बिगुल फूंक दिया. 1894 में जब छोटा नागपुर इलाके में अकाल और महामारी ने एक साथ दस्तक दी तो उस वक्त भी बिरसा मुंडा ने लोगों की सेवा पूरे मन से किया.

1894 में अंग्रेजों के खिलाफ किया आंदोलन

1934 में बिरसा मुंडा ने अंग्रेजों के खिलाफ लगान माफी के लिए आंदोलन शुरू कर दिया. बिरसा की बढ़ती लोकप्रियता से अंग्रेज घबरा गए और 1895 में बिरसा मुंडा को गिरफ्तार कर लिया और हजारीबाग जेल भेज दिया. यहां पर बिरसा मुंडा करीब दो साल तक बंद रहे. बिरसा मुंडा ने जो क्रांति की मशाल जलाई थी वह भड़कती रही और 1897 से 1900 के बीच अंग्रेजों और मुंडाओं के बीच युद्ध होते रहे.

खूंटी में बिरसा मुंडा और अंग्रेजों के बीच युद्ध

अगस्त 1897 में बिरसा मुंडा और उनके करीब 400 साथियों ने तीर कमान से लैस होकर खूंटी थाने पर धावा बोल दिया. 1898 में तांगा नदी के किनारे भी मुंडाओं और अंग्रेजों की भीषण भिड़ंत हुई, इस लड़ाई में अंग्रेजी सेना हार गई, लेकिन अंग्रेजों ने इसका बदला लेते हुए उस इलाके के कई आदिवासी नेताओं को गिरफ्तार कर लिया. इसके बाद साल 1900 में डोमबाड़ी पहाड़ी पर एक और युद्ध हुआ. इस लड़ाई में कई बच्चों और महिलाओं की मौत हो गई.

रांची में बिरसा मुंडा ने ली आखिरी सांस

अंग्रेजों के खिलाफ बिरसा मुंडा लगातार युद्ध कर रहे थे. जिसके कारण फरवरी 1900 में अंग्रेजों ने चक्रधरपुर से बिरसा मुंडा को गिरफ्तार कर लिया और रांची जेल में बंद कर दिया. यहीं पर बिरसा मुंडा ने 9 जून 1900 को अंतिम सांस ली. ब्रिटिश सरकार ने बताया कि उनकी मौत हैजा के कारण हुई है. हालांकि कई लोग कहते हैं कि उस वक्त उनमें हैजा के कोई लक्षण दिखाई नहीं दिए थे.

बिरसा मुंडा ने बिरसाइत की शुरुआत की

भगवान बिरसा मुंडा के बताए मार्ग पर चलने वाले को बिरसाइच कहा जाता है. आज भी उनके शिष्य उनके बताए मार्ग पर चलते हैं. बिरसा मुंडा का जीवन पूरी तरह से आदिवासी समुदाय के लिए समर्पित था. अंग्रेजों के जुल्म के खिलाफ बिरसा मुंडा ने बिगुल फूंका था. बिरसा मुंडा एक प्रगतिशील चिंतक और एक सुधारवादी नेता रहे. उन्होंने अपने समाज को अंधविश्वास, नशा के खिलाफ जागरूक किया. उन्होंने लोगों को समझाया कि जीव हत्या ठीक नहीं है, बलि देना गलत है, जीवों के प्रति दया भाव होनी चाहिए, उन्होंने आदिवासियों को शराब का सेवन करने से भी रोका. बिरसा मुंडा ने आदिवासियों को एक होने और संगठित होने पर जोर दिया.

झारखंड के अलावा बिरसा मुंडा बिहार, ओडिशा, छत्तीसगढ़ और पश्चिम बंगाल के आदिवासी इलाकों में भी पूजा की जाती है. रांची के कोकर में बिरसा मुंडा की समाधि है जहां हर साल उन्हें नमन करने सैकड़ों लोग आते हैं.

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