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आपदाओं के बाद भी नहीं चेत रही सरकार, तालों और ग्लेशियरों का नहीं हुआ अध्ययन - ग्लेशियरों पर नहीं हो रहे अध्ययन

उत्तराखंड के उत्तरकाशी में बीते वर्षों में कई आपदाएं आईं. इसके बाद भी अभी तक इन आपदाओं और उससे होने वाले जानमाल के नुकसान को रोकने के लिए सरकार कोई ठोस कदम नहीं उठा सकी है.

तालों और ग्लेशियरों का नहीं हुआ अध्ययन
तालों और ग्लेशियरों का नहीं हुआ अध्ययन.
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Published : Feb 12, 2021, 4:10 PM IST

उत्तरकाशी: चमोली जनपद के सीमान्त क्षेत्र ऋषिगंगा घाटी में हुई भारी तबाही के बाद सीमान्त उत्तरकाशी जनपद के लोग भी सहमे नजर आ रहे हैं. बीते सालों चाहे वह 1978, 2012, 2013 की विनाशकारी बाढ़ हो या 1991 का भूकम्प या 2003 की वरुणावत त्रासदी उत्तरकाशी के लोग इन आपदाओं को हमेशा झेलते आ रहे हैं. इतनी आपदाओं के बाद जन-हानि और तबाही के रोकने के लिए प्रदेश सरकार और शासन-प्रशासन कोई कारगर योजना नहीं बना पाये हैं. अब ऋषिगंगा की तबाही के बाद प्रदेश सरकार को गंगोत्री ग्लेशियर की याद आई है. लेकिन अभी तक उत्तरकाशी में पूर्व में विनाश का कारण बन चुके हिमाच्छादित क्षेत्रों के तालों पर किसी प्रकार का अध्ययन नहीं हुआ है. न ही इनसे अचानक होने वाली आपदा को रोकने के लिए कोई कारगर योजना बनाई गई है.

केदारताल.
केदारताल.

कब-कब आई आपदा
उत्तरकाशी जनपद में विनाशकारी बाढ़ की बात की जाए तो वर्ष 1978 में गंगनानी से करीब 3 किलोमीटर आगे उच्च हिमालयी क्षेत्र से आने वाली नदी में भारी मलबा आ गया था. जिसके कारण भागीरथी का बहाव रुक गया था और उत्तरकाशी जनपद मुख्यालय में बाढ़ आ गई थी. इसके बाद साल 2012 में करीब 3,000 मीटर की ऊंचाई पर स्थित डोडीताल में भी उच्च हिमालय क्षेत्रों से मलबा आ जाने के कारण विनाशकारी बाढ़ आ गई थी. वहीं 2013 में गंगोत्री क्षेत्र में बाढ़ का विनाशकारी रूप देखने को मिला था. विशेषज्ञों के मुताबिक, साल 2010 से 2017 तक कई विनाशकारी आपदाएं उत्तराखंड में देखने को मिलीं. इस दौरान गौमुख में ग्लेशियर टूटा था, जिसका मलबा गंगोत्री तक पहुंचा था. पर्यावरणविदों के मुताबिक, भागीरथी नदी पर जल विद्युत परियोजनाओं और हिमालय क्षेत्रों में आबादी के घुसने से कभी भी बड़ी विनाशकारी आपदा हो सकती है.

विशेषज्ञों की क्या है राय
विशेषज्ञों का कहना है कि बड़ी परियोजनाओं की जगह छोटी-छोटी ऊर्जा परियोजनाओं को महत्व दिया जाना चाहिए. विशेषज्ञों के मुताबिक, ग्लेशियरों पर अध्ययन तो हो रहे हैं, लेकिन वह मात्र बर्फ पिघलने तक सीमित हैं. उच्च हिमालय क्षेत्रों में स्थित तालों के आसपास स्थित मलबा कब ग्लेशियरों के टूटने से निचले क्षेत्रों में तबाही ला दे यह कोई नहीं जानता. गंगोत्री घाटी के 4,000 मीटर ऊंचाई पर स्थित केदारताल के एक तरफ भारी मलबा जमा है, वहीं डोडीताल झील के ऊपर भी अभी तक मलबा जमा है. अगर इनसे होने वाली प्राकृतिक आपदा के नुकसान को रोकने के लिए समय रहते कोई कदम नहीं उठाए जाएंगे तो उत्तरकाशी की भागीरथी नदी और इसकी सहायक नदियों की संकरी घाटियां कभी भी विकराल हो सकती हैं.

उत्तरकाशी: चमोली जनपद के सीमान्त क्षेत्र ऋषिगंगा घाटी में हुई भारी तबाही के बाद सीमान्त उत्तरकाशी जनपद के लोग भी सहमे नजर आ रहे हैं. बीते सालों चाहे वह 1978, 2012, 2013 की विनाशकारी बाढ़ हो या 1991 का भूकम्प या 2003 की वरुणावत त्रासदी उत्तरकाशी के लोग इन आपदाओं को हमेशा झेलते आ रहे हैं. इतनी आपदाओं के बाद जन-हानि और तबाही के रोकने के लिए प्रदेश सरकार और शासन-प्रशासन कोई कारगर योजना नहीं बना पाये हैं. अब ऋषिगंगा की तबाही के बाद प्रदेश सरकार को गंगोत्री ग्लेशियर की याद आई है. लेकिन अभी तक उत्तरकाशी में पूर्व में विनाश का कारण बन चुके हिमाच्छादित क्षेत्रों के तालों पर किसी प्रकार का अध्ययन नहीं हुआ है. न ही इनसे अचानक होने वाली आपदा को रोकने के लिए कोई कारगर योजना बनाई गई है.

केदारताल.
केदारताल.

कब-कब आई आपदा
उत्तरकाशी जनपद में विनाशकारी बाढ़ की बात की जाए तो वर्ष 1978 में गंगनानी से करीब 3 किलोमीटर आगे उच्च हिमालयी क्षेत्र से आने वाली नदी में भारी मलबा आ गया था. जिसके कारण भागीरथी का बहाव रुक गया था और उत्तरकाशी जनपद मुख्यालय में बाढ़ आ गई थी. इसके बाद साल 2012 में करीब 3,000 मीटर की ऊंचाई पर स्थित डोडीताल में भी उच्च हिमालय क्षेत्रों से मलबा आ जाने के कारण विनाशकारी बाढ़ आ गई थी. वहीं 2013 में गंगोत्री क्षेत्र में बाढ़ का विनाशकारी रूप देखने को मिला था. विशेषज्ञों के मुताबिक, साल 2010 से 2017 तक कई विनाशकारी आपदाएं उत्तराखंड में देखने को मिलीं. इस दौरान गौमुख में ग्लेशियर टूटा था, जिसका मलबा गंगोत्री तक पहुंचा था. पर्यावरणविदों के मुताबिक, भागीरथी नदी पर जल विद्युत परियोजनाओं और हिमालय क्षेत्रों में आबादी के घुसने से कभी भी बड़ी विनाशकारी आपदा हो सकती है.

विशेषज्ञों की क्या है राय
विशेषज्ञों का कहना है कि बड़ी परियोजनाओं की जगह छोटी-छोटी ऊर्जा परियोजनाओं को महत्व दिया जाना चाहिए. विशेषज्ञों के मुताबिक, ग्लेशियरों पर अध्ययन तो हो रहे हैं, लेकिन वह मात्र बर्फ पिघलने तक सीमित हैं. उच्च हिमालय क्षेत्रों में स्थित तालों के आसपास स्थित मलबा कब ग्लेशियरों के टूटने से निचले क्षेत्रों में तबाही ला दे यह कोई नहीं जानता. गंगोत्री घाटी के 4,000 मीटर ऊंचाई पर स्थित केदारताल के एक तरफ भारी मलबा जमा है, वहीं डोडीताल झील के ऊपर भी अभी तक मलबा जमा है. अगर इनसे होने वाली प्राकृतिक आपदा के नुकसान को रोकने के लिए समय रहते कोई कदम नहीं उठाए जाएंगे तो उत्तरकाशी की भागीरथी नदी और इसकी सहायक नदियों की संकरी घाटियां कभी भी विकराल हो सकती हैं.

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