उत्तरकाशी: किसी भी परिवार में परिजन की मौत पर आपने लोगों को रोते-बिलखते और मातम मनाते देखा होगा. क्योंकि परिवार पर दुखों का पहाड़ जो टूटा पड़ता है. लेकिन आज हम आपको ऐसी हकीकत से रूबरू कराने जा रहे हैं. जिसको सुनकर आप भी हैरान रह जाएंगे. जी हां ठीक सुना आपने सीमांत जनपद उत्तरकाशी के बाजगी समाज के लोग किसी की मौत पर पंशारा नृत्य करते हैं. जो प्रथा अतीत से चली आ रही है.
अतीत के साथ ही ये परंपरा अब उत्तरकाशी के रवांई घाटी के कुछ गांव तक सीमट कर रह गई है. पर्वतीय क्षेत्रों में भौगोलिक परिस्थितियों के हिसाब से यहां गांव दूर-दूर होते हैं. वहीं पहाड़ी में बसे कई गांवों के श्मशान घाट काफी दूर होते हैं. वहीं लोगों का कहना है कि रवांई घाटी के लोगों को पैदल घाटों तक पहुंचने में कभी कभी दो दिन से अधिक का समय लग जाता था. साथ ही जब गांव का कोई समृद्ध या सम्मानित बुजुर्ग की मौत होती थी तो उनकी शव यात्रा में परिजन और रिश्तेदार अधिक से अधिक ढोल- दमाऊ लाते थे. तब बुजुर्ग की समृद्धि के अनुसार ढोल दमाऊ की अगुवाई में शव यात्रा चलती थी.
इस दौरान जहां पर शव यात्रा का आराम का केंद्र होता था, वहां पर बाजगी अपनी ढोल विद्या की कलाबाजियों का प्रदर्शन करते थे. जिस दौरान शव यात्रा में शामिल व्यक्ति अपनी इच्छानुसार बाजगियों को नगद पुरस्कार भी देते थे. वहीं वरिष्ठ पत्रकार लोकेंद्र बिष्ट ने बताया कि कभी पंशारा लोकनृत्य की परंपरा उत्तरकाशी की गंगा घाटी में हुआ करती थी. लेकिन आज यह संस्कृति मात्र रवांई घाटी के कुछ गांव तक ही सीमित रह गए हैं. बहुत कम गांव में ऐसे बाजगी समुदाय के लोग हैं जो कि इस पंशारा लोकनृत्य की ढोल विद्या को जानते हैं.
उन्होंने कहा कि रवांई की एक शव यात्रा के दौरान उन्होंने स्वयं पहली बार पंशारा लोकनृत्य को देखा और बाजगियों की कला व ढोल विद्या का आज भी कोई सानी नहीं है. साथ ही यह एक समृद्ध संस्कृति की जीती जागती तस्वीर है, लेकिन यह आज विलुप्त होती जा रही है.