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बेजान पत्थरों पर शिल्पकारों ने चलाए हाथ तो बढ़ गया लोगों का स्वाद, पर इनका जीवन है बेस्वाद - उत्तराखंड न्यूज

बता दें कि इन दिनों काशीपुर के चैती मेले में सबसे पहले आकर, सबसे आखिर में जाने वाले इन कारीगरों के यहां यह काम पुराने जमाने से चला आ रहा है. पत्थर को तराशकर उसे सिलबट्टा, खरल और चक्की का रूप देना इनका खानदानी पेशा है.

काशीपुर में चैती मेला
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Published : Apr 17, 2019, 11:59 PM IST

काशीपुर: 'खुद तराशना पत्थर और खुदा बना लेना, आदमी को आता है क्या से क्या बना लेना'. काशीपुर के चैती मेले में हथौड़े और छैनी से पत्थर को आकार देते इन मेहनतकशों को देखकर बरबस ही ये पंक्तियां याद आ गईं. चिलचिलाती धूप में पत्थर को तराशकर सिल बट्टे में ढालना हुनरमंदों का ही काम है. लेकिन इलेक्ट्रॉनिक उपकरणों के इस युग में इन हुनरमंदों को उनकी कारीगिरी का वाजिब दाम नहीं मिल पा रहा है. इसके पीछे लोगों का धीरे-धीरे परंपरागत वस्तुओं से मोह भंग होना भी मुख्य कारण है. पेश है खास रिपोर्ट...

कारीगरों को नहीं मिला रहा मेले में तवज्जो.

बता दें कि इन दिनों काशीपुर के चैती मेले में सबसे पहले आकर, सबसे आखिर में जाने वाले इन कारीगरों के यहां यह काम पुराने जमाने से चला आ रहा है. पत्थर को तराशकर उसे सिलबट्टा, खरल और चक्की का रूप देना इनका खानदानी पेशा है. इन हाथ चक्की व सिल बट्टे से लोग अपना घरों में अनाज और मसाले खुद पीस लेते हैं. कारीगरों के मुताबिक पत्थर की चक्की और सिल बट्टे पर चटनी पीसने से किसी भी तरह कि बीमारी नहीं होती. साथ ही सिल बट्टे पर पिसे मसाले और चटनी का अपना अलहदा स्वाद है.

पढ़ें- दिनदहाड़े आबकारी विभाग कार्यालय में शराब कारोबारी पर बदमाशों ने झोंका फायर, बाल-बाल बची जान

सरकार भले ही गरीब लोगों के उत्थान के नाम पर कई योजनाएं चला रही हो, लेकिन उनका जमीनी लाभ कितनों को मिल पाया है इसका अंदाजा पत्थर को तराशकर अपनी रोजी रोटी के जुगत में लगे इन कारीगरों को देखकर लगाया जा सकता है. इसके मूल में अज्ञानता और जानकारी का अभाव भी है. जिसके चलते ये मेहनतकश सरकार द्वारा गरीबों के लिए चलाई जा रही कल्याणकारी योजनाओं से महरूम हैं.

कारीगरों का कहना है कि सरकार द्वारा चैती मेले को राजकीय मेला घोषित करने के बाद उनकी कुछ उम्मीद तो बंधी थी कि उनका रोजगार आगे बढ़ेगा. लेकिन प्रशासन की दबंगई के चलते उन्हें सड़क किनारे से हटाकर अंदर कर दिया गया. इतना ही नहीं उनका आरोप है कि प्रशासन ने उनसे दो से तीन गुना किराया वसूला.

कारीगरों के मुताबिक, मेले में हर साल सड़क किनारे दुकान लगाने से कारीगरी का शौकीन लोग उन तक पहुंच पाते थे. लेकिन इस बार जहां इन्हें जगह दी गई है. वहां सुविधाएं ना के बराबर है और वे इसके लिए प्रशासन को ही जिम्मेदार मानते हैं. उनका आरोप है कि ठेकेदारों द्वारा उनका उत्पीड़न किया जा रहा है.

यूपी के मुरादाबाद से आए कारीगर पत्थरों को तराशकर सिल बट्टे तथा आटे की चक्की आदि बनाते हैं और ऐसे ही मेलों में अपना हुनर बेचकर परिवार का पेट पालते हैं. उनका कहना है कि इस मेले से उन्हें ज्यादा आमदनी तो नहीं होती, लेकिन हर पीस में 10 रुपए तक बच जाते है.

बहरहाल, जहां आधुनिक युग में बिजली से चलने वाली आटा चक्की तथा मिक्सर ग्राइंडर के चलन के कारण अब इन कारीगरों के सामने रोजी रोटी का संकट गहराने लगा है. वहीं, जानकारी के अभाव में इन कारीगरों को सरकारी योजनाओं का लाभ नहीं मिल पा रहा है. ऐसे में इन मेहनतकशों को राजकीय चैती मेले से ही कुछ उम्मीदें बंधी थी, लेकिन वो भी प्रशासन की कारगुजारी के चलते हवा हो गई.

काशीपुर: 'खुद तराशना पत्थर और खुदा बना लेना, आदमी को आता है क्या से क्या बना लेना'. काशीपुर के चैती मेले में हथौड़े और छैनी से पत्थर को आकार देते इन मेहनतकशों को देखकर बरबस ही ये पंक्तियां याद आ गईं. चिलचिलाती धूप में पत्थर को तराशकर सिल बट्टे में ढालना हुनरमंदों का ही काम है. लेकिन इलेक्ट्रॉनिक उपकरणों के इस युग में इन हुनरमंदों को उनकी कारीगिरी का वाजिब दाम नहीं मिल पा रहा है. इसके पीछे लोगों का धीरे-धीरे परंपरागत वस्तुओं से मोह भंग होना भी मुख्य कारण है. पेश है खास रिपोर्ट...

कारीगरों को नहीं मिला रहा मेले में तवज्जो.

बता दें कि इन दिनों काशीपुर के चैती मेले में सबसे पहले आकर, सबसे आखिर में जाने वाले इन कारीगरों के यहां यह काम पुराने जमाने से चला आ रहा है. पत्थर को तराशकर उसे सिलबट्टा, खरल और चक्की का रूप देना इनका खानदानी पेशा है. इन हाथ चक्की व सिल बट्टे से लोग अपना घरों में अनाज और मसाले खुद पीस लेते हैं. कारीगरों के मुताबिक पत्थर की चक्की और सिल बट्टे पर चटनी पीसने से किसी भी तरह कि बीमारी नहीं होती. साथ ही सिल बट्टे पर पिसे मसाले और चटनी का अपना अलहदा स्वाद है.

पढ़ें- दिनदहाड़े आबकारी विभाग कार्यालय में शराब कारोबारी पर बदमाशों ने झोंका फायर, बाल-बाल बची जान

सरकार भले ही गरीब लोगों के उत्थान के नाम पर कई योजनाएं चला रही हो, लेकिन उनका जमीनी लाभ कितनों को मिल पाया है इसका अंदाजा पत्थर को तराशकर अपनी रोजी रोटी के जुगत में लगे इन कारीगरों को देखकर लगाया जा सकता है. इसके मूल में अज्ञानता और जानकारी का अभाव भी है. जिसके चलते ये मेहनतकश सरकार द्वारा गरीबों के लिए चलाई जा रही कल्याणकारी योजनाओं से महरूम हैं.

कारीगरों का कहना है कि सरकार द्वारा चैती मेले को राजकीय मेला घोषित करने के बाद उनकी कुछ उम्मीद तो बंधी थी कि उनका रोजगार आगे बढ़ेगा. लेकिन प्रशासन की दबंगई के चलते उन्हें सड़क किनारे से हटाकर अंदर कर दिया गया. इतना ही नहीं उनका आरोप है कि प्रशासन ने उनसे दो से तीन गुना किराया वसूला.

कारीगरों के मुताबिक, मेले में हर साल सड़क किनारे दुकान लगाने से कारीगरी का शौकीन लोग उन तक पहुंच पाते थे. लेकिन इस बार जहां इन्हें जगह दी गई है. वहां सुविधाएं ना के बराबर है और वे इसके लिए प्रशासन को ही जिम्मेदार मानते हैं. उनका आरोप है कि ठेकेदारों द्वारा उनका उत्पीड़न किया जा रहा है.

यूपी के मुरादाबाद से आए कारीगर पत्थरों को तराशकर सिल बट्टे तथा आटे की चक्की आदि बनाते हैं और ऐसे ही मेलों में अपना हुनर बेचकर परिवार का पेट पालते हैं. उनका कहना है कि इस मेले से उन्हें ज्यादा आमदनी तो नहीं होती, लेकिन हर पीस में 10 रुपए तक बच जाते है.

बहरहाल, जहां आधुनिक युग में बिजली से चलने वाली आटा चक्की तथा मिक्सर ग्राइंडर के चलन के कारण अब इन कारीगरों के सामने रोजी रोटी का संकट गहराने लगा है. वहीं, जानकारी के अभाव में इन कारीगरों को सरकारी योजनाओं का लाभ नहीं मिल पा रहा है. ऐसे में इन मेहनतकशों को राजकीय चैती मेले से ही कुछ उम्मीदें बंधी थी, लेकिन वो भी प्रशासन की कारगुजारी के चलते हवा हो गई.

Intro:आज के आधुनिक युग में जहां सभी कुछ आधुनिक हो गया है वहीं आज भी अपनी परंपरा प्राचीन वस्तुओं का अपना अलग ही महत्त्व है ! अभी भी लोगों का मानना है कि खाने के साथ चटनी का मजा पत्थर के सिल बट्टे पर हाथ से बनी चटनी में ही आता है। काशीपुर के चैती मेले में सिल बट्टा व चक्की के पार्टस बनाने वाले कारीगर सबसे पहले आकर सबसे आखिर में जाते हैं तथा पूरे मेले में अपनी रोजी रोटी कमाने के लिए चिलचिलाती धूप में भी पत्थर को तराश कर उन्हें नया रुप देने में लगे हैं। पेश है काशीपुर से जायजा लेती एक रिपोर्टः- 


Body:काशीपुर में लगने वाले चैती मेले में पत्थर तराशती इन महिलाओं को देखकर एक प्रसिद्ध कवि सूर्यकान्त त्रिपाठी निराला जी की याद आ जाती है जिन्होने अपनी कविता वह तोडती पत्थर में लिखा था किः-

" वह तोडती पत्थर,मैने देखा उसे इलाहबाद के पथ पर,चढ रही थी धूप गर्मियों के थे दिन,दिवा का तमतमाता रुप उठी झुलसाती हुई लू,रुई ज्यों जलती हुई भू,गर्द चिनगी छा गयी प्रातः हुई दोपहर,वह तोडती पत्थर। " 


वीओ- गर्मी के दिनों में चैती मेले में सबसे पहले आकर सबसे आखिर में जाने वाले इन कारीगरों के यहां यह काम पुराने जमाने से होता चला आ रहा है। पत्थर को तराशकर उसे सिलबट्टा, खरल, व चक्की का रुप देना इनका पेशा है ! जिससे लोग अपना आनाज अपने हाथों से पीसते हैं और सब्जी में प्रयोग होने वाले मसाले भी खुद बनाते हैं। कारीगरों के मुताबिक़ पत्थर की चक्की और सिल बट्टे पर चटनी पीसने से किसी भी तरह कि बीमारी नहीं होती साथ ही इसके पिसे मसाले और चटनी से खाने में स्वाद तो आता ही है साथ ही इस पर मसाले और दलिया, दालें चटनी पीसने से शरीर फुर्तीला बना रहता है ! 


वीओ-  ये गरीब लोग इसी से अपनी रोजी रोटी चलाते हैं परंतु गरीबों के लिए जो योजनाएं सरकार चला रही है उनका लाभ ये लोग नहीं ले पाते इसका मुख्य कारण इन लोगों को इन योजनाओं की जानकारी न होना है। इसके साथ ही मेला सरकारी तो हुआ जहां मेला सरकारी होने से इन कारीगरों को उम्मीद बंधी थी किन का रोजगार आप और तरक्की करेगा लेकिन प्रशासन की दबंगई के चलते इन्हें सड़क किनारे से हटाकर काफी अंदर धकेल दिया गया साथ ही इनसे प्रशासन के द्वारा 2 गुना 3 गुना किराया लिया गया। इन लोगों के मुताबिक हमें लोगों के ऊपर रोजी रोटी का संकट भी गहरा गया है क्योंकि चैती मेले हर साल सड़क किनारे अपना सिलबट्टा का कारोबार चलाने वाले इन गरीबों की कारीगरी के शौकीन अब इनके पास तक नहीं पहुंच पा रहे हैं तो इनके मुताबिक वहीं दूसरी तरफ जहां इन्हें स्थान दिया गया है वही सुविधाओं के नाम पर सब कुछ शून्य है और यह सब कारीगर इसके लिए प्रशासन को ही जिम्मेदार ठहरा रहे हैं। उनके मुताबिक प्रशासन ने ठेकेदारों को मेले को ठेके पर दे दिया और ठेकेदार के द्वारा इनका उत्पीड़न किया जा रहा है।


वीओ- मूलतः पडोसी राज्य उत्तर प्रदेश के मुरादाबाद के कांजीसराय मोहल्ले से आने वाले ये कारीगर पत्थरों को तराशकर सिल बट्टा तथा आटे की चक्की आदि बनाते हैं तथा अपना तथा अपने परिवार का पेट पालते हैं। चैती मेले से इन्हें इतनी ज्यादा आमदनी तो नहीं होती लेकिन 10 रु हर पीस पर बच जाते हैं।

बाइट- सुनीता महिला कारीगर
बाइट- जितेंद्र कुमार, कारीगर
बाइट- अनिल, ग्रहक
बाइट- राजू,कारीगर


Conclusion:आधुनिक युग में बिजली से चलने वाली आटा चक्की तथा मिक्सी आदि के चलन में आने के कारण इन कारीगरों की रोजी रोटी पर संकट गहरा गया है। जरुरत है सरकारी योजनाओं को अमल में लाकर इन गरीब मजदूरों तक पहुॅचाने की जिससे कि इन्हें भी सरकारी योजनाओं का लाभ मिल सके।  लेकिन काशीपुर में पिछले वर्ष से चैती मेला सरकारी होने से लाभ की आस में इस बार अपने कारोबार को लेकर पहुंचे इन पत्थर के कारीगरो की सुनने वाला कोई नहीं है।
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