गदरपुर: बाजपुर के प्राचीन शिव मंदिर में पर्वतीय समाज की महिलाओं ने एकादशी पर्व के मौके पर आंवले के वृक्ष की पूजा अर्चना की. साथ ही पानी वाली होली का शुभारंभ किया. बता दें कि, इसे रंगभरनी एकादशी भी कहा जाता है.
गदरपुर के बाजपुर में प्राचीन शिव मंदिर में पर्वतीय समाज की महिलाओं ने भजन कीर्तन कर आंवले के वृक्ष की पूजा अर्चना की और पानी वाली होली की शुभारंभ किया. पर्वतीय समाज की महिला रेखा उपाध्याय ने बताया कि इस एकादशी पर्व की मान्यता है कि होली से पहले इस दिन आंवले के वृक्ष की पूजा की जाती है. साथ ही परिवार के सभी सदस्यों के होली खेलने वाले कपड़ों पर गीला रंग लगाया जाता है. उन कपड़ों को पहन कर ही होली के दिन होली खेली जाती है.
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पर्वतीय समाज की महिलाओं का मानना है कि भगवान श्रीकृष्ण के समय से आ रही यह परंपरा है. गोपियां जब नदी में स्नान के लिए जाया करती थीं, तब भगवान श्री कृष्ण उनके कपड़ों को छिपा दिया करते थे. इसी परंपरा को आगे बढ़ाने के लिए आंवले के वृक्ष की पूजा की जाती है. महिलाओं के अनुसार आंवले के वृक्ष को भगवान विष्णु का स्वरूप माना जाता है.
बता दें कि, फाल्गुन मास के शुक्ल पक्ष में आने वाली एकादशी को आमलकी एकादशी कहते हैं. मान्यता है कि इस एकादशी से होली के रंग की शुरुआत हो जाती है. इस मौके पर लोग मंदिर में रंग चढ़ाकर अपने अपने इष्ट देवता की पूजा कर होली की शुरुआत करते हैं. साथ ही आज से होली गायन के साथ रंगों की होली भी शुरू हो जाती है.
वहीं, आंवला को शास्त्रों में श्रेष्ठ स्थान प्राप्त है. विष्णु जी ने जब सृष्टि की रचना के लिए ब्रह्मा को जन्म दिया, उसी समय उन्होंने आंवले के वृक्ष को जन्म दिया. आंवले को भगवान विष्णु ने आदि वृक्ष के रूप में प्रतिष्ठित किया है. इसके हर अंग में ईश्वर का स्थान माना गया है. इस व्रत के करने से समस्त पाप नष्ट हो जाते हैं. इस व्रत का फल एक हजार गौदान के फल के बराबर होता है.